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शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

शबनम शर्मा जी की भावपूर्ण कवितायें

प्रस्तुति :- प्रकाश गोविन्द


शबनम शर्माshabnam_sharma परिचय -
जन्म तिथि : 20 जनवरी 1956 को नाहन में।
शिक्षा : बी.ए., बी.एड.
संप्रति : अध्यापन।
प्रकाशित रचनाएँ : अनमोल रत्न तथा काव्य कुंज दो कविता संग्रह प्रकाशित।
कार्यक्षेत्र : अध्यापन व लेखन। ग़ज़लें, कविताएँ, लेख, कहानियों व लघुकथाओं सहित लगभग 600 रचनाएँ प्रकाशित।

आकाशवाणी शिमला व दूरदर्शन से ग़ज़लें व कविताएँ प्रसारित। भारत के अनेक कवि सम्मेलनों में भागीदारी।

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प्रश्न
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मैं भी तुम्हारी तरह
सुबह से शाम तक खटती, nothing-to-something
देखती कई उतार-चढ़ाव,
सहती अनगिनत अप्रिय शब्द,
लौटती घर पूरी तरह
निचोड़ी गई किसी चूनरी की तरह,
पर शायद तुम ज़्यादा थक जाते,
निच्छावर करती संपूर्ण अस्तित्व
तुम्हें खुश रखने हेतू,
बनना चाहती अच्छी माँ, पत्नि, बहन,
एक अच्छी व्यवसायिका भी,
परंतु एक सवाल सदैव झंझोड़ता
कि तुम मुझसे ज़्यादा क्यों थकते हो,
शायद समाज का बोझ तुम पर ज़्यादा है,
और तुम अबला कह कर,
मुझे कितनी सबला बना, पीस जाते हो
समाज की लोह चक्की में।
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बेटियाँ
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शायद पल भर में ही KwanYinIIIBBNNBB
सयानी हो जाती हैं - बेटियाँ,
घर के अंदर से
दहलीज़ तक कब
आ जाती हैं बेटियाँ
कभी कमसिन, कभी
लक्ष्मी-सी दिखती हैं – बेटियाँ।
पर हर घर की तकदीर,
इक सुंदर तस्वीर होती हैं – बेटियाँ।
हृदय में लिए उफान,
कई प्रश्न, अनजाने
घर चल देती हैं बेटियाँ,
घर की, ईंट-ईंट पर,
दरवाज़ों की चौखट पर
सदैव दस्तक देती हैं – बेटियाँ।
पर अफ़सोस क्यों सदैव
हम संग रहती नहीं - ये बेटियाँ।
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मुसाफ़िर
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ममता, फ़र्ज़ और समय के द्वंद्व में
किस तरह मैंने अपनी कश्ती खींची।
कई बार ममता के थपेड़ों
को पीछे हटा फ़र्ज़ निभाया,
समय का पहिया
घूमता रहा अपना धुरी पर
कई कष्ट झेले हैं
मेरी अंदर की औरत ने,
मेरी माँ रोई है कई बार,
मेरी औरत तड़पती है अँधेरी रातों में,
परंतु समय के पतवार
अपने चप्पू चलाते रहे,
कश्ती लिए किनारे तक
आ ही गई, उतर गए मुसाफ़िर,
चल दिए मंज़िलों की तरफ़,
कह कर कि कश्ती का सफ़र भी कोई सफ़र था।
इल्ज़ाम
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मैं चल रही हूँ
या वक्त खड़ा है
दोनों ही सवाल
सही हैं
शायद बलवान है वक्त,
जो मेरी ज़िंदगी के
हिंडोले को कभी
हल्का-सा हिलाता
तो कभी झिंझोड़ जाता।
महसूस करती वक्त
के थपेड़ों को मैं
कभी हँसकर तो कभी रो कर
इल्ज़ाम देती कि वक्त
ख़राब है शायद इसलिए
कि अपने सिर इल्ज़ाम
लेना इंसान की
फ़ितरत नहीं।
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बाबूजी के बाद
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घर का दरवाज़ा खुलते ही
ठिठकते कदम, रात गहराई
पी भी ली थोड़ी ज़्यदा,
बाबूजी की डाँट
फिर बहू से कहना
''मत देना इसे खाना,
निकाल दे घर से बाहर''
व खुद ही खाँसते-खाँसते
साँकल भी चढ़ा देना।
तिरछी निगाहों से
देख भी जाना, कि
खाकर सोया भी हूँ,
सुबह रूठा-सा चेहरा बनाना
और बड़बड़ाते रहना,
बच्चा-सा बना देता था मुझे।
आज, खाली कुरसी, खाली कमरा,
देखते ही बरस पड़े हैं मेरे नयन।
बड़ा हो गया हूँ मैं,
महसूस कर सकता हूँ
उनकी छटपटाहट जब
आज मेरा नन्हा बेटा
काग़ज़ को मरोड़
सिगरेट का कश भरता है
और कोकाकोला गिलास में भरकर
चियर्स कहता है तोतले शब्दों में।


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The End
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गुरुवार, 10 सितंबर 2009

राजेश जोशी की कविताओं का जादू

प्रस्तुति :- प्रकाश गोविन्द


राजेश जोशी


परिचय -
जन्म : 18 जुलाई 1946,
जन्म स्थान : नरसिंहगढ़ (मध्य प्रदेश)

कुछ प्रमुख कृतियाँ :
समरगाथा (लम्बी कविता),
एक दिन बोलेंगे पेड़, मिट्टी का चेहरा,
दो पंक्तियों के बीच (कविता संग्रह),
पतलून पहना आदमी , धरती का कल्पतरु !

विविध कविता संग्रह "दो पंक्तियों के बीच" के लिये 2002 का साहित्य अकादमी पुरस्कार।

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शासक होने की इच्छा
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वहाँ एक पेड़ था
उस पर कुछ परिंदे रहते थे
पेड़ उनकी आदत बन चुका था

फिर एक दिन जब परिंदे आसमान नापकर लौटे
तो पेड़ वहाँ नहीं था
फिर एक दिन परिंदों को एक दरवाजा दिखा
परिंदे उस दरवाजे से आने-जाने लगे
फिर एक दिन परिंदों को एक मेज दिखी
परिंदे उस मेज पर बैठकर सुस्ताने लगे

फिर परिंदों को एक दिन एक कुर्सी दिखी
परिंदे कुर्सी पर बैठे
तो उन्हें तरह-तरह के दिवास्वप्न दिखने लगे

और एक दिन उनमें
शासक बनने की इच्छा जगने लगी !

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
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कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?
क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को

क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक

तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल
पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।

माँ कहती है

हम हर रात
पैर धोकर सोते है

करवट होकर।
छाती पर हाथ बाँधकर
चित्त हम कभी नहीं सोते।

सोने से पहले माँ
टुइयाँ के तकिये के नीचे
सरौता रख देती है बिना नागा।

माँ कहती है
डरावने सपने इससे
डर जाते है।

दिन-भर फिरकनी-सी खटती माँ
हमारे सपनों के लिए
कितनी चिन्तित है!

आदिवासी लड़की की इच्छा

लड़की की इच्छा है
छोटी-सी इच्छा
हाट इमलिया जाने की।
सौदा-सूत कुछ नहीं लेना
तनिक-सी इच्छा है-- काजर की
बिन्दिया की।

सौदा-सूत कुछ नहीं लेना
तनिक-सी इच्छा है-- तोड़े की
बिछिया की।
सौदा-सूत कुछ नहीं लेना
तनिक-सी इच्छा है-- सुग्गे की
फुग्गे की।
फुग्गा उड़ने वाला हो
सुग्गा ख़ूब बातूनी हो ।
लड़की की इच्छा है
छोटी-सी।

पेड़ की तरह
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पेड़ की तरह
सोचता हूँ
पेड़ भर
ऊँचा उठकर।

पेड़ भर सोचता हूँ
पेड़ भर
चौड़ा होकर।

इसी से
जंगल नाराज़ है।

गेंद
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एक बच्चा
करीब सात-आठ के लगभग।

अपनी छोटी हथेलियों में
गोल-गोल घुमाता
एक बड़ी गेंद

इधर ही चला आ रहा है
और लो...
उसने गेंद को
हवा में उछाल दिया ! सूरज !
तुम्हारी उम्र
क्या रही होगी उस वक़्त ?

प्रौद्योगिकी की माया
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अचानक ही बिजली गुल हो गयी
और बंद हो गया माइक
ओह उस वक्ता की आवाज का जादू
जो इतनी देर से अपनी गिरफ्त में बांधे हुए था मुझे
कितनी कमजोर और धीमी थी वह आवाज
एकाएक तभी मैंने जाना
उसकी आवाज का शासन खत्म हुआ
तो उधड़ने लगी अब तक उसके बोले गये की परतें

एक कवि कहता है
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नामुमकिन है यह बतलाना कि एक कवि
कविता के भीतर कितना और कितना रहता है

एक कवि है
जिसका चेहरा-मोहरा, ढाल-चाल और बातों का ढब भी
उसकी कविता से इतना ज्यादा मिलता-जुलता सा है
कि लगता है कि जैसे अभी-अभी दरवाजा खोल कर
अपनी कविता से बाहर निकला है

एक कवि जो अक्सर मुझसे कहता है
कि सोते समय उसके पांव अक्सर चादर
और मुहावरों से बाहर निकल आते हैं
सुबह-सुबह जब पांव पर मच्छरों के काटने की शिकायत करता है
दिक्कत यह है कि पांव अगर चादर में सिकोड़ कर सोये
तो उसकी पगथलियां गरम हो जाती हैं
उसे हमेशा डर लगा रहता है कि सपने में एकाएक
अगर उसे कहीं जाना पड़ा
तो हड़बड़ी में वह चादर में उलझ कर गिर जायेगा

मुहावरे इसी तरह क्षमताओं का पूरा प्रयोग करने से
आदमी को रोकते हैं
और मच्छरों द्वारा कवियों के काम में पैदा की गयी
अड़चनों के बारे में
अभी तक आलोचना में विचार नहीं किया गया
ले देकर अब कवियों से ही कुछ उम्मीद बची है
कि वे कविता की कई अलक्षित खूबियों
और दिक्कतों के बारे में भी सोचें
जिन पर आलोचना के खांचे के भीतर
सोचना निषिद्ध है
एक कवि जो अक्सर नाराज रहता है
बार-बार यह ही कहता है
बचो, बचो, बचो
ऐसे क्लास रूम के अगल-बगल से भी मत गुजरो
जहां हिंदी का अध्यापक कविता पढ़ा रहा हो
और कविता के बारे में राजेंद्र यादव की बात तो
बिलकुल मत सुनो.



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The End
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शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

मनीषा कुलश्रेष्ठ की यादगार कवितायें

प्रस्तुति :- प्रकाश गोविन्द


मनीषा कुलश्रेष्ठmanishak
परिचय -
जन्म : 26 अगस्त 1967, जोधपुर
शिक्षा : बी एस सी, विशारद ( कथक)
एम. . ( हिन्दी साहित्य) एम. फिल.

प्रकाशित कृतियां -
बौनी होती परछांई ( कहानी संग्रह)
कठपुतलियां ( कहानी संग्रह)
कई विदेशी रचनाओं का हिन्दी अनुवाद

2001 में कथाक्रम द्वारा आयोजित भारतीय युवा कहानीकार प्रतियोगिता में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।

10061
प्रेम बनाम प्रकृति
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प्रेम और लिखना बंद करो अब!
पर क्यों ?
हाँ‚ ठीक ही तो कहते हो।
तीस पार कर अब क्या प्रेम !
तो फिर लिखूं‚
उन सत्यों पर जो
किरकिराते हैं पैर के नीचे ?
या अपने ही लोगों के
दोहरे मापदण्डों पर ?
अपने नाम के आगे
श्रीमती लगाने की बहस पर
या
स्त्रियों के समूह में ही
'च्च बेचारी… दो बेटियों की माँ '
होने की व्यर्थ की बेचारगी झेलने पर‚
किस पर लिखूँ ?
बलात्कारों पर‚
कानून की नाक के नीचे होती
दहेज हत्याओं पर ?
ये सारी कविताएं
लड़की होने की पीड़ाओं
से ही जुड़ती हैं क्या ?
अभी ही तो जागी हूँ‚
मीठी स्वप्निल नींद से
और अब
न नष्ट होती प्रकृति पर
लिखने को शेष है
और प्रेम की भी स्थिति वही है
संवेदनहीन और नष्टप्रायः।
अनकण्डीशनल
===========
कुछ रिश्ते
जो अनाम होते हैं
नहीं की जाती व्याख्या जिनकी
जिन्हें लेकर
नहीं समझी जाती
ज़रूरत किसी विश्लेषण की

इनके होने की शर्तें बेमानी होती हैं
बहुत चाव से इन्हें
' अनकण्डीशनल '
' निःस्वार्थ ' होने की संज्ञा दी जाती है
बस फिर कहां रह जाती है
गुंजाइश किसी अपेक्षा की

बस वे होते हैं‚ होने भर को
पड़े रहते हैं कहीं
अपनी – अपनी प्राथमिकताओं
के अनुसार सबसे पीछे
लगभग भुला दिये जाने को
या वक्त ज़रूरत पड़ने पर
उन्हें तोड़ – मरोड़ कर
इस्तेमाल कर लिये जाने को

सखा‚ बन्धु‚ अराध्य‚ प्रणयी …
और भी बहुत तरह से
इतना कुछ होकर भी
इन रिश्तों में
कुछ भी स्थायी नहीं होता

हालांकि इन रिश्तों से
होती है रुसवाई
खिसका देते हैं ये रिश्ते
पैरों के नीचे की ज़मीन
बहुत भुरभुरे होती हैं इनकी दीवारें

कभी भूल से भी इनसे
टिक कर खड़े न हो जाना !
सच कहना …
================
क्या क्या विस्मृत किये बैठे हो तुम
भूल गये पलाश के फाल्गुनी रंग
चटख धूप में मुस्कुराते अमलताश
और टूटी चौखट वाली खिड़की पर
चढ़ी वो चमेली और उसकी मादक गंध ?
पकते सुनहले गेहूं के खेत
वह सिके भुट्टों की भूख जगाती सौंधी खुश्बू ?
मुझसे तो कुछ भी नहीं भूला गया
न वो किले की टूटी दीवार पर
साथ बैठ गन्ने खाना
कैसे भूल जाती वो होली के रंग
साथ साथ बढ़ती बेल सी
हमारी कच्ची दूधिया उमर
और आर्थिक अभावों की कठोर सतहें
बड़ी संजीदगी से पढ़ते थे तुम
मैं वही आंगन में तुम्हारी बहनों के साथ
रस्सा टापती‚ झूला झूलती
भरसक ध्यान खींचती थी तुम्हारा खिलखिला कर
अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाती तुम्हें
तुम पर धुन सवार थी
अभाव काट बड़ा बनने की
क्यों
जानकर अनजान रहे मेरे प्रेम से ?
मैं क्यों रातों तुम्हें
अपनी सांसों में पाती थी
विधना ने तो रचा ही था
बिछोह हमारे मस्तकों पर‚
तुमने भी वही दिन चुना परदेस जाने का
जिस दिन मेरे हाथों में
पराई मेंहदी रची थी सगाई की
मैं आज तक न जान सकी
कि तुम्हारे बड़ा बनने में
मेरा क्या कुछ टूट कर बिखर गया
जिसे आज भी सालों बाद
भरी पूरी गृहस्थी का सुख न जोड़ सका
सच कहना याद आती है न …
मेरी नहीं उन पकते खेतों की…

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The End
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शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

दो उत्कृष्ट कवितायें

प्रस्तुति :- प्रकाश गोविन्द



एक दिन औरत का दिन होगा
--- जया जादवानी
एक दिन औरत का दिन होगा
एक दिन वह खिलाएगी
दूध से सनी रोटियां
दुनिया के सारे बच्चों को
एक दिन होंगी उसकी छातियां


प्रेम की नदी से भरपूर
वह चलना सिखायेगी
दुनिया की सारी सभ्यताओं को
वह हंसेगी कि
उसकी हंसी में होगी सिर्फ हंसी
और कुछ नहीं होगा
गीत फूटेंगे होंठों से
लोरियां बनकर
वह स्थगित कर देगी
सारे युद्धसारे धर्म
वह एतबार का पाठ पढ़ाएगी

एक दिन औरत का दिन होगा
जब हम जान नहीं पाएंगे उसका सुख
क्योंकि हम कभी जान नहीं पाए
दुःख उसका




उठूं
--- आशुतोष दूबे
उठूं
खींच दूं ट्रेन की ज़ंजीर
चिल्लाऊं ज़ोर से
रोको – रोको
ज़रा देख लेने दो नज़र भर
ये बहती हुई नदी कल – कल
तनिक ठहर जाओ पुल पर


उठूं
डपट दूं भरी मीटिंग में
कड़क कर आला हाकिम को
कि अब चुप हो जायें आप श्रीमान
बस‚ बहुत सुन ली आपकी आत्ममुग्ध बकवास

उठूं
अर्ज करुं शिखरवार्ता करते राष्ट्रनायकों से
अब ये तमाशा बन्द भी करो
और लो‚ दस्तख़त करो इस सयुंक्त घोषणापत्र पर
कि अपने अपने वतन के लोगों को
हम बरगलाना बन्द करेंगे
फौरन से पेश्तर

उठूं
निवेदन करुं हिन्दी के कवियों – आलोचकों से
दिमाग़ पर इतना बोझा क्यों लेते हैं आप
ज़रा अपनी मनहूसियत कम कर लें
कोशिश तो करिये!

उठूं
कहूं कविता से ढूंढ कर लाने के लिये एक शब्द
जिसमें आम के अचार की गन्ध हो
जिसके उच्चार भर से
खुल जायें
बरसों बन्द पड़े द्वार
घोर वन में या नदी में
जिसका हाथ थामे
हम हो जायें पार !