मुसाफ़िर =========== ममता, फ़र्ज़ और समय के द्वंद्व में किस तरह मैंने अपनी कश्ती खींची। कई बार ममता के थपेड़ों को पीछे हटा फ़र्ज़ निभाया, समय का पहिया घूमता रहा अपना धुरी पर कई कष्ट झेले हैं मेरी अंदर की औरत ने, मेरी माँ रोई है कई बार, मेरी औरत तड़पती है अँधेरी रातों में, परंतु समय के पतवार अपने चप्पू चलाते रहे, कश्ती लिए किनारे तक आ ही गई, उतर गए मुसाफ़िर, चल दिए मंज़िलों की तरफ़, कह कर कि कश्ती का सफ़र भी कोई सफ़र था। | इल्ज़ाम =========== मैं चल रही हूँ या वक्त खड़ा है दोनों ही सवाल सही हैं शायद बलवान है वक्त, जो मेरी ज़िंदगी के हिंडोले को कभी हल्का-सा हिलाता तो कभी झिंझोड़ जाता। महसूस करती वक्त के थपेड़ों को मैं कभी हँसकर तो कभी रो कर इल्ज़ाम देती कि वक्त ख़राब है शायद इसलिए कि अपने सिर इल्ज़ाम लेना इंसान की फ़ितरत नहीं। =========== |
बाबूजी के बाद ================== घर का दरवाज़ा खुलते ही ठिठकते कदम, रात गहराई पी भी ली थोड़ी ज़्यदा, बाबूजी की डाँट फिर बहू से कहना ''मत देना इसे खाना, निकाल दे घर से बाहर'' व खुद ही खाँसते-खाँसते साँकल भी चढ़ा देना। तिरछी निगाहों से देख भी जाना, कि खाकर सोया भी हूँ, सुबह रूठा-सा चेहरा बनाना और बड़बड़ाते रहना, बच्चा-सा बना देता था मुझे। आज, खाली कुरसी, खाली कमरा, देखते ही बरस पड़े हैं मेरे नयन। बड़ा हो गया हूँ मैं, महसूस कर सकता हूँ उनकी छटपटाहट जब आज मेरा नन्हा बेटा काग़ज़ को मरोड़ सिगरेट का कश भरता है और कोकाकोला गिलास में भरकर चियर्स कहता है तोतले शब्दों में। |
The End
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