मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

फिल्म - प्रहार (1991) : जय जवान जय ईमान

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 2]
Film - Prahaar (1991) 
समीक्षक - राकेश जी 
जय जवान जय ईमान
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नाना पाटेकर द्वारा निर्देशित इकलौती हिंदी फिल्म- प्रहार, दर्शक को झिंझोड़ कर रख देती है।

भारतीय सैनिकों पर बनी चंद श्रेष्ठ फिल्मों के समूह में प्रहार भी एक सम्मानित सदस्य बन चुकी है। कम बजट की बाधाओं के बावजूद मिलिट्री ट्रेनिंग वाले भाग आनंद देते हैं और फिल्म के ये हिस्से उतनी ही रोचकता दर्शक के लिये लेकर आते हैं जितनी रोचकता वह Clint Eastwood की 'Heartbreak Ridge', Stanley Kubrick की 'Full Metal Jacket' और Richard Gere अभिनीत 'An Officer and a Gentleman' आदि फिल्मों में पाता है।

नाना पाटेकर न केवल, लेखन और निर्देशन में अपनी प्रतिभा का जौहर दिखाते हैं वरन अभिनय में भी बहुत अच्छे अभिनय का जबरदस्त प्रदर्शन करते हैं। सैनिकों को लेकर बनी फिल्में देखने वाले के लिये प्रहार आवश्यक रुप से देखी जाने वाली फिल्म है।

हिंदी फिल्मों की फॉर्मूला आधारित परिपाटी से अलग प्रहार अत्यंत रोचक एवम प्रभावशाली तरीके से एक सैनिक का टकराव अत्यंत भ्रष्ट, कायर और नाकारा हो चुकी सिविल सोसाइटी से दिखाती है।

अच्छाई के साथ मुसीबत यही है कि इसे बुराई पर प्रहार करना ही होता है। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। इसका उलट भी सच है कि बुराई बिना ईमानदारी को पार्श्व में भेजे अपना हित नहीं साध सकती।

ईमानदारी की मजबूरी यही है कि इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होना ही पड़ता है फिर चाहे ईमानदार योद्धा की जान ही क्यों न चली जाये। भ्रष्टाचार का विस्तार तभी होता है जब ईमानदारी पर चहुँ ओर से आक्रमण करके या तो उसे घायल कर दिया जाता है या मार दिया जाता है।

निडरता और साहस के साथ भी बिल्कुल यही बात है, उसे अत्याचार का मुकाबला करने की प्राकृतिक आदत होती है और इससे इतर बहाव के साथ मानव की ये दोनों प्रवृत्तियाँ चल ही नहीं सकतीं। अत्याचारी अंदर से ही साहसी से डरते हैं और इसीलिये निडर को शीघ्र ही मार देना चाहते हैं। अगर निडर आसपास है तो अत्याचारी का शासन न स्थापित हो सकता है और न ही कायम रह सकता है। उसके किले में सेंध लगनी ही लगनी है निडर की मौजूदगी मात्र से।

भ्रष्टाचार से पूरी तरह से ग्रसित समाज में ईमानदारी, निडरता और साहस अपने साथ मौत न भी लेकर आयें तो ऐसी प्रवृत्तियाँ रखने वाले मानव के लिये मुसीबतें लेकर जरुर आते हैं क्योंकि भ्रष्ट समाज में ऐसे गुण और इन्हे अपनाने वाला व्यक्त्ति, दोनों ही अल्पसंख्यक होते हैं और बहुसंख्यक उन पर नियंत्रण करना चाहते हैं जो संभव नहीं है इसलिये दोनों ताकतों के बीच संघर्ष अवश्यंभावी हो जाता है।

समाज में ज्यादा संख्या मि. डिसूजा (हबीब तनवीर) जैसे लोगों की हो जाती है जो किसी भी तरह का कोई संघर्ष बुरी ताकतों से नहीं चाहते और उनकी आर्थिक माँगों को मानकर अपने लिये एक आभासी शांति खरीदते रहते हैं। वे और उनके बेटे पीटर डिसूजा (गौतम जोगलेकर) की मंगेतर शर्ली (माधुरी दीक्षित) दोनों ही अलग अलग तरीके से इस बात का उदाहरण देते हैं कि आम लोग – न बुरा देखो, न बुरा कहो और न बुरा सहो के गलत अर्थ को धारण करके ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं और जीवन से शांति दूर न चली जाये इसलिये जल्दी ही कायरता में अपना स्थायी ठिकाना ढूँढ़ लेते हैं।

गुंडे आते हैं, लोगों से उगाही करके आराम से चले जाते हैं, महिलाओं को छेड़ते रहते हैं, कमजोरों पर अत्याचार करते रहते हैं पर आम आदमी हर तरह की ज्यादती सहन करता रहता है। इसका एक कारण पुलिस का नाकारा होना भी है। वह नाकारा ही नहीं रहती बल्कि इन गुंडों की शक्त्ति के सामने सिर झुकाकर इन्ही का साथ देने लगती है। अगर पुलिस में ईमानदार और निडर जवानों की संख्या बढ़ जाये तो शासन जनहित के कानूनों का रहेगा, जनद्रोही गुंडों का शासन नहीं।

समाज में ऐसे कुंठित लोगों की भी कमी नहीं है जैसा कि शर्ली का भाई (मार्कण्ड देशपांडे) है। वह अपने स्वतंत्रता सेनानी पिता (अच्युत पोतदार) को कोसता रहता है कि उनकी ईमानदारी की नीतियों की वजह से उनके पास इतना पैसा इकटठा नहीं हो पाया कि वे उसे दुबई भेज सकते जहाँ वह बहुत सारा धन कमा सकता था। अब वह बेरोजगार और नशेड़ी बन गया है जो अपने पिता से यह कहने में भी नहीं चूकता कि उसके जन्मने में सबसे बड़ी गलती उसके पिता की थी क्योंकि उसने तो प्रार्थनापत्र भेजा नहीं था जन्म लेने के लिये। कुंठा में वह पूछता है अपने पिता से कि क्या कोई अपना घर फूँक कर भी देश सेवा करता है?

ऐसे लोगों से बसे हुये मोहल्ले में लोग ऐसे कायर हो चुके हैं कि उनकी आँखों के सामने शौर्य चक्र विजेता एक फौजी को गुंडे पीटकर मार डालते हैं और लोग अपने अपने घरों में जाकर छिप जाते हैं। हालात ऐसे हो गये हैं कि रोज़मर्रा के स्तर पर आम जन को परेशान करने वाले गुंडों के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले मेजर चौहान (नाना पाटेकर) को समर्थन देना तो दूर, जिन लोगों की अस्मिता के लिये मेजर चौहान लड़ रहे हैं, वही कृतघ्न लोग उन्ही पर आक्रमण कर देते हैं कि मेजर उनके शांतिपूर्ण जीवन की शांति भंग कर रहे हैं और मेजर तो चले जायेंगे उन्हे तो इन्ही गुंडों के साथ उनकी सरपरस्ती में रहना है।

मेजर चौहान का मोटो है– एक सैनिक जब तक जीवन है, तब तक पीठ दिखाकर भागता नहीं है – और यही सूत्र वे ट्रेनिंग पाने वाले सैनिकों को देते हैं। जब ऐसा सूत्र-वाक्य जीवन दर्शन बन जाये और सामने कमजोरों पर अत्याचार हो रहा हो तो वीर योद्धा कैसे जीवन को सड़ते हुये देख लें? लोगों ने बुराई की तरफ से आँखें बंद करके उसे सहन करना और उसे स्वीकृति देना प्रारम्भ कर दिया है इसीलिये समाज का माहौल इतना सड़ चुका है कि उसमें अच्छाई के पनपने की सम्भावनायें खत्म होती जा रही हैं। जब पानी सड़ जाये तो न उसमें वनस्पति और न ही मछली आदि जलधारी जीव ज़िंदा रह पाते हैं।

ईमानदार लोग कैसे अपना गुजर बसर करें एक भ्रष्ट तंत्र से प्रभावित समाज में? ईमानदार तो साँस भी नहीं ले पाता अगर उसे भ्रष्ट ताकतों के सामने समर्पण करने को कहा जाता है। ऐसा करने के बाद उसका जीना न जीना एक ही बात बन जाती है।

संयोग से जब मेजर चौहान पहली बार किसी सिविलियन से मिलते हैं तो वह वेश्याओं का दलाल निकलता है। उसी एक मुठभेड़ से ऐसा संकेत मिल जाता है कि आने वाला समय टकराव का है। बुराई को तो विस्तार चाहिये और उसकी राह में खड़े हो जाते हैं मेजर चौहान जैसे विकट ईमानदार लोग।

सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि देश को चलाने वाला राजनीतिक और कानूनी तंत्र खुद तो पहल नहीं करता समाज को बेहतर बनाने के लिये और अगर कोई ऐसा प्रयास करना भी चाहे तो उसे रोका जाता है यह कहकर कि यह उसका काम नहीं है और इसके लिये विधिवत संस्थान बनाये गये हैं। अगर ये संस्थान अपना काम ढ़ंग से कर रहे होते तो ऐसी नौबत ही क्यों आती। अगर तब भी प्रयास करने वाला व्यक्त्ति नहीं मानता और बुराई के खिलाफ युद्ध जारी रखना चाहता है तो उसे प्रताड़ित किया जाता है। उसका मानसिक संतुलन बिगड़ा हुआ बताया जाता है।

नाना पाटेकर ने प्रहार को इस योजनाबद्ध तरीके से प्रस्तुत किया है कि दर्शक ईमानदारी और अच्छाई पर अत्याचार होते देख अंदर ही अंदर उबलने लगता है और जब कोई और रास्ता न देखकर मेजर चौहान को गुंडों के अत्याचार के खिलाफ मैदान में उतरना ही पड़ता है तो वह उनके साथ हो जाता है। आम हिंदी फिल्म की तरह वह केवल दर्शकों की भावनाओं को ही नहीं भुनाते और मसाला फिल्मों की तरह मशीनगन लेकर सब गुंडों का खात्म नहीं कर डालते और  इतना करने के बाद भी अंत में नायिका के साथ गाना नहीं गाने लगते।

नाना पाटेकर के खुद के चरित्र की एक पूरी यात्रा है। बचपन से ही वे शोषण को देखते और झेलते रहे हैं जिसने उनके अंदर बुराई और अत्याचार के प्रति गुस्सा और विद्रोह भर दिया है। बचपन में वे विवश थे, कमजोर थे अतः अत्याचार का प्रतिकार न कर पाये परंतु बड़े होने पर उनके पास शक्ति है, साहस है, और जज़्बा है बुराई से जूझने का।

माधुरी दीक्षित, डिम्पल कपाड़िया, हबीब तनवीर, गौतम जोगलेकर, मार्कण्ड देशपांडे और अच्युत पोतदार के चरित्रों को फिल्म में बखूबी उभारा गया है। बेटे की मृत्यु के लिये उसकी फौजी ट्रेनिंग को जिम्मेदार मानने वाले मि. डिसूजा  (हबीब तनवीर) जब मेजर चौहान के गाल पर थप्पड़ लगाते हैं तो इस दृष्य के प्रभाव को नाना पाटेकर बहुत वास्तविक और गहरा बनाते हैं।

नाना पाटेकर की फिल्म दर्शक को सोचने के लिये प्रेरित करती है। मेजर चौहान पर कोर्ट में केस चलते दिखाकर और उनके अंदर एकत्रित हो गये गुस्से, कुंठा और हिंसा जैसे भावों के कारण उन्हे सामान्य मानसिक अवस्था वापिस लाने की बात दिखाकर वे फिल्म को एक नया मोड़ देते हैं और इसे एक जिम्मेदार फिल्म बनाते हैं। फिल्म के अंत में सैंकड़ों बच्चों का नग्नावस्था में दौड़ना एक बेहद प्रभावशाली इमेज है।

नाना पाटेकर ने बेहद अच्छी फिल्म बनायी और यह हिंदी सिनेमा का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि इस फिल्म के बाद नाना पाटेकर को और फिल्में बनाने का सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ है। काश वे और फिल्में बना पाते।
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The End 
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समीक्षक : राकेश जी

फिल्म - एक रुका हुआ फैसला (1986) : निष्पक्ष तार्किकता की विजय

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 1]
Ek Ruka Hua Faisla (1986)
समीक्षक - राकेश जी 
निष्पक्ष तार्किकता की विजय 
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लोग दूसरों को फांसी देने की वकालत भी ऐसे करते हैं जैसे वे सर्वज्ञाता हों, सर्वव्यापी हों। ऐसा सभी देशों में, सभी समाजों में होता है। लोगों के पूर्वाग्रह उन्हे निष्पक्ष नहीं रहने देते और हरेक के अंदर एक न्यायधीश बनने की बेकरारी तो रहती ही है। लोग निर्णय देने में जरा सी भी देरी करना उचित नहीं समझते। लोग पल भर में किसी व्यक्ति या समुदाय को दोषी, निकृष्ट और अपराधी ठहरा देते हैं जबकि उनके पास ऐसा मानने के कोई तार्किक कारण नहीं होते बस उनकी अपनी समझ होती है जो पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होती है। दूसरे को निपटाने की जल्दबाजी नज़र आती है हर तरफ

रोजमर्रा की ज़िन्दगी में चारों तरफ ऐसा ही दिखायी देता है कि लोग बहुत जल्दी विचार बना लेते हैं दूसरों के बारे में और ऐसा वे तब करते हैं जब वे ढ़ंग से जानते भी नहीं लोगों और घटनाओं के बारे में। जब ऐसे ही पक्षपाती लोगों का समूह एक भीड़ के रुप में बदल जाता है तो बड़े विनाश घटित होते हुये नज़र आते हैं। संतुलित मानस और संतुलित विचारधारा दुर्लभ वस्तुयें होते जा रहे हैं दिनो दिन।

1954 में Reginald Rose ने अमेरिकी टेलीविजन के लिये एक नाटक लिखा था 12 Angry Men। इसी नाटक पर Sidney Lumet ने 1957 में हॉलीवुड में इसी शीर्षक से फिल्म बनायी थी जिसमें Henry Fonda,  11 लोगों का सामना करते हुये एक बेकसूर को बचाते हैं जिस पर अपने पिता की हत्या करने का आरोप है। 

अस्सी के दशक के मध्य में रंजीत कपूर ने अंग्रेजी नाटक का हिन्दी में रुपांतरण करके एक रुका हुआ फैसला नामक नाटक की रचना की थी। उन्होने इस नाटक का मंचन अपने निर्देशन में देश भर में किया था। यश चोपड़ा इस नाटक पर रंजीत कपूर से फिल्म बनवाना चाहते थे पर मामला प्रगति नहीं कर पाया और कालांतर में बासु चटर्जी ने रंजीत कपूर से उनके नाटक पर फिल्म बनाने की स्वीकृति ले ली और 1986 में फिल्म बना डाली।

फिल्म शुरु होते ही दर्शक को आकर्षित करना शुरु कर देती है और उसे एक ऐसे वातावरण में ले जाती है जहाँ तर्क-कुतर्क, पक्षपात-निष्पक्षता, पूर्वाग्रहों-न्यायोचित आदि इत्यादि जैसे संदर्भ दर्शक के सामने आकर पूरी ताकत से बल-प्रदर्शन करने लगते हैं और फिल्म के किरदारों की मनोस्थिति में आये बदलावों के साथ साथ दर्शक भी समय और तर्कों के साथ अपने निर्णय बदलते रहते हैं। फिल्म की यह खूबी तो है ही कि यह दर्शक को तार्किक निष्पक्षता का महत्व समझा देती है कि वे मानव से जुड़े मामलों को संजीदगी से लें।

सत्रह अठारह साल का एक किशोर आरोपित माना गया है अपने पिता की हत्या करने का। वह झुग्गी-झौंपड़ी में जन्मा और बेहद गरीबी के बीच पल कर इतना बड़ा हुया है। बाप शराबी और झगड़ालू। बाप क्रूरता से बचपन से ही उसे पीटता रहा है। लड़का चाकूबाजी में माहिर माना जाता है।

दो तरह की विचारधारायें लड़के के भूतकाल और उसके वर्तमान के बारे में बन सकती हैं। एक विचारधारा के लिये वह एक ऐसे परिवेश से आता है जहाँ गरीबी के दलदल में अपराध पलता है और अपराधी पैदा होते हैं और उस परिवेश में रहने वाला हर व्यक्ति अपराधी ही हो सकता है। ऐसे परिवेश में रहने वाले लोग कम से कम निम्न-मध्यम और उच्च मध्यवर्गीय समाज के लिये तो खतरा हैं ही और उन्हे जितनी जल्दी हो सके समाज से दूर कर देना चाहिये वरना वे तथाकथित सभ्य समाज के लिये मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं। इस विचारधारा में उस गरीब परिवेश से आये लोगों के लिये एक नफरत का भाव है।

दूसरी विचारधारा का जन्म उस लड़के के बचपन से लेकर अब तक के जीवन को एक निरपेक्ष दृष्टि से देखे जाने के प्रयास से उत्पन्न होता है। एक ऐसा लड़का जिसकी माँ बचपन में ही मर गयी थी और जिसके बाप को उसकी परवरिश की नहीं बल्कि अपनी शराब और दूसरी अन्य बुरी लतों की परवाह है और जो अपने ही बच्चे को क्रूरता से पीटता है। लड़के ने माँ-बाप का प्यार क्या होता है कभी जाना ही नहीं। किस बात के सहारे वह बड़ा हुआ होगा ? उसका दिमाग ऐसे तो विकसित हुआ नहीं होगा जैसे कि सामान्य परिवेश में माता-पिता की छत्रछाया में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवार के किसी बच्चे का हो सकता है। जाने बचपन के किस किस मोड़ पर अपराध ने उसे कैसी शिक्षा दी हो ?

ज्यूरी के कुछ सदस्य इस बात पर पूरी मजबूती से सहमत हैं कि लड़का अपराधी मानसिकता वाला एक नौजवान है और उसने झगड़ा होने पर अपने बाप की हत्या कर दी। वह ऐसा कर सकता है क्योंकि उस माहौल में अपराध ही पलते हैं। ज्यूरी के कुछ सदस्य थाली के बैंगन मुहावरे के जीते जागते उदाहरण हैं और उनकी अपनी कोई राय नहीं है और वे मजबूत पक्ष की ओर अपना झुकाव दिखाते हैं।

ज्यादातर सदस्यों के लिये इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि लड़के के साथ न्याय हो रहा है या अन्याय। उन्होने चौकन्ने होकर अदालत में केस नहीं सुना है। उनके दिमाग इस बात से ज्यादा प्रभावित हैं कि चूँकि पुलिस ने लड़के को पकड़ा है और उसके घर के नीचे और सामने रहने वाले दो गवाहों ने उसके खिलाफ गवाही दी है तो लड़के को अपने बाप का हत्यारा होना ही चाहिये। इसमें कोई दो राय हो नहीं सकतीं और लड़का बेकसूर होता तो उसका वकील सिद्ध न कर देता अदालत में ? पर वह तो चुप ही रहा सरकारी वकील के सामने क्योंकि उसके पास कोई तर्क था ही नहीं। जब एक गवाह ने बाप-बेटे के बीच होने वाले झगड़े की पुष्टि की और लड़के को झगड़े के फौरन बाद घर से नीचे भागते हुये देखा और लड़के के घर के सामने वाले घर में रहने वाली एक औरत ने अपनी खिड़की से उस लड़के को चाकू मारते हुये देखा तो शक की कोई गुँजाइश बचती ही नहीं कि लड़का ही अपने बाप का कातिल है।

अदालत ने इन 12 लोगों को लड़के के पक्ष या विपक्ष में एक राय बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है। इन सदस्यों के लिये यह काम सिर्फ पाँच मिनट का है। किसी को अपने परिवार के साथ फिल्म देखने जाना है, किसी को कुछ और काम निबटाने हैं और ऐसे सब सदस्य जल्दी में हैं, इस केस पर राय देने में।

लोगों के समूह में बहुत मुश्किल होता है किसी एक व्यक्ति का समूह में शामिल अन्य लोगों की राय के खिलाफ अकेले खड़ा होना। पर इन 12 लोगों के समूह में एक आदमी (के.के रैना) ऐसा करता है।

जब सभी लोगों की राय से समूह का अध्यक्ष लड़के के मुजरिम होने या न होने के बारे में वोटिंग करवाता है तो जल्दी से घर जाने की सोच रखने वाले लोगों को एक बड़ा झटका लगता है जब वे पाते हैं कि एक महोदय ने अपना वोट लड़के को बेकसूर मानते हुये दिया है।

ज्यूरी के ज्यादातर सदस्यों की नफरत भरी निगाहों और ऊटपटाँग कटाक्षों को शांति से झेलते हुये के.के. रैना कहते हैं,” मुझे पक्का पता नहीं है कि लड़का कसूरवार है या बेकसूर पर जब अदालत ने हम लोगों को यह जिम्मेदारी सौंपी है तो मुझे लगता है कि हमें गम्भीरता से और पूरी ईमानदारी से इस केस से जुड़े हुये सारे पहलुओं पर विचार करना चाहिये और उन पर चर्चा करनी चाहिये“।

कुछ सदस्य के.के. रैना को अशिष्ट भाषा में कोसते हैं पर वे अपनी राय पर अडिग रहते हैं और कहते हैं,” मेरे मन में कुछ माकूल संदेह हैं और मुझे लगता है कि लड़के को फाँसी पर चढ़ाने की सिफारिश करने से पहले उन संदेहों का जवाब ढ़ूँढ़ना जरुरी है“। चूँकि सभी सदस्यों की एक राय होने की अनिवार्यता है सो ज्यूरी के सभी सदस्यों को मन-मसोस कर विचार-विमर्श के लिये राजी होना पड़ता है।

फिल्म देखने या जल्दी निबट कर घर या कहीं और जाने की चाह रखने वाले शुरु में सोचते हैं कि जल्दी ही सभी एक मत से लड़के को कुसुरवार ठहरा देंगे, परन्तु के.के रैना जैसे जैसे तार्किक बहस की और बढ़ते हैं उनके दिमाग में नये नये शक पैदा होते जाते हैं और नयी नयी गुत्थियाँ सामने आने लगती हैं। बहस बढ़ती जाती है और जल्दी से वहाँ से बाहर जाने वाले लोगों की खीज भी बढ़ती जाती है।

कुछ सदस्यों के मन में भी के.के रैना के तर्क सुनकर संदेह जागने लगते हैं और लड़के के ऊपर चल रहे मुकदमें की परतें खुलनी शुरु हो जाती हैं। फिल्म मानव व्यवहार पर बहुत ज्यादा ध्यान देती है। कैसे लोग पहले तो अंधे होकर किसी भी बात का समर्थन करने लगते हैं और बाद में थोड़ी चेतना आने पर ही सही पक्ष की ओर जाने की जहमत उठाते हैं। कुछ इतनी मोटी खाल वाले होते हैं कि हर मामले को अपनी नाक के सम्मान का मामला बना लेते हैं और जिद पर अड़ जाते हैं कि चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाये उन्होने जो तय कर दिया सो कर दिया चाहे वह निर्णय गलत ही क्यों न हो।

ज्यूरी के कुछ सदस्य तो तार्किक विश्लेषण की बिना पर अपना मत बनाते हैं और कुछ जिद्दी किस्म के सदस्य इसलिये सबका साथ देते हैं क्योंकि सबका मत एक होने से ही उन्हे इस जिम्मेदारी से मुक्ति मिल सकती है। ऐसा नहीं है कि उनके पास लड़के के खिलाफ कोई ठोस सबूत है और इसलिये वे उसे गुनहगार मानते हैं बल्कि उनका अपना मानना है कि लड़का ही कातिल है इसलिये वे किसी भी तर्क को मानने के लिये तैयार नहीं हैं।

एक शख्स (पंकज कपूर) हैं जिन्हे व्यक्तिगत रुप से इस बात में रुचि  है कि लड़के को शीघ्र ही फाँसी की सजा मिलनी चाहिये। वे हर उस सदस्य पर आग-बबूला हो उठते हैं जो भी लड़के को निर्दोष मानने लगता है। वे इसे अपना कर्तव्य समझते हैं कि इस लड़के और इस जैसे सभी युवाओं को, जो भी अपने माँ-बाप से झगड़ा करते हैं, मौत की सजा मिलनी चाहिये।

फिल्म में बहस के शुरु में के.के.रैना अकेले 11 अन्य सदस्यों के खिलाफ खड़े होते हैं और एक स्थिति ऐसी आ जाती है जहाँ पंकज कपूर अकेले सबको धमकी देते हैं कि कोई भी उन पर दबाव डालकर लड़के को बेकसूर साबित नहीं कर सकता। पर एक वक्त्त आता है जब के.के.रैना उन्हे वास्तविकता का बोध कराते हैं कि वे व्यक्तिगत रुप से लड़के के खिलाफ हैं और इस खिलाफत का इस मुकदमें से कोई ताल्लुक नहीं है। फिल्म में न केवल रोंगटे खड़े कर देने वाले क्षण आते हैं जब बहस में एक से एक रहस्योदघाटन होते हैं ।

फिल्म को पंकज कपूर के जबर्दस्त अभिनय के लिये भी देखा जाना चाहिये। एक सनकी, कुंठित और गुस्सैल प्रौढ़ से लेकर एक टूटे हुये पिता, जो कि अपने बदतमीज पुत्र की गुस्ताखी के बावजूद उसे याद करता रहता है। उन्होने विशिष्ट शारीरिक बनावट गढ़ी इस चरित्र को निभाने के लिये इस शारीरिक संरचना से मिलते जुलते, चलने और बैठने उठने के ढ़ंग और हाव-भाव अपनाये और पूरी फिल्म में इन सब बातों में एक निरंतरता अपनाये रखी। शुरु से अंत तक वे अपनी सनक भरे व्यवहार से दर्शकों से अपने चरित्र के लिये नापसंदगी इकटठी करते रहते हैं पर जब वे रोते रोते अपने बेटे की हरकत के बारे में बताते हैं तो एक ही क्षण में वे अपने लिये सहानुभूति उत्पन्न कर लेते हैं। ऐसा करना किसी महान अभिनेता के लिये ही सम्भव है।

मैं तुझे मार डालूँगा… किससे कहा था उस लड़के ने यह चीखकर ?
अपने बाप से जिसने उसे पैदा किया…पाला पोसा बड़ा किया… और भी न जाने क्या क्या किया होगा उसने अपने बेटे के लिये.. और बदले में क्या मिला उसे … चाकू
खत्म कर दिया उसने हमेशा के लिये… ताकि डाँट न खानी पड़े…कोई बताने वाला न हो… ये अच्छा है करो… यह बुरा है मत करो
एक बाप क्या है कुछ नहीं…
मैं क्या हूँ कुछ नहीं…..

के.के. रैना याद दिलाते हैं पंकज कपूर को कि मुलजिम उनका बेटा नहीं है जिसे वे याद भी करते हैं और जिसकी हरकत के कारण वे दुनिया भर के बदतमीज बेटों से हद दर्जे की नफरत करते हैं। उस लड़के को भी जीने का हक है।

एक फिल्म जो एक मुल्जिम के केस से शुरु होती है अंत तक आते आते बाप-बेटे के नाजुक पर महत्वपूर्ण रिश्ते का इतनी गहरायी से अन्वेषण और विश्लेषण करती है कि दर्शक इसमें व्यक्तिगत रुप से रुचि लेगा ही लेगा। पिता दर्शक को अपना पुत्र और पुत्र दर्शक को अपना पिता याद आयेगा ही आयेगा और याद आयेंगे वे तमाम लम्हे जब उन्होने एक दूसरे के साथ ठीक बर्ताव नहीं किया था।

एक बार देखने के बाद सभी कुछ जान लेने के बावजूद फिल्म में इतना आकर्षण है कि इसे बार बार देखा जा सकता है और लोग देखते ही हैं। फिल्म की विषय सामग्री इतनी आकर्षक है कि इसे अगर बार बार अलग अलग युग में उस दौर के सबसे अच्छे अभिनेताओं के साथ बनाया जाये तो यह हर दौर में दर्शकों को लुभायेगी।
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The End 
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समीक्षक : राकेश जी

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

एक थी नीरजा ...

कैटरिना कैफ, करीना कपूर, प्रियंका चैपड़ा, दीपिका पादुकोड़, विद्याबालन और अब तो सनी लियोन जैसा बनने की होड़ लगाने वाली युवती क्या नीरजा भनोत का नाम जानती है ??? 

5 सितम्बर 1986 को आधुनिक भारत की एक विरांगना जिसने इस्लामिक आतंकियों से लगभग 400 यात्रियों को जान बचाते हुए अपना जीवन बलिदान कर दिया। भारत के कितने नवयुवक और नवयुवतियां उसका नाम जानते है। नहीं सुना न ये नाम ??? 

मैं बताता हूँ इस महान विरांगना के बारे में। 7 सितम्बर 1964 को चंड़ीगढ़ के हरीश भनोत जी के यहाँ जब एक बच्ची का जन्म हुआ था तो किसी ने भी नहीं सोचा था कि भारत का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान इस बच्ची को मिलेगा। बचपन से ही इस बच्ची को वायुयान में बैठने और आकाश में उड़ने की प्रबल इच्छा थी। नीरजा ने अपनी वो इच्छा एयर लाइन्स पैन एम ज्वाइन करके पूरी की। 16 जनवरी 1986 को नीरजा को आकाश छूने वाली इच्छा को वास्तव में पंख लग गये थे। नीरजा पैन एम एयरलाईन में बतौर एयर होस्टेज का काम करने लगी। 

5 सितम्बर 1986 की वो घड़ी आ गयी थी जहाँ नीरजा के जीवन की असली परीक्षा की बारी थी। पैन एम 73 विमान करांची, पाकिस्तान के एयरपोर्ट पर अपने पायलेट का इंतजार कर रहा था। विमान में लगभग 400 यात्री बैठे हुये थे। अचानक 4 आतंकवादियों ने पूरे विमान को गन प्वांइट पर ले लिया। उन्होंने पाकिस्तानी सरकार पर दबाव बनाया कि वो जल्द में जल्द विमान में पायलट को भेजे। किन्तु पाकिस्तानी सरकार ने मना कर दिया। तब आतंकियों ने नीरजा और उसकी सहयोगियों को बुलाया कि वो सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित करे ताकि वो किसी अमेरिकन नागरिक को मारकर पाकिस्तान पर दबाव बना सके। नीरजा ने सभी यात्रियों के पासपोर्ट एकत्रित किये और विमान में बैठे 5 अमेरिकी यात्रियों के पासपोर्ट छुपाकर बाकी सभी आतंकियों को सौंप दिये। उसके बाद आतंकियों ने एक ब्रिटिश को विमान के गेट पर लाकर पाकिस्तानी सरकार को धमकी दी कि यदि पायलट नहीं भेजे तो वह उसको मार देगे। किन्तु नीरजा ने उस आतंकी से बात करके उस ब्रिटिश नागरिक को भी बचा लिया। 

धीरे-धीरे 16 घंटे बीत गये। पाकिस्तान सरकार और आतंकियों के बीच बात का कोई नतीजा नहीं निकला। अचानक नीरजा को ध्यान आया कि प्लेन में फ्यूल किसी भी समय समाप्त हो सकता है और उसके बाद अंधेरा हो जायेगा। जल्दी उसने अपनी सहपरिचायिकाओं को यात्रियों को खाना बांटने के लिए कहा और साथ ही विमान के आपातकालीन द्वारों के बारे में समझाने वाला कार्ड भी देने को कहा। नीरजा को पता लग चुका था कि आतंकवादी सभी यात्रियों को मारने की सोच चुके हैं। उसने सर्वप्रथम खाने के पैकेट आतंकियों को ही दिये क्योंकि उसका सोचना था कि भूख से पेट भरने के बाद शायद वो शांत दिमाग से बात करे। इसी बीच सभी यात्रियों ने आपातकालीन द्वारों की पहचान कर ली। नीरजा ने जैसा सोचा था वही हुआ। प्लेन का फ्यूल समाप्त हो गया और चारो ओर अंधेरा छा गया। नीरजा तो इसी समय का इंतजार कर रही थी। तुरन्त उसने विमान के सारे आपातकालीन द्वार खोल दिये।


योजना के अनुरूप ही यात्री तुरन्त उन द्वारों के नीचे कूदने लगे। वहीं आतंकियों ने भी अंधेरे में फायरिंग शुरू कर दी। किन्तु नीरजा ने अपने साहस से लगभग सभी यात्रियों को बचा लिया था। कुछ घायल अवश्य हो गये थे किन्तु ठीक थे अब विमान से भागने की बारी नीरजा की थी किन्तु तभी उसे बच्चों के रोने की आवाज सुनाई दी। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना के कमांडो भी विमान में आ चुके थे। उन्होंने तीन आतंकियों को मार गिराया। इधर नीरजा उन तीन बच्चों को खोज चुकी थी और उन्हें लेकर विमान के आपातकालीन द्वार की ओर बढ़ने लगी। कि अचानक बचा हुआ चैथा आतंकवादी उसके सामने आ खड़ा हुआ। नीरजा ने बच्चों को आपातकालीन द्वार की ओर धकेल दिया और स्वयं उस आतंकी से भिड़ गई। कहाँ वो दुर्दांत आतंकवादी और कहाँ वो 23 वर्ष की पतली-दुबली लड़की। आतंकी ने कई गोलियां उसके सीने में उतार डाली। नीरजा ने अपना बलिदान दे दिया। उस चैथे आतंकी को भी पाकिस्तानी कमांडों ने मार गिराया किन्तु वो नीरजा को न बचा सके।


नीरजा भी अगर चाहती तो वो आपातकालीन द्वार से सबसे पहले भाग सकती थी। किन्तु वो भारत माता की सच्ची बेटी थी। उसने सबसे पहले सारा विमान खाली कराया और स्वयं को उन दुर्दांत राक्षसों के हाथों सौंप दिया। 

नीरजा के बलिदान के बाद भारत सरकार ने नीरजा को सर्वोच्च नागरिक सम्मान अशोक चक्र प्रदान किया तो वहीं पाकिस्तान की सरकार ने भी नीरजा को तमगा-ए-इन्सानियत प्रदान किया। नीरजा वास्तव में स्वतंत्र भारत की महानतम विरांगना है। 

(2004 में नीरजा भनोत पर टिकट भी जारी हो चुका है।)

ऐसी विरागना को मैं कोटि-कोटि नमन करता हूँ। 

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!!! जय हिन्द !!!
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बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

पक्षियों का अनुपम सौन्दर्य [Beautiful & Amazing Birds]

प्रस्तुति - प्रकाश गोविन्द

संसार में जहाँ ढेरों समस्याएँ मनुष्य ने अपने लिए पैदा कर ली हैं, वहीं प्रकृति ने हमें सुकून देने के लिए पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी, सरोवर, झरने दिए हैं ताकि हम उन्हें देखकर कुछ सीख सकें। ये सुंदर-सुंदर पक्षी हमारे मन को असीम खुशियाँ देते हैं, वहीं यह सीख भी देते हैं कि हम इसे पत्थरों की दुनिया न बनाएँ ... इसे इंसानों के रहने लायक दुनिया बनाएँ ... और इस खुले आसमान को हम परिंदों के लिए छोड़ दो ... ज़मीं के ऊपर यह नीला आसमां हमारा है ....
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उड़ना मन मत हार सुपर्णे उड़ना मन मत हार 
उड़ना पंख पसार सुपर्णे उड़ना पंख पसार....
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साभार--गूगल इमेज