मंगलवार, 25 अगस्त 2015

फ़िल्म मांझी - दि माउन्टेन मैन (2015) : यह कौन सा राष्ट्र है जहां दशरथ माझी रहता है (Film Review)

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 10]
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संध्या नवोदिता जी और संजय जोठे जी की कलम से लिखी गयी 
फिल्म- 'मांझी : दि माउन्टेन मैन' के बारे में दो बेहतरीन समीक्षाएं पढ़िए
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Film - Maanjhi : The Mountain Man
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समीक्षक : 
सुश्री संध्या नवोदिता
मैंने यह फिल्म रिलीज़ वाले दिन ही देखी. फिल्म देखकर सच मन में गुस्से का ज्वार सा उठता है। रात को ठीक से नींद नहीं आई और मैं सोचती रही जो लोग दसरथ को माउन्टेनमैन या पागल प्रेमी बना रहे हैं। वे इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के क्रूर हत्यारे चेहरे को एक रोमांटिसिज्म के नकाब में ढँक रहे हैं। दसरथ मांझी की कहानी
सब जानते हैं। जीतन राम मांझी के कारण आज सब यह जानते हैं कि मांझी बिहार की अतिदलित जाति है जिसके बहुतायत लोग आज भी चूहा खाकर जीने को विवश हैं, यह अतिदलित जाति बिहार के जैसे मध्ययुगीन सामंती राज्य व्यवस्था में सवर्ण सामंतों के भयानक दमन और उत्पीड़न का शिकार हुए हैं और आज भी हो रहे हैं. दसरथ माझी का जीवन जैसा भी फिल्म ने दिखाया बेहद उद्वेलित करता है, कई बार दिल जलता है और भीगता है।

हालांकि फिल्म इससे बेहतर दिखा सकती थी। कमजोर स्क्रिप्ट, अत्यधिक नाटकीयता कई बार बहुत इरिटेट करती है। लगता नहीं केतन मेहता की फिल्म है। फिर नवाज़ का अभिनय साध लेता है, टूटता पहाड़ इसे अपने कन्धों पर रोक लेता है। कई दृश्य तो बिलकुल नुक्कड़ नाटक की झलक हैं। इसके बावजूद फिल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए. तमाम कमियों, कमजोर पटकथा, बनावटी संवादों के बावजूद यह फिल्म एक एहसान है, क्योंकि यह फिल्म ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रीय पहचान दिलाती है, जिसे दुनिया के सबसे बड़े और मजबूत लोकतंत्र ने सिर्फ उपेक्षित ही नहीं किया, बल्कि उसे बहुत तकलीफ दी, बहुत पीड़ा दी,. बहुत अपमान दिया। 

मैं फिल्म देखती हूँ, दसरथ माझी पहाड़ को चुनौती दे रहा है... खून से सने कपड़े, उसकी चुनौती ..फिल्म का पहला सीन -- और डायलाग सुनते ही हॉल में दर्शकों का तेज ठहाका ! क्यों ? यह तो मार्मिक दृश्य है. दसरथ का दुःख क्रोध में रौद्र हो रहा है. पर दर्शक नवाज़ को देसी भाषा बोलते देख हंस रहा है. ऐसे और भी संवेदनशील दृश्य हैं जो दर्शकों के ठहाके का निशाना बन गये- क्रूर मुखिया के सामने से दलित चप्पल पहन कर जा रहा है. मुखिया ने आदेश दिया इसकी वो हालत कर दो कि आगे से इसके पाँव चलने लायक भी न रहें, चप्पल तो दूर की बात है. दलित माफ़ी माँगता है, पाँव गिरता है पर मुस्टंडे उसे घसीटकर ले जाते हैं और उसके पाँव दाग देते हैं, भयावह चीत्कार गूंजता है पर दर्शक ठहाका लगाते हैं. 

जब युवा दसरथ धनबाद की कोयलरी में काम करके कुछ पैसा कमाने के बाद थोडा बना ठना अपने गाँव लौटता है तो मुखिया के लोग उसे बुरी तरह कूट देते हैं, यहाँ भी दर्शकों का ठहाका सुनाई देता है. फटे हुए कपड़ों और नुचे हुए शरीर से भी दसरथ अपने घर में मौज लेता है. यहाँ पता नहीं कि असली दसरथ भी ऐसा ही कॉमिक चरित्र का था या नहीं. लेकिन ये फिल्म के कमजोर हिस्से बन गये जो वास्तव में बहुत मजबूत हो सकते थे। हाँ माओवादियों के आने और जन-अदालत लगा कर मुखिया को फाँसी देने का दृश्य बहुत कमजोर बन गया, जो फिल्म का एक
शानदार टर्निंग प्वाइंट हो सकता था, लेकिन शायद निर्देशक दिखाना ही यही चाहते थे जो उन्होंने दिखाया। दसरथ के पत्नी फगुनिया के साथ रोमांटिक दृश्य तो बाहुबली की याद दिलाते हैं। जब झरने की विशाल पृष्ठभूमि में फगुनिया एक जलपरी की तरह अवतरित होती है। क्या प्यार हर जगह ऐसे ही होता होगा, बाहुबली टाइप का, हर फिल्म में नायक-नायिका की कमोबेश एक जैसी छवि. आदिवासी, अति दलित समाज में भी सौन्दर्य के वही रूपक, वही बिम्ब. अकाल का सीन। 

लग रहा है यह कोई जंगल की बात है। कोई सरकार नहीं है। कोई देश नहीं है। कोई राहत कोष नहीं है। यह कौन सा राष्ट्र है जहां दशरथ माझी रहता है ! यह कौन सी सदी की बात है! तब आदमी चाँद पर तो न ही पहुंचा होगा जब दसरथ माझी आकाश की आग तले पहाड़ तोड़ रहा था। तब शायद पत्थर तोड़ने वाली मशीन भी भारत न आई होगी, जब दसरथ पहाड़ तोड़ रहा था। एक कुआं खोदना भी बहुत मुश्किल काम होता है, पथरीले इलाके में यह कुआं खोदना बेहद मुश्किल होता है, और पथरीले पहाड़ को तोड़ कर सड़क बनाना.... यह अविश्वसनीय काम है। जब दसरथ पहाड़ तोड़ रहा था, जब अपनी ज़िन्दगी के बाईस साल उसने सड़क बनाने में लगा दिए। उस समय डायनामाईट से पहाड़ तोड़कर सड़कें बन सकती थीं और यह काम महज कुछ माह का था, पर दसरथ डायनामाईट के ज़माने में छेनी और हथौड़ी से सड़क बना रहा था, और हमारी व्यवस्था गौरवान्वित महसूस कर रही थी। दसरथ की ज़िन्दगी से यह भी समझ में आता है कि पहाड़ से लड़ना आसान है, पर पहाड़ जैसी व्यवस्था से लड़ना बहुत कठिन।

22 साल दशरथ ने पहाड़ तोडा, सबने देखा होगा। लोकतन्त्र के चरों खम्भो को पता था पर कोई खम्भा ज़रा भी डगमगाया नहीं, आखिर खम्भा जो था। तब जनप्रतिनिधि उस क्षेत्र के विधायक सांसद पंचायत क्या करते रहे। दशरथ माझी कौन है? इस देश के महानायक तो अमिताभ बच्चन हैं। दशरथ माझी को अपने जीवन भर ज़िन्दगी जीने तक का सहारा नहीं मिलता, पर उसके नाम पर बनी फ़िल्म करोड़ों कमाती है। हम फ़िल्म में एडवेंचर पसन्द करते हैं। बेसिकली हम दशरथ को पसंद नहीं करते। हम दशरथ द्वारा दिए माउंटेन मैन के मनोरंजन को पसन्द करते हैं। दसरथ जब तक था शायद ही हममे से किसी ने उसके जीवन के बारे में सोचा हो। और शायद ही किसी को यह जानने में दिलचस्पी हो कि दशरथ का परिवार इस समय भी बदहाली में जीने को मजबूर है। यह कौन सा राष्ट्र है जहां दशरथ माझी रहता है। 

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे और तिग्मांशु धूलिया के बेहतरीन अभिनय के बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है. फिल्म के पसंद किये जाने का कारण नवाज का लुक और अभिनय ही है

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End
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एक और बेहतरीन समीक्षा 
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Film - Maanjhi : The Mountain Man 
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समीक्षक : श्री संजय जोठे 
दशरथ माझी एक कवि हैं. एक पाषाण पर उनकी हिम्मत और हौसले ने दुनिया की सबसे बड़ी और सुन्दरतम कविता रची है यह कविता एक गहरी बुनाई की तरह है जिसमे बहुत सारे ताने बाने एक साथ चलते हैं प्रेम की सुगंध और बिछोह की पीड़ा इस बुनाई में उभरकर नजर आती है, लेकिन बहुत गहराई में कई और सूत्र हैं जो उभर नहीं पा रहे है वे वहां बहुत घनीभूत होकर मौजूद है, लेकिन इस देश के सभ्य लोग उसपर बहस नहीं करेंगे एक अतिदलित मुसहर समाज का व्यक्ति – एक प्रेमी जिसे इंसान समझा ही नहीं जाता हो, जिसकी भूख और मौत तक की कोई सुनवाई न हो, ऐसे में उसके प्रेम की क्या ख़ाक सुनवाई हो सकती है? वैसे भी इस देश का मुख्यधारा का दर्शन और धर्म प्रेम के खिलाफ है. उस पर वंचित तबकों के प्रेम और उस प्रेम की पुकार को कितना मूल्य दिया जा सकता है यह समझना बहुत आसान है 

पहली बार यह समाज इतना प्रौढ़ हुआ है, जहां छोटे बजट की ही सही एक ऐसी फिल्म बनी है और चर्चित हो रही है, जिसका नायक अतिदलित है, जिसका कथानक दो वंचितों के मासूम प्रेम के परितः घूमता है और जिसकी प्रेरणा में एक ऐसा स्वर्णिम सूत्र शामिल है, जो व्यक्तिगत शोषण की टीस से उभरकर सामूहिक शोषण के सनातन प्रश्न का उत्तर बन जाता है यह इस देश में बहुत बहुत बार हुआ है. शोषण और पीड़ा की ठोस जमीन पर खड़े लोगों ने इस समाज को बदलने के लिए बहुत बार पहाड़ तोड़े हैं, लेकिन उनका श्रेय उन्हें नही मिला है. अक्सर ही कोई पुराण या कहानी उभर आती है और असली हीरो उस पुराण के पाखण्ड की अनंत धुंध में खो जाते हैं शंबूक, एकलव्य, मातादीन, झलकारी बाई, और न जाने कितने ही ऐसे महानायक हैं जो या तो मिटा दिए गये हैं या जिनकी महान सफलताओं का श्रेय किसी अन्य को दे दिया गया है, लेकिन दबे-कुचलों के सौभाग्य से अब समय बदला है और असली नायकों को स्वीकार करने की हिम्मत इस देश में इस समाज में उभर रही हैवैसे भी अब अखबार इन्टरनेट और टेलीफोन के जमाने में दशरथ माझी की सफलता किसी देवी देवता, जमींदार, या दबंग के नाम नहीं की जा सकती थी गनीमत ये रही है कि उनपर एक पहाड़ जैसे शासकीय संपत्ति को “नुक्सान” पहुंचाने के लिए कोई मुकद्दमा नहीं हुआ 

मेरे लिए दशरथ एक कवि हैं – एक महाकवि हैं समाज के पाषाण
हो चुके ह्रदय पर उन्होंने बाईस साल तक एक महाकाव्य रचा है इसमें प्रेम की कसक, विछोह की पीड़ा और शोषण के प्रति विद्रोह का अमर गीत गूँज रहा है एक अकेला व्यक्ति जो अपने ह्रदय के सबसे कोमल भाव को हथियार बनाकर एक सनातन पहाड़ से भिड जाता है ये पहाड़ असल में उस समाज और संस्कृति का प्रतीक है जिसमे प्रेम सहित समानता और गरीब के आत्मसम्मान की हमेशा ह्त्या की गयी है इस पहाड़ ने न केवल दशरथ माझी के प्रेम का मार्ग रोका हुआ है बल्कि समय के अनंत में अन्य असंख्य प्रेम की धाराओं को बहने से भी रोक दिया है इस पहाड़ को तोड़कर उसमे रास्ता बनाना बहुत गहरा प्रतीक है. यह असल में सामूहिक मुक्ति का महाकाव्य है 

अक्सर ऐसा होता है कि काल्पनिक कथानक बुने जाते हैं और उन्हें ठोस बिंब व आकार दिए जाते हैंमूर्तिकला इसका उदाहरण है प्रेम की कोमल प्रेरणाओं, को उनके गीतों को ह्रदय में बुनकर पत्थर पर उकेरा जाता है ये पत्थर फिर स्वयं में काव्य बन जाता है इसमें एक स्पष्ट आकार और प्रेरणा होती है एक स्पष्ट मार्ग और मंजिल का पता होता है माझी का काव्य एक अनंत से दुसरे अनंत की तरफ बह रहा है पाषाण पर उनकी उकेरी प्रेम और
विद्रोह की प्रतिमा का कोई स्पष्ट नैन नक्श नहीं है यह एक निर्गुण की छवि है जो स्वयं में किसी दिशा का संधान न करते हुए भी सभी दिशाओं पर एक साथ अपनी सुगंध फैला रही है यह एक अन्य प्रतीक है शोषण से मुक्ति का या प्रेम की खिलावट का कोई बंधा बंधाया मार्ग या नक्शा नहीं है हर प्रेमी को हर शोषित को अपना पहाड़ खुद ही तोड़ना है, अपना मार्ग खुद ही बनाना है


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End
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निर्देशक - केतन मेहता
निर्माता - नीना गुप्ता / दीपा साही
संगीत - सन्देश शांडिल्य
कलाकार - नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, तिग्मांशु धुलिया, दीपा साही, पंकज त्रिपाठी, गौरव द्विवेदी 

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

फिल्म - पीके (2014) : धर्म के नाम पर हो रही कुरीतियों पर कड़ा प्रहार (Film Review)

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 9]
Film - PK (2014) 
समीक्षक - समय ताम्रकार 
(वेब दुनिया मैग्जीन में प्रकाशित)

फिल्म - पीके (2014)
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पीके फिल्म का नाम इसलिए है क्योंकि मुख्य किरदार (आमिर खान) को लोग पीके कहते हैं। वह प्रश्न ही ऐसे पूछता है कि लोगों को लगता है कि होश में कोई ऐसी बातें कर ही नहीं सकता। 'पीके हो क्या?' जैसा जवाब ज्यादातर उसको सुनने को मिलता है और वह मान लेता है कि वह पीके है। 

भगवान की मूर्ति बेचने वाले से वह पूछता है कि क्या मूर्ति में ट्रांसमीटर लगा है जो उसकी बात भगवान तक पहुंचेगी। दुकानदार नहीं बोलता है तो पीके कहता है कि जब भगवान तक डायरेक्ट बात पहुंचती हो तो फिर मूर्ति की क्या जरूरत है? ऐसे ढेर सारे सवाल पूरी फिल्म में पीके पूछता रहता है और धर्म के ठेकेदार बगलें झाकते रहते हैं। 

आखिर ये सवाल पीके पूछता क्यों है? पीके पृथ्वी पर रहने वाला नहीं है। वह एलियन है। चार सौ करोड़ किलो मीटर दूर से पृथ्वी पर आया है। अपने ग्रह पर वापस जाने वाला रिमोट कोई उससे छीन ले गया है। जब रिमोट के बारे में वह लोगों से अजीब से सवाल पूछता है तो जवाब मिलता है कि भगवान ही जाने। वह भगवान को ढूंढने निकलता है तो कन्फ्यूज हो जाता है। 

मंदिर जाता है तो कहा जाता है कि जूते बाहर उतारो, लेकिन चर्च में वह बूट पहन कर अंदर जाता है। कही भगवान को नारियल चढ़ाया जाता है तो कही पर वाइन। एक धर्म कहता है कि सूर्यास्त के पहले भोजन कर लो तो दूसरा धर्म कहता है कि सूर्यास्त होने के बाद रोजा तोड़ो। भगवान से मिलने के लिए वह दान पेटी में फीस भी चढ़ाता है, लेकिन जब भगवान नहीं मिलते तो वह दान पेटी से रुपये निकाल लेता है। 

पीके को राज कुमार हिरानी और अभिजात जोशी ने मिलकर लिखा है। धर्म के नाम पर हो रही कुरीतियों पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया है। पीके को एलियन के रूप में दिखाना उनका मास्टरस्ट्रोक है। एक ऐसे आदमी के नजरिये से दुनिया को देखना जो दूसरे ग्रह से आया है एक बेहतरीन कांसेप्ट है। इसके बहाने दुनिया में चल रही बुराइयों तथा अंधविश्वासों को निष्पक्ष तरीके से देखा जा सकता है। 

इंटरवल से पूर्व फिल्म में कई लाजवाब दृश्य देखने को मिलते हैं। जो हंसाने के साथ-साथ सोचने पर मजबूर करते हैं। एक साथ मन में दो-तीन भावों को उत्पन्न करने में लेखक और निर्देशक ने सफलता हासिल की है। भगवान के लापता होने का पेम्पलेट पीके बांटता है। वह मंदिर में अपने चप्पलों को लॉक करता है। उसे समझ में नहीं आता है कि वह कौन सा धर्म अपनाए कि उसे भगवान मिले। यह बात भी उसके पल्ले नहीं पड़ती कि आखिर इंसान कौन से धर्म का है, इसकी पहचान कैसे होती है क्योंकि इंसान पर कोई ठप्पा तो लगा नहीं होता। इन बातों को लेकर कई बेहतरीन सीन गढ़े गए हैं जो आपकी सोच को प्रभावित करते हैं। 

भगवान के नाम पर कुछ लोग ठेकेदार बन गए हैं और उन्होंने इसे बिजनेस बना लिया है। फिल्म में एक सीन है जिसमें एक गणित महाविद्यालय के बाहर पीके एक पत्थर को लाल रंग पोत देता है। कुछ पैसे चढ़ा देता है और विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थी उस पत्थर के आगे पैसे चढ़ाने लगते हैं। इस सीन से दो बातों को प्रमुखता से पेश किया गया है। एक तो यह कि धर्म से बेहतर कोई धंधा नहीं है। लोग खुद आते हैं, शीश नवाते हैं और खुशी-खुशी पैसा चढ़ाते हैं। दूसरा ये कि विज्ञान पढ़ने वाले भी अंधविश्वास का शिकार हो जाते हैं। बचपन से ही संस्कार के नाम पर उनमें कुछ अंधविश्वास डाल दिए जाते हैं जिनसे वे ताउम्र मुक्त नहीं हो पाते। 

फिल्म उन संतों को भी कटघरे में खड़ा करती है जो चमत्कार दिखाते हैं। हवा से सोना पैदा करने वाले बाबा चंदा क्यों लेते हैं या देश की गरीबी क्यों नहीं दूर करते? धर्म के नाम पर लोगों में भय पैदा करने वालों पर भी नकेल कसी गई है। जब ऊपर वाले ने तर्क-वितर्क की शक्ति दी है तो क्यों भला हम अतार्किक बातों पर आंखें मूंद कर विश्वास करें? 

बातें बड़ी-बड़ी हैं, लेकिन उपदेशात्मक तरीके से इन्हें दर्शकों पर लादा नहीं गया है। हल्के-फुल्के प्रसंगों के जरिये इन्हें दिखाया गया है जिन्हें आप ठहाके लगाते और तालियां बजाते देखते हैं। गाने लंबाई बढ़ाते हैं, लेकिन फिल्म से आपका ध्यान नहीं भटकता। पीके देखते समय 'ओह माय गॉड' की याद आना स्वाभाविक है, लेकिन पीके अपनी पहचान अलग से बनाती है।

ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार, बासु चटर्जी की तरह निर्देशक
राजकुमार हिरानी मिडिल पाथ पर चलने वाले फिल्मकार हैं। वे दर्शकों के मनोरंजन का पूरा ध्यान रखते हैं साथ ही ऐसी कहानी पेश करते हैं जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करे। 'पीके' में वे एक बार फिर उम्मीदों पर खरे उतरते हैं। सिनेमा के नाम पर उन्होंने कुछ छूट ली है, खासतौर पर जगतजननी (अनुष्का शर्मा) और सरफराज (सुशांतसिंह राजपूत) की प्रेम कहानी में, लेकिन ये बातें फिल्म के संदेश के आगे नजरअंदाज की जा सकती है। अपनी बात कहने में अक्सर वे वक्त लेते हैं और यही वजह है कि उनकी फिल्में लंबी होती हैं। संपादक के रूप में वे कुछ सीन और गानों को हटाने का साहस नहीं दिखा पाए। कुछ प्रसंग धार्मिक लोगों को चुभ सकते हैं जिनसे बचा भी जा सकता था। 


आमिर खान पीके की जान हैं। उनके बाहर निकले कान और बड़ी आंखों ने किरदार को विश्वसनीय बनाया है। उनके चेहरे के भाव लगातार गुदगुदाते रहते हैं। वे अपने किरदार में इस तरह घुसे कि आप आमिर खान को भूल जाते हैं। परदे पर जब वे नजर नहीं आते तो खालीपन महसूस होता है। ऐसा लगता है कि सारा समय वे आंखों के सामने होना चाहिए। यह उनके करियर के बेहतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। 

हिरानी की फिल्मों में आमतौर पर महिला किरदार प्रभावी नहीं होते, लेकिन 'पीके' में यह शिकायत दूर होती है। अनुष्का शर्मा को दमदार रोल मिला है। वे बेहद खूबसूरत नजर आईं और आमिर खान जैसे अभिनेता का सामना उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ उन्होंने किया है। सुशांत सिंह राजपूत, संजय दत्त, सौरभ शुक्ला, बोमन ईरानी और परीक्षित साहनी का अभिनय स्वाभाविक रहा है। 

फिल्म के गाने भले ही हिट नहीं हो, लेकिन फिल्म देखते समय ये गाने प्रभावित करते हैं। 

एक बेहतरीन तोहफा 'पीके' के रूप में राजकुमार हिरानी ने सिने प्रेमियों को दिया है और इसे जरूर देखा जाना चाहिए। 

बैनर : विनोद चोपड़ा फिल्म्स, राजकुमार हिरानी फिल्म्स
निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा, राजकुमार हिरानी
निर्देशक : राजकुमार हिरानी
संगीत : शांतनु मोइत्रा, अजय-अतुल
कलाकार : आमिर खान, अनुष्का शर्मा, संजय दत्त, सुशांत सिंह राजपूत, बोमन ईरानी, 
सौरभ शुक्ला, परीक्षित साहनी, रणबीर कपूर (मेहमान कलाकार)