गुरुवार, 7 नवंबर 2013

साहित्यिक कृतियों पर आधारित हिंदी फ़िल्में

Films Based on Indian Novels & Literature
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मारे अधिकाँश फिल्मकारों का यह मानना रहा है कि चूँकि सिनेमा का मूल उद्देश्य जनता का मनोरंजन करना है अतैव साहित्यिक कृतियों के जरिये दर्शकों की अपेक्षाओं को पूरा करना कठिन हो जाता है ! इसके बावजूद भी अनेक प्रबुद्ध और सजग फिल्मकारों ने समय-समय पर नामी लेखकों की साहित्यिक कृतियों व रचनाओं को आधार बनाकर सफल फिल्मों का निर्माण किया !

यहाँ हम हिंदी सिनेमा की ऐसी फिल्मों की सूची दे रहे हैं जो साहित्यिक कृतियों पर आधारित हैं :

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'देवदास' - मूलरूप से बांग्ला में लिखित शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास  को आधार बनाकर हिंदी में प्रमथेश बरुआ (1936), विमल राय (1955) और बाद में संजय लीला भंसाली (2002) द्वारा फ़िल्म का निर्माण हुआ !
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'परिणीता' - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा 1914 में रचित चर्चित बांग्ला उपन्यास पर इसी नाम से 1942 में पशुपति चटर्जी ने, 1953 में बिमल राय ने, 1969 में अजॉय कार ने और 2005 में प्रदीप सरकार ने फ़िल्म का निर्देशन किया !
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'ज़िद्दी' (1948) - इस्मत चुगतई की कहानी पर केंद्रित फ़िल्म का निर्देशन शाहिद लतीफ़ ने किया !
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'बिराज बहू' (1954) - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की कृति पर आधारित फ़िल्म का निर्माण हितेन चौधरी ने और निर्देशन बिमल राय ने किया !
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'सुजाता' (1959) - सुबोध घोष की बांग्ला कहानी पर आधारित फ़िल्म का निर्देशन बिमल राय ने किया !
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'धर्मपुत्र' (1961) - आचार्य चतुरसेन के उपन्यास को आधार बनाकर यश चोपड़ा ने इसी नाम से फ़िल्म बनायी
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'साहब बीबी और गुलाम' (1962) - बांग्ला उपन्यासकार विमल मित्र के उपन्यास पर इसी नाम से गुरुदत्त ने फ़िल्म बनायी, जिसको अबरार अल्वी ने निर्देशित किया !
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'गोदान' (1963) - उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की अमर कृति पर आधारित फ़िल्म का निर्देशन त्रिलोक जेटली ने किया !
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बंदिनी (1963) - चारुचंद्र चक्रबर्ती 'जरासंध' के बांग्ला उपन्यास 'तामसी' पर केंद्रित फ़िल्म का निर्माण बिमल राय ने किया !
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'काबुलीवाला' (1965) - रबींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित कहानी पर केंद्रित फ़िल्म का निर्माण बिमल राय ने और निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया !
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'गाइड' (1965) - मूलरूप से अंग्रेजी में लिखे गए आर.के.नारायण के उपन्यास 'दि गाइड' पर देव आनंद ने हिंदी में फ़िल्म का निर्माण किया, जिसे विजय आनंद ने निर्देशित किया ! 
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'गबन' (1966) - मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर केंद्रित फ़िल्म का निर्माण ऋषिकेश मुखर्जी ने किया !
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'तीसरी कसम' (1966) - उपन्यासकार-कहानीकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' की चर्चित कहानी 'तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम' को आधार बनाकर बासु भट्टाचार्य ने  फ़िल्म बनायी !
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'सरस्वतीचन्द्र (1968) - गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी के गुजराती उपन्यास पर उसी नाम से फ़िल्म का निर्माण गोविन्द सरैया ने किया !
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'भुवन सोम' (1969) - बलाई चन्द्र मुखोपाध्याय द्वारा रचित बाँग्ला कहानी पर आधारित फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन मृणाल सेन ने किया ! 
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'सारा आकाश' (1969) - हाल में ही दिवंदत कथाकार 'राजेन्द्र यादव' के उपन्यास 'प्रेत बोलते हैं' को आधार बनाकर निर्देशक बासु चटर्जी ने फ़िल्म बनायी !
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'सफ़र' (1970) - आशुतोष मुखर्जी के बांग्ला उपन्यास पर आधारित फ़िल्म का निर्माण असित सेन ने किया ! 
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'छोटी बहू' (1971) - निर्देशक के.बी.तिलक ने शरतचन्द्र चटर्जी के बांग्ला उपन्यास 'बिन्दुर छेले' पर केंद्रित फ़िल्म बनायी !
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'रजनीगंधा' (1974) - निर्माता-निर्देशक बासु चटर्जी ने कथा लेखिका मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच है' को आधार बनाकर फ़िल्म बनायी !
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'मौसम' (1975) - साहित्यकार 'कमलेश्वर' की लम्बी कहानी 'आगामी अतीत' पर निर्देशक 'गुलज़ार' ने फ़िल्म का निर्माण किया !
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'आंधी' (1975) - 'कमलेश्वर' के ही एक अन्य उपन्यास 'काली आंधी' को केंद्र में रखकर गुलज़ार ने फ़िल्म बनायी !
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'बालिका बधू' (1976) - तरुण मजूमदार के निर्देशन में बनी ये फ़िल्म 'बिमल कार' के बांग्ला उपन्यास पर आधारित थी !
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'शतरंज के खिलाड़ी' (1977) - प्रेमचंद की कहानी पर सत्यजीत रे ने इसी नाम से फ़िल्म बनायी !
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'भूमिका' (1977) - मराठी रंगमंच-सिनेमा की अभिनेत्री हंसा वाडकर द्वारा लिखे संस्मरण - 'सांगते एका' पर आधारित फ़िल्म का निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया !
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'जूनून' (1978) - रुस्किन बॉन्ड के नावेल 'ए फलाईट आफ पिजन्स' पर आधारित फ़िल्म का निर्माण शशि कपूर ने और श्याम बेनेगल ने निर्देशित किया !
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'अपने पराये' (1980) - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित बांग्ला उपन्यास 'निष्कृति' पर आधारित फ़िल्म  का निर्देशन बासु चटर्जी ने किया ! 
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'सदगति' (1981) - प्रेमचंद की कहानी के आधार पर छोटे परदे के लिए सत्यजीत रे ने फ़िल्म का निर्माण किया
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'उत्सव' (1984) - संस्कृत नाट्य कथा 'मृच्छकटिकम्' पर आधारित इस फ़िल्म का निर्माण शशि कपूर और निर्देशन गिरीश कर्नाड ने किया !
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'इज़ाज़त' (1987) - सुबोध घोष द्वारा रचित कहानी 'जोतुगृह' पर आधारित फ़िल्म को गुलज़ार ने निर्देशित किया !
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'सूरज का सातवां घोडा' (1992) - 'धर्मवीर भारती' के उपन्यास पर निर्देशक श्याम बेनेगल ने उसी नाम से फ़िल्म बनायी !
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'ट्रेन टू पाकिस्तान' (1998) - मूलरूप से अंग्रेजी में लिखे खुशवंत सिंह के उपन्यास पर निर्देशक पामेला रुक्स ने फ़िल्म बनायी !
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'अग्निवर्षा' (2002) - गिरीश कर्नाड के अंग्रेजी में लिखे नाटक 'रेन एंड फायर' को आधार बनाकर निर्देशक अर्जुन सजनानी ने फ़िल्म का निर्माण किया !
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'ब्लैक फ्राईडे (2004) - एस.हुसैन जैदी के लिखे उपन्यास - 'ब्लैक फ्राईडे - द ट्रू स्टोरी आफ द बॉम्बे ब्लास्ट्स' पर केंद्रित फ़िल्म का निर्देशन अनुराग कश्यप ने किया !
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'थ्री इडियट्स' (2009) - निर्देशक राजकुमार हिरानी ने चर्चित लेखक चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव प्वाइंट समवन' पर आधारित फ़िल्म का निर्माण किया ! 
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'काय पो छे' (2013) - चेतन भगत के एक अन्य उपन्यास 'दि थ्री मिस्टेक्स आफ माई लाईफ' पर आधारित हाल ही में रिलीज फ़िल्म को अभिषेक कपूर ने निर्देशित किया !
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चूँकि फ़िल्म एक ऐसा माध्यम है जो जन-जन से जुड़ा है, इसलिए फिल्मकारों साहित्यिक कृतियों को फिल्माने में थोड़ी-बहुत छूट भी ली है ! कई बार लेखकों ने अपनी कृति के साथ खिलवाड़ करने के आरोप भी लगाए हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि फ़िल्म के माध्यम से साहित्यिक रचनाओं को बड़े पैमाने पर पहचान भी मिलती है !
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The End 
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मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

फ़िल्म- शाहिद (2013) : सच्ची बात कही थी मैने, सूली चढ़ा दिया

 [बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 5]
Film - SHAHID (2013)   
समीक्षक - रोहित यादव जी
 कुछ तो मुझसे सीखों यारों, 
सच्ची बात कही थी मैने, लोगों ने सूली पर चढ़ा दिया

सत्यमेव जयते” बात आमिर खान के टी.वी. शो की नहीं, बल्कि बात उस राष्ट्रीय सिध्दांत की जिसे हम दीवालों पर, भारत सरकार के हर राजपत्र पर और हमारे बटुये में रखे हुये नोट के एक कोने में लिखा हुआ पाते है। आज़ाद भारत के हुक्मरानों ने बहुत सोच समझ कर जब इस संस्कृत की इस सूक्ति को मुंडक उपनिषद से निकाल कर भारत का राष्ट्रीय सिध्दांत बनाने का विचार बनाया होगा, तब उन्होनें ये बिल्कुल नही सोचा होगा कि उनकी आने वाली पीढ़ियाँ आगे चलकर एक ऐसे देशकाल में जीने के लिये अभिशप्त होंगी जहाँ “सत्य” की तो विजय होगी पर सबसे पहले उस अधनंगे फकीर की हत्या की जायेगी, जिसने पूरी ज़िंदगी सत्य और अहिंसा की साधना की। इसी देश में “सत्य” की मशाल थामने वाले हाथों को काटा जायेगा। “सत्य” और न्याय की लड़ाई करने वालों के साथ बलात्कार किये जायेंगे। वैज्ञानिक जागरूकता पैदा करने वालों दाभोलकरों की हत्या की जायेगी, और गरीब मुस्लिम जनता के लिये न्याय की माँग करने वाले “शाहिद आज़मी” को पहले फोन पर धमकाते हुये जेहादियों का गाँधी कहा जायेगा और फिर उन्हें भी तीन गोलियों से छलनी कर दिया जायेगा।

म सभी को बतलाया जाता है कि आतंकवादी वो मुस्लिम युवा होते है जिनका तथाकथित “ब्रेनवाश” किया जाता है। पर क्या हमारा ब्रेनवाश नही किया जाता कि जब चीख चीख कर मीडिया कह रहा होता है कि फलाना विस्फोट के मामले में इतने मुस्लिम युवा गिरफ्तार। ... पर मीडिया ये बताना भूल जाता है कि उन मुस्लिमों की आर्थिक पृष्ठभूमि क्या है ... और यही सवाल फिल्म अपने कोर्ट रूम में जज़ से पूछती है कि क्यों पुलिस की जाँच में अधिकतर अभियुक्त वो होते है जो गरीब होते है ... और यकायक उनके खिलाफ पुलिस सबूतों और गवाहों की एक झड़ी लगा देती है .... फिर जज़ साहब अपना फैसला सुना देते है ... फिर मीडिया चिल्ला चिल्ला कर आप के ड्रांईग रूम तक ये बात पहुँचा देता है कि ज़नाब सज़ा हो गई है ... और देश में कानून व्यवस्था का राज़ चल रहा है ... पर इस बीच में वो नीचे न्यूज़ रील में एक छोटी सी लाईन चला देता है कि टाडा के तहत सज़ा पाये हुये संजय दत्त नामक एक शख्स की पैरोल की अवधी को 14 दिनों के लिये और बढ़ा दिया गया है ... और गृह-मंत्रालय और महाराष्ट्र सरकार इसे और बढ़ाने के लिये वार्ता कर रहा है। हम तक इन दो खबरों के बीच की आर्थिक गहराई नही आती और हम उस वक़्त फेसबुक पर स्टेटस अपडेट कर रहे होते है “हुर्रे हम जीत गये, टेररिज्म डाऊन डाऊन”। इस पूरे प्रकरण में बरबस “अंधेर नगरी” नाटक याद आता है कि अगर कुछ हुआ है तो किसी को तो सज़ा मिलनी ही चाहिये। भले ही वो असली गुनाहगार हो या ना हो।

“शाहिद” अपने शुरूवाती दो मिनटों में पहले शाहिद आज़मी की ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बताती है और फिर दो गोलियों की आवाजें, जो आपकेकान के पर्दे को भेदती हुई आपके दिल के उस कोने तक जाती है। जहाँ एक सहमा हुआ सा एहसास रहता है कि अगर आप सच्चे है और ईमानदार है तो आप इस देश में सुरक्षित है?? फिल्म शुरू होती है 1993 के दंगों से जब जिजिविषा इतनी स्वार्थी हो जाती है कि दंगे मे बाहर फंसे हुये अपने बेटे के लिये भी माँ दरवाजा नही खोल रही होती। फिर वही लड़का अपने भटके हुये मन से आतंकवादी शिविर में प्रशिक्षण के लिये जा पहुँचता है, जहाँ जा कर उसे समझ आता है कि गलत मोड़ पर ज़िंदगी आ चुकी है। वह वहाँ से भी भागता है गोया अपने जीवन के लिये भाग रहा होता है। पर इस सफर का अंत यहाँ नही होता जिस सिस्टम से वो जेहाद करना चाहता था वही सिस्टम उसे पाँच साल के लिये तिहाड़ में भेज देता है। बस फिल्म का ये जो तिहाड़ जेल वाला दौर होता है वही आपको मज़बूर करता ये विश्वास करने के लिये कि आपके देश में संविधान के कुछ “शब्द” किताबों के इतर भी अपना एक वजूद रखते है।

जेल के बाहर आते ही शाहिद समझ जाते है कि अन्याय दिखा कर ख़ुदा ने उसे न्याय का महत्व दिखा दिया। यही से एक दूसरा संघर्ष शुरु होता है, जिसमें शाहिद अपने मकसद के लिये अपना सब कुछ दाँव पर लगा देते है। इतनी मुसीबतों के बीच भी शाहिद भी एक आम इंसान ही थे। ये आपको तब समझ आता है जब वो एक तलाक़शुदा महिला से प्यार करते हुये अपना आम जीवन बिताना चाहते थे। यही तलाक़शुदा महिला जो शुरु में कहती है कि आप सही काम के लिये डरिये मत वही महिला शादी के बाद इसी बात के लिये शाहिद को डाँटती है और कहती है कि "पहले जब पहले कहा था तब मैं तुम्हारी पत्नी नही थी"। यह इतनी मार्मिक चोट है जिससे शायद हर “शाहिद” गुज़रता होगा जो ये भी बताता है कि हमारे सिध्दांत, हमारे आदर्श और हमारी प्रगतिशीलता सब कि सब एक फोल्डिंग पलंग की तरह हो चुके है। जिसे हम जब चाहे तब बिछा कर अपने गुणों का थोथा बखान करते है और जब चाहे तब उन्हें समेट कर दिवाल के के कोने से लगा कर रख देते है कि “भाईसाहब बी प्रैक्टिकल”।.

स अति भावुक हिस्से में भी कैमरा पति-पत्नि की लड़ाई के बीच से थोड़ा हटकर उस बच्चे पर भी चला जाता है, जिसे पिछले छ: दिनों से बुख़ार है। जिसकी बेचैन निगाहें कुछ समझ ही नही पा रही है कि क्यों उसके पिता को इस बात की ख़बर तक नही हो पायी है। अब उस मासूम को कौन समझाये कि उसके पिता समाज के कैंसर से लड़ रहे है और उसकी कीमत कहीं ना कहीं उसका अबोध बचपन चुका रहा होता है।

कुछ और भी ऐसे दृश्य है जो ये बताते है कि सत्य और न्याय की लड़ाई के पीछे कौन-कौन खड़े होते है ... क्या वो तिहाड़ जेल का वार्डन, जिसने शाहिद को पढ़ने की अनुमति दी ... क्या वो कश्मीर का व्यापारी जिसने शाहिद को “उधार” पैसे दिये, ... क्या वो प्रोफेसर जिसने शाहिद की ऐतिहासिक, सामाजिक और व्यवहारिक सोच को मजबूत किया, ... क्या वो भाई जिस पर “दो पर्सनल लोन” पहले से ही है पर फिर भी वो अपने छोटे भाई के लिये एक और लोन लेने के लिये तैयार है, ... और अंत में वो पत्नी जो रात का खाना बना कर अपने पति का इंतजार कर रही होती है और पति जब आता है तो उससे बिना पूछे खाना शुरु कर देता है। क्या ये सब भी शाहिद की लड़ाई के साथी नही थे। जब आप शाहिद को एकाकी में अपनी पत्नी से अपनी बेबसी का बयान करते हुये, फोन पर ही ज़ार-ज़ार रोते हुये देखते है तो क्या आपकी आँखें नम नही होती ?? दिमाग को कुछ झंझोड़ता नही कि क्या गलती थी इस इंसान की ?? 

ही न कि वो सिर्फ न्याय चाहता था, यही ना कि वो सिर्फ ये चाहता था कि अंध-देशभक्ति की नींव में किसी बेकुसूर “फ़हीम अंसारी” की ज़िंदगी का पत्थर ना गाड़ा जाये। और यही न कि कोई निर्दोष मुस्लिम अभियुक्त अपने नवजात बेटे को अपनी गोद में उठा कर उससे कह सके कि बेटा मैं निर्दोष था मुझे फंसाया गया था। ऐसी गलती करने वाले “शाहिदों” की विश्व में दूसरी सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था में कोई जगह नही है, उन्हें मरना ही होगा।

फिल्म के सभी कलाकारों का चयन मुकेश छाबड़ा ने किसी गोताखोर की तरह किया है। समुद्र में गहरे उतर कर चुन-चुन कर वो मोती खोज़े है जो फिल्म की माला में सौ फीसदी टंच (बकौल दिग्विजय सौ प्रतिशत खरा सोना) लगते है। चाहे राजकुमार यादव हो, ज़ीशान अय्यूब हो, प्रभालीन संधू हो, शालिनी वत्स हो, तिग्मांशू धूलिया हो या खुद हंसल मेहता। हर पात्र के लिये एक दम सही चुनाव है। हर कलाकार ने कोई कसर नही छोड़ी इस सिनेमाई महाकाव्य को भव्य बनाने के लिये। अब कितने दृश्यों के बारे में लिखूं सभी तो एक से बढ़ कर एक है।      

फिल्म के लेखक समीर गौतम सिंह, हंसल मेहता और अपूर्व असरानी पूरी कहानी में किसी भी बड़ी बात के लिये इतने सधे और चुने हुये शब्दों का चयन करते है कि आप अचरज में पढ़ जाते है। एक ऐसी फिल्म जिसमें अधिकतर चरित्र मुस्लिम है पर उर्दू के लफ़्ज़ किसी की भी ज़बान पर चढ़े हुये नही होते। सभी आम चरित्रों की तरह बातें करते है।

छायाकार अनुज धवन ने डी.एस.एल.आर. छायांकन का महत्व समझा दिया है। फिल्म के क्रेडिट के अंत में “canon EOS” लिख कर आना एक नई सिनेमा क्रांति की ज़ोरदार दस्तक है। जो ये कह रही है कि अगर आप के पास कोई बढ़िया कहानी है, और आप उस पर फिल्म बनाना चाहते है तो बस स्क्रिप्ट लिखिये, अपना डी.एस.एल.आर. कैमरा उठाईये और एक फिल्म बना डालिये। बाकी आगे का काम तकनीक साध लेगी।

संपादक अपूर्व असरानी जिन्होंने 1998 में ही “सत्या” का संपादन कर पहली ही फिल्म में बेस्ट एडिटर का फिल्म फेयर अवार्ड जीता था। उनका कहानी कहने का तरीका आज भी उनकी पहली फिल्म की ही तरह ताज़ा-तरीन है। लंबे समय बाद आपका काम बड़े पर्दे पर देखा बहुत अच्छा लगा और आपको निर्देशक की कुर्सी से ज्यादा वक़्त संपादन की डेस्क पर बिताना चाहिये। हम सभी को बहुत अच्छा लगेगा और शायद कहीं ना कहीं आपको भी।

फिल्म के निर्देशक हंसल मेहता जी के बारे में जितना कहा जाये उतना ही कम है बकौल अपूर्व शुक्ल आपने शायद “खाना खज़ाना” का निर्देशन करते वक़्त ही ये समझ लिया था कि सिनेमाई मसालों का सही मिश्रण कैसे तैयार किया जाता है। आपको सिर्फ और सिर्फ सलाम। बहुत बहुत बधाई। आशा है कि आपकी अगली फिल्म भी हम सब को फिल्म देखने के बाद सिनेमा हॉल की कुर्सी पर बैठ कर अपनी नम आँखों को पोंछने के लिये रूमाल निकालने के लिये मज़बूर कर देगी और उससे भी ज्यादा चोट करेगी हमारी जड़ता पर।
         
फिल्म के बारे में कहीं पढ़ा था कि ये फिल्म एक करोड़ से भी कम बजट में बनाई गई है। बोहरा ब्रदर्स, अनुराग कश्यप और डिज्नी यूटीवी को बहुत बहुत धन्यवाद कि उन्होनें ऐसी फिल्म को बड़े पैमाने पर वितरित किया। बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में इस बात का रोना रोने वालों को अब चुप हो जाना चाहिये कि भारत में अच्छी फिल्में कोई नहीं देखता। हमें फक्र होना चाहिये कि अब हिन्दी सिनेमा के कुछ फिल्मकार सिनेमाई किशोरावस्था से विकसित हो कर वयस्कता की ओर कदम बढ़ा रहे है। हम उस तथाकथित बाज़ारवाद में है जहाँ ऐसी संवेदनशील फिल्मों का बनना और रिलीज होना आम बात हो चुकी है। (ये बात प्रकाश झा जी के लिये नही है)  
        
तो जाईये ये फिल्म देखिये ताकि “शाहिद” की पूरी टीम को हौंसला मिले                       
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The End
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समीक्षक : रोहित यादव जी 
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शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

फ़िल्म- दि लंच बॉक्स (2013) : तलाश एक टुकड़ा ज़िंदगी का

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 4]
Film - The Lunch Box (2013) 
समीक्षक - रोहित यादव जी 
तलाश एक टुकड़ा ज़िंदगी का   

“हम बहुत सी चीजें भूल जाते है क्योंकि हमारे आस पास कोई होता नही जिससे हम उनके बारे में बात  कर सके।” रितेश बत्रा के लिखे इस संवाद को सुनने के बाद भी अगर फिल्म के बारे मे नही लिखता तो मेरा फिल्मों के बारे मे पढ़ना, लिखना और सुनना सब बेकार है चारों तरफ रोना मचा हुआ है कि “दि लंचबॉक्स” को ऑस्कर में ना भेज कर भारत इतनी बड़ी गलती कर दी है, कि आने वाला इतिहास कभी माफ नही करेगा. दरअसल पश्चिम जब तक हमारी फिल्मों को सम्मान नही देगा, हमें पता ही नही चलेगा कि अरे !!!! लंचबॉक्स तो इतनी अच्छी फिल्म थी आस्कर के प्रति हमारी हवस आप इस बात से भी समझ सकते है कि ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ जो आधिकारिक तौर पर ब्रिटेन के फिल्ममेकर की फिल्म थी उसे आस्कर मिलने पर भारत मे होली तकरीबन एक महीना पहले मना ली गई थी हमारे हर मानकों का मापदंड वैसे भी आजकल पश्चिम ही परिभाषित कर रहा है


हरहाल फिल्म से पहले एक कहानी सुनिये- अमेरिका में एक अप्रवासी भारतीय अपनी रोजमर्रा की कॉर्पोरेट वाली नौकरी से आजिज आ गया है, वो नौकरी छोड़ कर एक फिल्म स्कूल में प्रवेश लेता है और उसी मे पढ़ाई के दौरान उसकी एक पटकथा पर रॉबर्ट रेडफोर्ड की नजर पड़ती हैउस अप्रवासी भारतीय को मौका मिल जाता है फिल्म क्षेत्र मे रह कर अपनी कला को निखारने का मौका मिल जाता है. वो फिल्म स्कूल छोड़ देता है और वो कुछ 10-12 लघु फिल्मों का निर्माण करता है, जिन्हें कुछ अच्छे फिल्म उत्सवों पर पहचान मिलती चली जाती है. फिर वो 2007 में मुम्बई आता है मुम्बई के “डिब्बावालों” पर एक वृत्तचित्र का निर्माण करने के लिये, वो डिब्बों वालों के साथ पूरा एक हफ्ता बिताते है और उन्हे कुछ किस्से पता चलते है कि कैसे इन डब्बेवालों को हर घर के कुछ ना कुछ राज़ पता है गोयाकि हर लंचबॉक्स कुछ कहता है कैसे एक घर में सिर्फ सास की चलती है, एक पत्नी रोज खाने के डिब्बे में अपने पति के लिये एक चिठ्ठी भेजती है कैसे एक पत्नी रोज एक ही तरह का खाना भेजती है इन सबको सुनने के बाद उस अमेरिकी भारतीय को लगा की अरे यहाँ तो एक पूरी की पूरी गाथा इंतज़ार कर रही है अपने सुनाये जाने का, और इसके बाद से तक़रीबन साढ़े चार साल तक मेहनत से एक पटकथा लिखी गई और हमारे सामने “दि लंचबॉक्स” और वो अमेरिकी भारतीय रितेश बत्रा आये जिन पर आज सभी को नाज़ हो रहा है

जिडिब्बेवालों का मजाक मुम्बईया फिल्मकारों ने जाने अनजाने उड़ाया जरूर होगा, उन्ही डिब्बे वालों ने ऐसी फिल्म का आईडिया दे दिया कि जिसे ऑस्कर पर ना भेजे जाने पर पूरा देश (मीडिया) छाती कूट कर रो रहा है कितनी अजीब बात है कि हमारे हिन्दी फिल्मकार ए.सी. कमरों में बंद हो कर ज़मीनी यथार्थ से दूर होते हुये अपनी फिल्मों मे तथाकथित हॉलीवुड के स्तर के विजुअल इफेक्टस ला रहे है, पर भावनात्मक इफेक्टस से कोसों दूर होते जा रहे है वही काम जब कोई दूसरा हॉलीवुड से आकर कर रहा है तो आप तालियाँ बजाते नही थक रहे है कहीं ऐसा तो नही की ए.सी. ने हमारे फिल्मकारों की खिड़कियाँ बंद करवा कर उन्हें एक भ्रम में रखा हुआ है ये फिल्म, फिल्म उत्सवों मे तो सराही ही गयी है और इसे विदेशों में भी व्यवसायिक सफलता मिली है कांस फिल्म उत्सव में ही सोनी पिक्चर्स क्लासिक ने उत्तरी अमेरिका के लिये, इस फिल्म के वितरण अधिकार खरीदे है

हरहाल जब आप इस बात से दुखी हो रहे होते है कि अब शुद्ध देसी रोमांस में भी प्रेमी प्रेमिका पहली ही मुलाकात में “किस” करते हुये, अगले हफ्ते में बिस्तर से होते हुये,  कुछ ही महीनों में एक दूसरे से भागने की कोशिश करते हुये दिखाई दे रहे है, तो क्या होगा उन चरित्रों का जो कैसेट लगा कर 'साजन' फिल्म के गाने सुनते है, क्योंकि उसके अनदेखे प्रेमी का नाम साजन है जहाँ शार्ट वेव में भूटानी रेडियो चैनल लगा कर भूटानी गाना इसलिये सुना जाता है क्योंकि आपकी संभावित प्रेमिका को भूटान बहुत पसंद है जहाँ आज भी लोग ओरियेंट पंखे की मिसाल देने की बातें करते है जहाँ ‘ये जो है ज़िंदगी’ देख कर जीवन और रिश्तों की गहराई समझने की कोशिश की जाती है जहाँ आज भी अपनी बेटी के पति से 5000 रूपये की मदद लेना बहुत बड़ी बात है, पर आपको मजबूरी में लेने ही पड़ते है,. और ऐसे में आप खुद को इन सब के बीच पाते है और समझ ही नही पाते कि कैसे ये लोग आपको ये समझा रहे है कि आज कोमा मे पड़े हुये इंसान और चौबीसों घंटे काम काम की रट लगाने वालों के बीच अब कोई फर्क़ नही रह गया है
 
पने वो एवरेस्ट मसाले वाला एड देखा है ना जिसमें एक पत्नी इस बात से परेशान है कि उसके पति रोज बाहर से खाना खा कर आ जाते है, दि लंच बॉक्स इस पत्नी की परेशानी को सतही तौर से भीतर उतर  दिखाती है कि ऐसा हो क्यों रहा है, और फिल्म में इस महिला के दूसरे छोर पर एक ऐसा अधेड़ इंसान खड़ा है जो ग़म और खुशी मे फर्क़ महसूस नही करता और रोज उस भोजनालय में खाना खाता है जिन पर बड़े अक्षरों से लिखा होता है घर से बाहर घर की थाली ये दोनों अपने अपने जीवन मे ज़िंदगी की तलाश कर रहे होते है, और एक दिन मुंबई के डिब्बावालों से बिल्कुल ना होने वाली गलती इन दोनो को मिला देती है

क लंचबॉक्स, जो इला (निम्रत कौर) ने अपने पति के लिये भेजा था पर गलती से इस अधेड़ साजन फर्नांडिस (इरफ़ान ख़ान) के ऑफिस डेस्क पर पहुँच गया है दोनो ने कभी एक दूसरे को देखा तक नही है, पर फिर भी बातें एक माफीनुमा ख़त के साथ शुरू हो जाती है, (ख़त जिन्हें हम भुला चुके है, और बकौल शेख (नवाजुद्दीन सिद्दकी) अब तो सब ईमेल करते है ये तो कोई नही करता, और कहीं ना कहीं हम इंतज़ार कर रहे है कि कब सरकार इस बात की आधिकारिक घोषणा करेगी कि अब इस दिन से चिठ्ठियाँ नही भेजी जायेंगी, और फिर हम सब खत भेजेंगे, उनका फोटो खिंचवायेंगे और वो फोटो फेसबुक पर डाल कर लाईक और कमेंट कर सके) कि आपको लंचबॉक्स गलती से चला गया था, और आपको कैसा लगा मेरा बनाया हुआ खाना बस यही पूछने के लिये खत लिखा है और फिर से लंचबॉक्स भेजा है, और बदले में जवाब मिलता है कि “Dear Ila the food was very salty today”. बस यही बात रिश्ते की नींव बनती है और फिर हम सीन, शॉट तो बहुत दूर की बात फ्रेम दर फ्रेम यही सोचते रहते है कि ज़िंदगी और प्यार तो यही सब होते है, जो इरफान, निम्रत कौर और नवाज अपने शरीर के हर हिस्से और अपने हाव भावों से बता रहे होते है अच्छा इंसान बनना, भीड़ भरे रेल के डिब्बे में भी मुस्कुराना, बेकरारी से लंचबॉक्स का इंतजार करना और ख़त पढ़ते वक़्त सबकी नज़रों से छुपने की कोशिश करना यही सब तो प्यार होता है ना??
 

रफान खान, साजन फर्नांडिस के हाव भाव, उसकी बेचैन कर देने वाली खामोशी, उसका चिड़चिड़ापन, इन सब को वो जितने ही बेहतर तरीके से जज़्ब कर चेहरे पर लाते है उतने ही सलीके से वो साजन के प्यार में होने के बाद में उसे खुद को सुधारने की कोशिश करते हुये दिखाते है, खुदा का शुक्र है कि फिल्म में ये नही दिखाया कि हीरोईन के कहने पर ही हीरो अगले क्षण से ही सिगरेट को आसानी से छोड़ देता है इला के रूप में निम्रत कौर ने अपने संवादो और अपने पानी से तरल अभिनय से उस अकेलेपन को दिखा दिया है जिसके लिये हमारी आँखें तरसी हुई थी उसका विद्रोह भी मन को खुश करता है नवाज का किरदार शेख़ जो फिल्म में अपनी स्वर्गीय माँ को ज़िंदा कराता है क्योंकि उससे बातों मे वजन आता है उसमें इस बात का गुस्सा है कि साजन उससे बात नही करना चाहते पर फिर भी वो पूरे आत्मविश्वास से रोज बात करता है, और उसमें इस बात का विश्वास भी है कि जब नाम तक खुद रखा है, तो बाकि भी सब खुद ही सीख लूंगा शेख़ कहीं ना कहीं फिल्म मे आशावाद का प्रतीक है, वो उन भारतीयों के प्रतीक है जो ये मानते है कि जैसा है जो है उसमें मैं अपनी ज़िंदगी भरपूर जी लूंगा
 

रितेश बत्रा ने दो ध्वनि चरित्र भी रखे है एक है मिसेज देशपांडे (भारती आचरेकर) जिनकी आवाज ही काफी होती है सीन में जान डालने के लिये, और दूसरा है एक पुराने से रेडियो में संजीव कपूर की आवाज जो इला को नई नई रेसिपी बताती है, और उन पलों मे भी उसे समझा रही होती है कि आप अपने पति को इस नई डिश से कैसे मनाये जब इला को अपने पति की शर्ट से आती हुई महक से पता चल रहा होता है कि उसके पति का बाहर कही अफेयर चल रहा है
 

एक तरफ से देखा जाये तो माईकल सिमंडस का कैमरा भी मुंबई
शहर को एक चरित्र के रूप में स्थापित करता हुआ नजर आता है फिल्म का संपादन (जॉन लॉयंस) इतना बेहतरीन है कि कुछ हिस्सों में फिल्म जब कुछ कदम आगे जाने के बाद जब वापस लौटती है तो आपको चौकाती है खाने के डिब्बों और खाने की महक से कैमरा तुरंत नही भागता, कट जल्दी-जल्दी नही लगते बल्कि आराम से और पूरे भाव को स्थापित करने के बाद संपादक की कैंची चलती है जब आप ऑफ स्क्रीन आवाज पर चल रहे दृश्यों को देखेंगे तो समझ आता है कि कैसे विरोधाभास पैदा करते हुए भी दृश्य आपको अच्छे लग रहे होते है स्टीफन लॉफर का ध्वनि मुद्रण (साऊंड डिजाईन) इतना मजबूत है कि कुछ जगह आपको लगता है कि आप कोई डाक्यूमेंट्री देख रहे है और सारे साऊंड दुबारा रिकार्ड किये ही नही गये है
 

अब इस फिल्म का वितरण बड़े पैमाने पर करने के लिये करण जौहर की एक “आई हेट लव स्टोरी” माफ की जा सकती है हमें खुश होना चाहिये कि हम अब ऐसे दौर मे है जहाँ सब तरह की फिल्में बन रही है, और उनमें से अब ऑफ बीट फिल्मों के निर्माताओं को इस बात का रोना नही है कि दर्शक नही है बकौल अपूर्व शुक्ल जो फिल्मों की सामाजिक जाँच पड़ताल करते है वो कहते है कि “अगर आप समझते हैं कि आप सही हैं (रिश्ते निभाने में) तो ये फिल्म आपके लिए है। और अगर आपको लगता है, कि आप सही नहीं है, तब तो फिल्म आपके ही लिए है , जाईये...देखिये और रिश्तों की अहमियत को पुनर्परिभाषित कीजिये”, कुल मिला कर हम सभी को दि लंचबॉक्स जरूर देखना चाहिये इस फिल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बढ़ा कर रितेश बत्रा और उनकी टीम को धन्यवाद ज्ञापन करना चाहिये और ऑस्कर का छाती कूट रुदाली रोना बंद करना चाहिये
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The End
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समीक्षक : रोहित यादव जी 

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

फिल्म - नसीम (1995) : अनेकता में एकता की विरासत पर हमले की दास्तान

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 3]
Film - Naseem (1995) 
समीक्षक - राकेश जी

अनेकता में एकता की विरासत पर हमले की दास्तान
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सईद मिर्जा की फिल्म नसीम कई मायनों में एक महत्वपूर्ण फिल्म है। यह समकालीन समस्यायों पर अपना ध्यान केंद्रित करने से नहीं हिचकिचाती। यह फिल्म एक खास माहौल में जन्मे घटनाचक्रों को अपने कथानक में समेटती हुयी आगे बढ़ती है और अपने किरदारों, जो कि भारत के किसी भी हिस्से के आम से लोग हो सकते हैं, पर उन घटनाओं का असर होते हुये दिखाती है।

यह साम्प्रदायिक तनाव और द्वेष को दिखाने का साहसी कार्य बिना अतिनाटकीयता का सहारा लिये हुये इस तरीके से दिखाती है कि संदेश स्पष्ट भी हो जाता है और कहीं से भी हिंसा का प्रदर्शन स्क्रीन पर नहीं होता। इस अतिनाटकीयता से परहेज के कारण फिल्म फंतासी न लग कर बिल्कुल अपने ही आस-पास के परिवेश से जुड़ी हुयी लगती है, और एक कविता की तरह यह वास्तविकता के नजदीक ले जाती है और समाज को प्रभावित करने वाले मसलों के अर्थ समझाने का प्रयास करती है।

फिल्म बड़ा ही महीन कातती और बुनती है और दर्शक को उस महीन वस्त्र से ढ़ककर समझदारी का कवच प्रदान करती है, जो शायद बाहर से न दिखायी दे पर जिसका स्पर्श दर्शक के दिलो दिमाग पर छाया रहे।

फिल्म तीन पीढ़ियों की मौजूदगी को दर्शाती है। एक पीढ़ी है दादाजान (कैफी आज़मी) की। दादाजान अधिकतर बिस्तर पर ही लेटे रहते हैं और वे केवल एक बार ही बिस्तर से उठकर खड़े दिखायी देते हैं और शरीर से बीमार होने के बावजूद वे दिमाग से पूरी तरह स्वस्थ हैं। वे अखंड भारत में जन्मे थे और जब राजनीतिक महत्वाकांक्षी लोगों ने देश के दो टुकड़े करवा दिये तो वे भारत में ही रहे, जहाँ उनका जन्म हुआ था और जहाँ वे बिना किसी किस्म के धार्मिक भेदभाव के जीवन जीते रहे।

दूसरी पीढ़ी में उनका पुत्र (कुलभूषण खरबंदा) और पुत्रवधु (सुरेखा सीकरी) हैं। कुलभूषण समझते हैं कि मुसलमान होने के कारण उन्हे दफतर में बिना वजह परेशान किया जा रहा है। पर उनकी सोच अतिवादी नहीं है और परिस्थितिजन्य ही अधिक लगती है।

वर्तमान के तनावों से परेशान कुलभूषण अपने पिता से पूछते हैं, ”अब्बा, आप पाकिस्तान क्यों नहीं चले गये”।
दादाजान शांति से उन्ही से वापिस पूछते हैं, ”तुम्हे आगरे वाले घर के बाहर का वो पेड़ याद है? तुम्हारी अम्मी को भी बहुत पसंद था”।

तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं दादाजान के पौत्र मुश्ताक (सलीम शाह)।
मुश्ताक अतिवादी सोच के शिकार हैं और उनके मित्र ज़फर (के.के.मेनन) तो व्यवहार में भी एकदम अतिवादी हैं और वे उग्रवादी सोच के प्रतिनिधि बन चुके हैं। वे हिंसात्मक रास्ते अपनाने से गुरेज नहीं करेंगे। वे अयोध्या शायद कभी न गये हों और न कभी जायेंगे पर अयोध्या की घटना उन्हे ऐसे उबालती रहती है जैसे कोई व्यक्तिगत रुप से उन्हे छेड़ रहा हो। ये ऐसी पीढ़ी के भारतीय युवा हैं जो ऐसे परिवेश में बड़े हुये हैं जहाँ धार्मिक सदभाव आदि की बातें कागजी हैं और उन्हे लगता है कि एक बार आमने सामने का मुकाबला करके हरेक विवाद का फैसला किया जा सकता है।

इन तीनों पीढ़ियों के बीच आसानी से आवागमन करने वाला अस्तित्व है दादाजान की पौत्री नसीम (मयूरी कांगो) का। वह एक खुशगवार अहसास है। वह जीवन का उल्लास है। अगर नसीम की किशोरावस्था को समुचित देखभाल दी जाती है, वाजिब स्वतंत्रता दी जाती है, एक स्वस्थ परिवेश दिया जाता है तो ऐसा कहने में कोई गुरेज नहीं हो सकता कि वह देश का भविष्य है। नसीम और दादाजान की उपस्थिति घर में एक संस्कार, एक तहजीब और एक विरासत के स्थानांतरण की प्रक्रिया को हर समय दर्शाती है।

नसीम अपने पिता के उठने के बाद पूछती हैं, ”दादाजान, क्या वाकई एक पेड़ की खातिर आप भारत में रह गये?”
दादाजान मुस्कुराकर उसे प्यार से देखते हैं।

घर के बाहर लगे पेड़, जिसकी छत्रछाया में जीवन के जाने कितने प्यारे लम्हे गुजारे गये होंगे, जाने कितनी यादें उससे जुड़ी हुयी होंगी, के कारण पाकिस्तान न जाने वाले कवित्त भाव और कोमल हृदय वाले मनुष्य को कैसे परेशान कर सकते हैं, समाज के गुण्डा तत्व ? अमानवीय ही हो सकते हैं ऐसे लोग जो ऐसे भारतीयों को बाहरी बताते हों और उन्हे देश छोड़कर जाने के लिये कहते हों।

जिन्हे पाकिस्तान जाना था वे तो सन सैंतालिस में ही चले गये थे पर जो रह गये उन्होने तो स्पष्टतया हिन्दुस्तान को चुना अपने रहने के लिये। वे तो यहीं जन्मे, यहीं पले, बड़े हुये और यहीं की मिट्टी में समय आने पर दफन हो जायेंगे।

साम्प्रदायिक तनाव से अलग फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है नसीम और दादाजान का रिश्ता और उनका आपस में मेलजोल जहाँ हर पल एक पीढ़ी अपनी अच्छी चीजों की विरासत को नयी पीढ़ी को सौंप रही है और यह स्थानांतरण ऐसे नहीं होता कि बुजुर्ग पीढ़ी अपनी समझ को सनकीपन के साथ नयी पीढ़ी पर थोप रही हो। यह आपसी सहमति से और पूरी समझदारी के साथ हँसते हँसते होता है।

एक बार किशोरी नसीम उत्साह में पूछती हैं, ”दादाजान, आपको पता है कि आकाश का रंग नीला क्यों होता है?”
दादाजान मुस्कुराकर कहते हैं, ”क्योंकि मुझे पीला अच्छा नहीं लगता सो मैंने नीले रंग में रंग दिया”।
नसीम खिलखिलाकर हँस पड़ती है, शायद उन्होने स्कूल में इस बारे में पढ़ा है और दादाजान का अवैज्ञानिक उत्तर उन्हे गुदगुदा गया है कि दादाजान वैज्ञानिक कारण नहीं जानते कि आकाश क्यों नीला दिखायी देता है?
दादाजान भी हँसते हैं और कहते हैं,आकाश पीला हो या नीला कोई फर्क नहीं पड़ता, असल बात यह है कि तुम हँसी, यह बात जरुरी है”।

अयोध्या में राम-मंदिर – बाबरी मस्जिद ढ़ाँचे को लेकर विवाद के कारण फैलते धार्मिक वैमन्स्य के बीच नसीम और दादाजान के मध्य बीते हुये पल जीवन की जीवंतता को इतने तनाव के बीच भी बरकरार रखते हैं।

राम-मंदिर – बाबरी मस्जिद ढ़ाँचे के विध्वंस से पहले फैली साम्प्रदायिकता, वैमनस्य का भाव और ढ़ाँचे के विध्वंस के बाद हुये साम्प्रदायिक दंगों से भारत की अनेकता में एकता की विरासत पर एक बार फिर प्राणघातक हमला हुये। इस बार लगा कि भारत में सहनशीलता की विरासत डर कर कहीं एक कोने में जाकर छुप गयी है और तब से इस गुमशुदा की तलाश भारत में जारी है और इस वैमनस्य की पहुँच केवल देश में रह रहे लोगों तक ही सीमित नहीं रही बल्कि इसने दूसरे देशों में रह रहे भारतीयों को अपनी गिरफ्त में ले लिया और देश से दूर रहते हुये भी वे एक बार फिर धार्मिक गुटों में बँट गये।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब युवा शक्ति को बरगलाया गया हो भारत में। भारत में कितने ही राज्य ऐसे रहे हैं जहाँ आजादी के बाद युवाओं की अपरिपक्व परंतु संवेदनशील मानसिकता को किसी न किसी मुद्दे पर अपना उल्लू गाँठने वाले और अपनी नेतागिरी चमकाने वाले बेहद चालाक लोगों ने भटकाव की राह पर भेज दिया है और इस भटकाव का खामियाजा पूरे देश की निरीह जनता को भुगतना पड़ा है, खासकर गरीब जनता को।

नेतागिरी की रोटी तोड़ने वाले हर बार आग भड़का कर अलग हट गये हैं और विनाश लीला के समाप्त होने के बाद उजले कपड़े पहन कर फिर से आगे आ गये हैं ताकि सत्ता सुख भोग सकें। पर मरे आम लोग हैं। घर परिवार उनके नष्ट हुये हैं।

फिल्म युवाओं के ऐसे भटकाव को दिखाती है। मुश्ताक और जफ़र ऐसे विचारों के प्रतिनिधि हैं कि उन्हे मुसलमान होने के कारण गरीब रखा जाता है, दबाया जाता है। उनके पास ऐसा कोई आँकड़ा नहीं है कि भारत में केवल मुसलमान ही गरीब होते हैं पर ऐसी विचारधारा उन्हे माकूल लगती है और उनकी भावनाओं से मेल खाती है तो वे इसे बार बार दोहराने लगते हैं। उन्हे लगता है कि हर दंगे में केवल मुसलमान ही मारे जाते हैं। दादाजान उन्हे सुधारते हैं और कहते हैं, ”मुसलमान नहीं, कहो कि गरीब मारा जाता है”। दादाजान जफ़र की मानसिकता को सुधारना चाहते हैं पर वह इसकी इजाज़त उन्हे नहीं देता और कहता है, ”मैं जानता हूँ आप क्या कहना चाहते हैं पर मैं सुनना नहीं चाहता”।

युवा पीढ़ी में ऐसी अंधी हठधर्मिता का होना विनाश ही लाता है और पिछले साठ सालों से ऐसी हठधर्मिता भारत को बार बार विनाश के कगार पर छोड़ गयी है। किन्ही अच्छी आत्माओं की अच्छी उपस्थिति का असर रहा है कि भारत विनाश से उबरता आया है।

मुश्ताक और जफ़र की पौरुष उपस्थिति इंकार करती है दादाजान की समझदारी भरी नसीहत को सुनने से और नसीम की स्त्रैण उपस्थिति दादाजान की हर अच्छी बात को गाँठ मार कर रखना चाहती है पर स्त्री की कितनी भूमिका भारत की दिशा निर्धारित करने में मानी जाती है? नसीम की स्त्रियाँ एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाती हैं।

एक हिन्दू स्त्री के मर जाने पर अपनी पत्नी को शांत करते हुये कुलभूषण कहते हैं कि यह उनके पड़ोसी का व्यक्तिगत मामला है।
मुश्ताक और जफ़र गुस्से से कहते हैं, ”उनका मामला है। क्यों हमारे हर मामले में तो वे बढ़चढ़ कर बोलते हैं कि यह गलत है वह गलत है। हिन्दू स्त्रियों की रसोई में ही स्टोव क्यों फटते हैं, मुसलमान स्त्रियों की रसोई में क्यों नहीं फटते?”
कुलभूषण के पास कोई जवाब नहीं है पर जवाब उनकी पत्नी के पास है जो दृढ़ता से मुश्ताक और जफ़र से कहती हैं, ”मियाँ उनके लिये तलाक और बुर्का ही काफी है।”

अयोध्या में चालाक नेताओं द्वारा एकत्रित की गयी मूर्ख और अंधे लोगों की भीड़ ढ़ाँचा तोड़ देती है और इधर घर में दादाजान शरीर छोड़ जाते हैं। उस विध्वंस की तुलना उसी उदाहरण से की जा सकती है जिसमें कहा जाता है कि जो जिस डाली पर बैठा हो उसे ही काट रहा हो। भारत को विनाश की आग में खुद भारतीयों ने ही झौंक दिया।

मूर्ख भीड़ हर सम्प्रदाय में है। कोई कमी नहीं है किसी भी धर्म में ऐसी भीड़ की जो बिना सोचे समझे कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहती है।

दादाजान की मृत्यु पर भी गरममिजाज जफ़र को सिर्फ यही सूझता है कि वह मृत शरीर की यात्रा को देखकर भी कटाक्ष करे, ”वाह दादाजान क्या वक्त चुना है आपने जाने के लिये”।

6 दिसम्बर 1992 के बाद का दौर ऐसे ही अंधे लोगों के हाथ में रहा है जिनके प्रतिनिधियों ने अयोध्या में एक भीड़ बन कर ढ़ाँचा तोड़ा और जो जफ़र जैसे कम समझ वाले लोगों की ही भीड़ रही है और बाद में ऐसी ही अंधी भीड़ ने दंगो की सहायता से मानवता को शर्मसार किया। 21 साल देश ने ऐसे ही लोगों की भीड़ से जूझने में लगा दिये हैं। आशा है यह अंधेरा छंटेगा और सही समझ पनपेगी।

अंधेरे में नसीम जैसे व्यक्तित्वों से ही आशा रहती है कि अपने स्नेहमयी, मृदुल स्पर्श से मानवता को जिंदा रख पायेंगे। रात के गहरे घने अंधेरे के बाद सुबह की रोशनी और ऊर्जा तो उन्ही के पास है।

सईद मिर्जा ने "नसीम" के रुप साम्प्रदायिक तनावों से जूझती एक अनूठी फिल्म बनायी है। अशोक मिश्रा ने लेखन में उनका बहुत ही अच्छे ढ़ंग से साथ दिया और फिल्म को दृष्यों और संवादों के माध्यम से उच्च कोटि की गुणवत्ता प्रदान की। सभी अभिनेताओं ने अपने अच्छे अभिनय से फिल्म को जीवंत बनाया।
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The End 
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समीक्षक : राकेश जी