सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

शायर राहत इन्दौरी और मुनव्वर राना

क्विज संचालन ---- प्रकाश गोविन्द


प्रिय साथियों
नमस्कार !!!
हम आप सभी का क्रिएटिव मंच पर अभिनन्दन करते हैं।

'सी.एम.ऑडियो क्विज़- 9' आयोजन में भाग लेने वाले सभी प्रतिभागियों और विजेताओं को बधाई। इस बार की क्विज में सुनवाए गए दो दिग्गज शायरों को पहचान पाना इतना आसान होगा यह सोचा न था। ऐसा प्रतीत होता है कि अच्छी शेरो-शायरी सुनने/पढ़ने का शौक रखने वाले आज भी बहुत हैं। उर्दू शायरी के लिए बहुत ही अच्छी खबर है। इस बार 18 प्रतियोगियों ने हमें सही जवाब दिए।

सबसे पहले इस बार सबको लाजवाब हिंट देने वाले शिवेंद्र सिन्हा जी ने सही जवाब देकर प्रथम स्थान हासिल किया। उसके बाद क्रमशः द्वितीय एवं तृतीय स्थान पर डा० अजमल खान जी और गजेन्द्र सिंह जी रहे।

इस बार अफ़सोस इस बात का हुआ कि हमारे पुराने दिग्गज प्रतियोगी आशीष मिश्रा जी और दर्शन जी थोडा सा चूक गए
उन्होंने अपने जवाब में राहत इन्दौरी जी के नाम की जगह रहमत इन्दौरी लिखा था जिसके कारण वे विजेता लिस्ट में जुड़ने से वंचित रह गये.

आप सभी अपना स्नेह यूँ ही बनाये रखिये। आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी। अब अगले रविवार को "सी.एम.ऑडियो क्विज़-10" में आपसे पुनः यहीं मुलाकात होगी।


समस्त विजेताओं व प्रतिभागियों को
एक बार पुनः बहुत-बहुत बधाई और शुभ कामनाएं।

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अब आईये -
''सी.एम.ऑडियो क्विज-9' के पूरे परिणाम के साथ ही क्विज में पूछे गए दोनों हरदिल अज़ीज़ शायरों के बारे में बहुत संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करते हैं :
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1- शायर राहत इन्दौरी [Rahat Indori]
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राहत इन्दौरी (जन्म: 01 जनवरी 1950) किसी तआरुफ़ के मोहताज़ नहीं हैं। फ़िल्मी दुनिया से लेकर मुशायरों तक और मुशायरों से लेकर अदब तक में राहत इन्दौरी जी का नाम बड़ी इज्ज़त से लिया जाता है। अंजुम रहबर जो राहत इन्दौरी साहब की पत्नी हैं और बहुत अच्छी शायरा भी हैं।

राहत इन्दौरी ने अपनी जिंदगी के शुरूआती दौर में बहुत संघर्ष किया है। शायद यही वजह है कि वे जिस जद्दोजहद से रूबरू हुए, उसी जाती तजुर्बात की परछाइयाँ उनकी शायरी में नज़र आती है। राहत इन्दौरी एक ऐसे शायर हैं जो हर उस मुल्क में जाने-पहचाने जाते हैं जहाँ उर्दू बोली और समझी जाती है। तकरीबन चालीस वर्षों से राहत साहब ने मुशायरों के स्टेज पर मुसलसल एक हलचल-सी पैदा कर रखी है। वह मुशायरा मुकम्मल नहीं समझा जाता जिसमें राहत शरीक न हों।

राहत साहब का पेंटिंग से काफी रिश्ता रहा है. वे खुद भी कहते हैं - 'Rahat_Indoriमैं बुनियादी तौर पर पेंटर ही हूँ। मेरे अंदर मौजूद पेंटर और शायर में गहरा रिश्ता है। जिंदगी का काफी लंबा वक्त मैंने पेंटिंग में गुजारा है। मेरे अंदर शायर तो यकायक पनपा। वैसे मैं इन दोनों माध्यमों में फर्क नहीं समझता। पेंटिंग कैनवस पर होती है और शायरी कागज़ पर। पेंटिंग में आप कैनवस पर रंग भरते हैं और शायरी में रोशनाई से लफ्ज़ लिखते हैं।'

बतौर शायर राहत साहब अपने सफर के बारे में कहते हैं - 'हर जिंदादिल शायर अपने आसपास के माहौल से देशकाल से प्रभावित होता है। मैं भी जब अपने आसपास - ज्यादतियां और नफरत देखता हूँ तो मेरे अन्दर मौजूद शायर उनपर गौर कर शेर कहता है। जिन हालात से मेरा किरदार गुजारता है। मैं उसपर फिक्रो-ख़याल करके कलम चलाता हूँ और ज़ज्बात को अलफ़ाज़ का जामा पहनाता हूँ। दुनिया ने ताज़ुर्बातो-हवादिस कि शक्ल में, जो कुछ मुझे दिया लौटा रहा हूँ मैं'

ri राहत इन्दौरी की शायरी बहुत दिलकश और खरी होती है। वे पापुलरिटी हासिल करने के लिए कभी भी शायरी की गुणवत्ता से समझौता नहीं करते। यही वजह है कि उनका लिखा लोगों को खूब पसंद आता है और याद भी रहता है। ये किसी शायर की लोकप्रियता का सबसे अहम पहलू है। राहत जब ग़ज़ल पढ़ रहे होते हैं तो उन्हे देखना और सुनना दोनो एक अनुभव से गुज़रना है। गुफ़्तगू सी लगती उनकी शायरी में सुनने वाला राहत के क़लम की कारीगरी का मुरीद हो जाता है। उनका माइक्रोफ़ोन पर होना ज़िन्दगी का होना होता है। यह अहसास सुननेवाले को बार-बार मिलता है कि राहत रूबरू हैं और अच्छी शायरी सिर्फ़ और सिर्फ़ इस वक़्त सुनी जा रही है। उनके शब्द और आवाज़ का करतब हिप्नोटाइ़ज़ सा कर लेता है।

राहत इन्दौरी की शायरी इसलिये भी ध्यान से सुनी0 जाती है क्योंकि उनकी आवाज़ का तेवर अशाअर के मूड को रिफ़्लेक्ट करता है। राहत इन्दौरी जी ने कई फिल्मों में गाने लिखे और वे गाने खूब हिट भी हुए, लेकिन उन्हें फिल्मों में गाने लिखना ख़ास रास नहीं आया। कारण बताते हुए वे कहते हैं - 'हिंदी फिल्मों में इस समय जो गाने लिखे जा रहे हैं उनमे गिरावट आई है। फिल्मों में जिस तरह के गाने लिखवाने की बात की जाती है वो मुझे मंज़ूर नहीं'

मुशायरे के निरंतर गिरते स्तर से भी राहत खुश नहीं हैं। उनका कहना है- 'आज मुशायरे के स्तर में गिरावट की बड़ी वजह बाज़ार का हावी होना है। वहाँ पर भी क्वालिटी से समझौता हो रहा है। मुशायरों को तीसरे दर्जे के शायरों ने नुक्सान पहुंचाया है। गैर ज़िम्मेदार शायर मुशायरों को चौपट कर देते हैं। शायरी बिना मेयार और सलीके के नहीं होती। मुशायरों में नाचने और गाने वालों का काम नहीं है कि किसी के भी हाथ में माइक पकड़ा दिया जाए। मुशायरों में अच्छी शायरी पर जोर होना चाहिए।
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2- शायर मुनव्वर राना [Munawwar Rana]
Munawwar_Rana मुनव्वर राना का जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली ज़िले में 26 नवंबर 1952 को हुआ था। रायबरेली शहर से मुनव्वर राना जी के खानदान का सम्बन्ध करीब 700 साल से है। परिवार में शायरी का शौक सबको था लेकिन शायरी कोई नहीं करता था। वालिद को भी शायरी सुनने का शौक था। शुरू-शुरू में मुनव्वर कलकत्ते में अपने कालेज के प्रोफ़ेसर एजाज को अपना लिखा दिखाते रहते थे। प्रोफ़ेसर एजाज के गुजर जाने के बाद उन्ही दिनों मुनव्वर जी की 'वाली आसी' से मुलाकात हुई। तब मुनव्वर अली आतिश के नाम से लिखते थे। उन्होंने ही मुनव्वर राना नाम दिया।

राना साहब की शायरी में जहाँ दर्द का एहसास है, खुद्दारी है, वहीं 7 munawwar ranaऱिश्तों का एहतराम भी है। उन्होंने रिश्तों की अच्छाई और बुराई को अपने शेरों में तोला है। बुज़ुर्गों के बारे में वो बड़ी बेबाकी से कहते है– खुद से चलकर नहीं ये तर्ज़े सुखन आया है, पांव दाबे है बुज़ुर्गों के तो फन आया है। अधिकतर शायरों ने ‘औरत’ को सिर्फ़ महबूबा समझा। मगर मुनव्वर राना ने औरत को औरत समझा। औरत जो बहन, बेटी और माँ होने के साथ साथ शरीके-हयात भी है। उनकी शायरी में रिश्तों के ये सभी रंग एक साथ मिलकर ज़िंदगी का इंद्रधनुष बनाते हैं। मुनव्वर राना की शायरी का ताना-बाना ज़िंदगी के रंग बिरंगे रेशों, सच्चाइयों और खट्टे-मीठे अनुभवों से बुना गया है। उनकी शायरी में रिश्तों की एक ऐसी सुगंध है जो हर उम्र और हर वर्ग के आदमी के दिलो दिमाग पर छा जाती है।
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मुनव्वर राना की सादगी हमेशा से ही बाँध लेती रही है। वे बड़ी ही मासूमियत से बड़ी बड़ी बातें कह जाते हैं। एक शेर में वो ज़िंदगी की दौड़ में सबसे पीछे रह जाने वाले वर्ग की बात कहते हैं - 'सो जाते हैं फुटपाथ पे अख़बार बिछाकर मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते
।'
वे हिंदुस्तान के ऐसे अज़ीम-ओ-शान शायर हैं जिसने ‘माँ’ की शख़्सियत को ऐसी बुलंदी दी है जो पूरी दुनिया में बेमिसाल है –

'इस तरह मेरे गुनाहों को धो देती है माँ बहुत गुस्से में हो तो रो देती है'
'अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा, मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है'
'मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ'
'माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना जहाँ बुनियाद हो इतनी नमीं अच्छी नहीं होती'

मुनव्वर जी के इन शेरों के आगे…माँ पर उनसे बेहतर उर्दू शायरी में और कहीं शेर देखने को नहीं मिलते. बिना थोथी भावुकता के वो ऐसे नायाब शेर निकालते हैं की तबियत बाग बाग हो जाती है… आँखें नम और मुंह से बरबस वाह वा…निकल पड़ती है. ये शेर जब वो अपने अंदाज़ में सुनते हैं तो देखते ही बनता है… मुशायरे और काव्य-गोष्ट्ठियों में कहकहे और ठहाके तो अक्सर सुनाई देते है पर आखों में नमी, मुनव्वर राना जैसे हुनरमंद ही ला पाते है।

राना साहब फरमाते हैं - 'जब तुलसीदास के महबूब राम हो सकते 0हैं तो मेरी महबूबा मेरी मां क्यों नहीं हो सकती। फिर हम एक ऐसे खुशनसीब मुल्क के रहने वाले है जहां गंगा और जमुना तक को मां कहा जाता है, सरस्वती और दुर्गा को मां कहा जाता है, हम अब तक तो गाय को भी मां समझते थे, लेकिन कालोनी कल्चर आते ही हम मां को भी गाय समझने लगे। हम मां पर शायरी करते है तो यह सिर्फ शायरी नहीं है, यह ओल्ड एज होम के खिलाफ ऐलाने-जंग है।

यह उनका माँ से मोहब्बत का ज़ज्बा था, उनकी सोच की गहराई थी, रिश्तों का एहसास था जो उन्होंने अपनी पुस्तक ” माँ ” को किसी को भेंट देते वक्त, उस पर औटोग्राफ देने से यह कह कर मना कर दिया – “माफ़ कीजिए, मैं माँ पर दस्तखत नही करता।”

munawwar rana अपनी किताब ‘माँ‘ में मुनव्वर साहब कहते है–” बचपन में मुझे सूखे की बीमारी थी, शायद इसी सूखे का असर है कि आज तक मेरी ज़िन्दगी का हर कुआँ खुश्क है, आरजू का, दोस्ती का, मोहब्बत का, वफ़ादारी का ! माँ कहती है बचपन में मुझे हँसी बहुत आती थी, हँसता तो मैं आज भी हूँ लेकिन सिर्फ़ अपनी बेबसी पर, अपनी नाकामी पर, अपनी मजबूरियों पर लेकिन शायद यह हँसी नहीं है, मेरे आँसुओं की बिगड़ी हुई तस्वीर है

गजल की कामयाबी को नए ढंग से अंजाम देने वाले राना आज मुशायरों के बादशाह है। उनके गजल लिखने और पढ़ने का ढंग बेहद सादा किंतु पुरअसर है। उनकी गजलें न तो उर्दू शायरी की रवायत की हमराह दिखती है न उनमें अलंकरण की नक्काशी नजर आती है। मुनव्वर राना साहब अपनी शायरी में इंसानी तक़ाज़ों को कभी दरकिनार नहीं करते।
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क्विज में दिए गए दोनों शायरों को मुशायरे में सुनिए
शायर राहत इन्दौरी
शायर मुनव्वर राना
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"सी.एम.ऑडियो क्विज़- 9" के विजेता प्रतियोगियों के नाम
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जिन प्रतियोगियों ने एक जवाब सही दिया
applause applause applause समस्त
विजताओं को बधाईयाँ
applause applause applause
applause applause applause applauseapplauseapplauseapplause applause applause applause
आशा है जो इस बार सफल नहीं हुए वो आगामी क्विज में अवश्य सफल होंगे
आप सभी का हार्दिक धन्यवाद

यह आयोजन मनोरंजन के साथ साथ ज्ञानवर्धन का एक प्रयास मात्र है !

अगर आपके पास कोई सुझाव हो तो हमें ज़रूर ई-मेल करें!
अंत में हम सभी प्रतियोगियों और पाठकों का पुनः आभार व्यक्त करते हैं
जिन्होंने क्रियेटिव मंच की क्विज़ में शामिल होकर हमारा उत्साह बढाया.
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27 फरवरी 2011, रविवार को हम ' प्रातः दस बजे' एक नई क्विज के साथ यहीं मिलेंगे !

सधन्यवाद
क्रियेटिव मंच
The End
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रविवार, 20 फ़रवरी 2011

सी.एम.ऑडियो क्विज़ [क्रमांक- नौ] - "सुनें और बताएं"

'life is short, live it to the fullest'

सभी साथियों/पाठकों/प्रतियोगियों को सप्रेम नमस्कार
'सी.एम.ऑडियो क्विज़- 9' कार्यक्रम में आप का स्वागत है।

आज इस श्रृंखला की नवीं कड़ी में हम आपको
दो मकबूल शायरों की
ऑडियो क्लिप सुनवा रहे रहे हैं।
आप नीचे दी हुयी दोनों आडियो क्लिप्स को बहुत ध्यान से सुनकर
पूछे गए प्रश्नों के सही जवाब दीजिये।


आधा-अधूरा जवाब मान्य नहीं होगा।
कृपया प्रतियोगी जवाब के रूप में कहीं का भी लिंक न दें।

सही जवाब देने की समय सीमा सोमवार, 21 फरवरी दोपहर 2 बजे तक है।

इन दो आडियो क्लिप्स को ध्यान से सुनकर बताईये कि :
Q.1- यह किस शायर की आवाज है ?
Q.2- यह किस शायर की आवाज है ?
आप दोनों प्रश्नों के जवाब अलग अलग टिप्पणियों में लिख सकते हैं,
जिससे गलत टिप्पणी को प्रकाशित करने में आसानी होगी।
सूचना :
आपका जवाब आपको यहां न दिखे तो कृपया परेशान ना हों ! माडरेशन ऑन रखा गया है, इसलिए केवल ग़लत जवाब ही प्रकाशित किए जाएँगे ! सही जवाबों को समय सीमा से पूर्व प्रकाशित नहीं किया जाएगा ! जवाब देने की समय सीमा कल यानि सोमवार दोपहर 2 बजे तक है ! उसके बाद आये हुए जवाब को प्रकाशित तो किया जाएगा किन्तु परिणाम में शामिल करना संभव नहीं होगा ! क्विज़ का परिणाम कल यानि सोमवार को रात्रि 7 बजे घोषित किया जाएगा !
----- क्रिएटिव मंच


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मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

रेखाओं के अप्रतिम जादूगर--श्री काजल कुमार जी







हमारे देश, समाज और राजनीति को समझाने का जो काम बीसियों पन्‍नों के अख़बार नहीं कर पाते, वो काम एक कार्टूनिस्ट अपने थोड़ी सी जगह में अपने कार्टून के जरिये बेहद सहजता से कह देता है। आम जीवन में हम अगर अखबार के कोने में कार्टून न देखें तो खालीपन सा लगता है। अच्छे कार्टून उस भाषा और समाज को दर्पण दिखाने का काम करते हैं और उसकी प्रगति भी बताते हैं। काटूनों में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक जीवन का जटिल सच, पूरी अर्थवत्ता के साथ शब्दों एवं रेखाओं के माध्यम से व्यक्त होता है। कार्टून, वस्तुतः सबवर्ज़न का एक जरिया है। वह ह्यूमर के जरिये सीधे तौर पर समाज में जो कुछ घट रहा है उस पर विद्रोही दृष्टि डालता है। सर्वोच्च पद पर विराजमान अथवा सत्ता में बैठे किसी भी महत्वपूर्ण व्यक्ति की आलोचना करनी हो, तो कार्टून उसका एक बेहद स्वस्थ और रचनात्मक माध्यम है।

अगर कार्टून कला का इतिहास देखा जाए तो भारत में कार्टून कला की शुरुआत ब्रिटिश काल में मानी जाती है और केशव शंकर पिल्लई को भारतीय कार्टून कला का पितामह कहा जाता है। शंकर ने 1932 में हिंदुस्तान टाईम्स में कार्टून बनाना प्रारम्भ किए। शंकर के अलावा कुट्टी मेनन, रंगा, आर.के. लक्ष्मण, काकदृष्टि, चंदर, सुधीर दर, अबू अब्राहम, प्राण कुमार शर्मा, आबिद सुरती, सुधीर तैलंग, राजेंद्र धोड़पकर, इरफान, पवन, मंजुल इत्यादि ऐसे नाम है जिन्होंने भारतीय कार्टून कला को आगे बढाया और पहचान दी। आज भारत में हर प्रान्त और भाषा में कार्टूनिस्ट काम कर रहे हैं।
सीधी रेखाओं को यहाँ-वहाँ घुमा कर गागर में सागर भर देने की काबिलियत रखने वाले एक सवेंदनशील कार्टूनिस्ट जिनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इनके कार्टूनों में समय, समाज और राजनीति की सटीक अनुगूंज हमें मिलती हैं। इनके सृजन का पैनापन बेहद प्रभावशाली होता है।
जी हाँ,
ये हैं बेहद चर्चित हम सबके लिए सुपरिचित कार्टूनिस्ट काजल कुमार जी, जिनका हमने हाल ही में साक्षात्कार लिया। एक कार्टूनिस्‍ट को हर रोज़ एक अलग आइडिया से पाठकों को गुदगुदाना होता है। इस तरह एक कार्टूनिस्ट का काम सृजनात्मक भी है और चुनौती भरा भी। हमने बातचीत के जरिये काजल जी के इस रोचक सफर में झाँकने की कोशिश की। लीजिये आप भी पढिये हमारे सवाल और उनके जवाब -
परिचय
जन्म स्थान : ऊना, हिमाचल प्रदेश
वर्तमान निवास : नई दिल्ली
विशेष अभिरुचियाँ : कार्टून, कुछ हिन्दी पत्रिकाएं, इन्टरनेट सर्फिंग, आउटडोर खेल, लॉन्ग ड्राइव सैर, ढेर सारा विविध संगीत, खूब सोना.....



कार्टून
झलकियाँ
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INLATION
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SMAAJ SEWAK
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सवाल : आप कार्टून कब से बना रहे हैं ?
0- कार्टून बनाना मैंने कालेज के ज़माने में शुरू किया. हालांकि चित्रकला में रूचि बचपन से ही थी पर कार्टून बनाने के बारे में कभी नहीं सोचा था.

सवाल : आपके कार्टूनिस्ट बनने की कहानी क्या है ?

0- हा हा हा… इसके पीछे कोई कहानी नहीं है. वास्तव में ही कोई कहानी नहीं है. सिवा इसके कि ‘विचार’ बिजली की सी मार करने वाला होता है अब आप इसे चाहे कविता/ग़ज़ल में कह लें, या फिर इसके ठीक उलट, चाहे गाली में. ठीक यही इन्टेंसिटी कार्टून बनाने के पीछे होती है. इसके बाद, कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचनी भर आनी चाहिये….बस्स.

सवाल : अब तक आप लगभग कितने कार्टून बना चुके होंगे ?

उ0 - आह ! कुछ पता नहीं … शायद हज़ारों.

सवाल : वैसे तो आपके बनाए बेशुमार कार्टून हैं जिनकी तारीफ़ की गई, फिर भी जहन में अपना बनाया कोई ख़ास कार्टून जिसे ख़ास सराहना मिली हो, कोई याद आता है ?
0- नहीं ऐसा कुछ विशेष तो याद नहीं आता…पर हां, समय-समय पर अलग-अलग कार्टून अपनी महत्ता रखते आए हैं. (मैं यूं भी याददाश्त को ज़्यादा कष्ट देने में खास भरोसा नहीं रखता :-)).

सवाल : क्या आप हमें बताएँगे कि आपके कार्टून कहाँ-कहाँ प्रकाशित हो चुके हैं ?
0- ये सबसे कठिन सवालों में से एक है. कहां से शुरू करूं …लगभग 25 साल तक तो हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका ‘लोटपोट’ के लिए ही दो फ़ीचर ‘चिंप्पू’ और ‘मिन्नी’ लगातार बनाए. साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, नवनीत, सत्यकथा, मेला, बाल भारती, Children’s World…. और भी न जाने कहां-कहां बल्कि सच तो यह है कि जिस भी पत्र-पत्रिका को फ़्रीलांसरों से परहेज़ नहीं होता था वहां-वहां कार्टून छपते ही रहते थे. वह भी एक समय था जब कार्टून बनाना एक नशे की तरह था :-)

सवाल : आप किसी कार्टून का सृजन कैसे करते हैं .. मतलब प्रोसीजर क्या है ? क्या कोई ख्याल आते ही कुछ नोट्स वगैरह लिख लेते हैं या तुरंत ही निर्माण में जुट जाते हैं ?
0- आमतौर से विचार को नोट करके रख लेना और फिर बाद में आराम से, जब भी मूड हो, कार्टून बनाना ही मेरी रचना प्रक्रिया का पर्याय है. लेकिन हां, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आप उसी वक्त कार्टून बनाना चाहते हैं.

सवाल : कई बार कोई कार्टून विवाद का मुद्दा भी बन जाता है ! यह अनायास ही हो जाता है या लाईम लाईट में आने अथवा सनसनी बनाने के लिए क्रियेट किया जाता है ?
0- लाईम लाईट में आने का सही तरीक़ा केवल ईमानदारी से मेहनत करना ही है पर हां, आज के बदल रहे परिवेश में सनसनी टाइप काम करने से भी लोगों को परहेज़ नहीं होता है, भले ही व्यक्तिगत रूप से मैं इसे दु:खद मानता हूं.

सवाल : हर कलाकार का कोई न कोई आईडियल होता है. आप किससे प्रभावित रहे ?
0- हम्म्म… शायद मैं इस मामले में कुछ स्वतंत्र सा रहा हूं पर हां मारियो मिरांडा व अजीत नैनन का काम मुझे नि:संदेह बहुत पसंद आता है. मैं इनके काम का फ़ैन हूं. केवल रेखाचित्र ही नहीं, उनका pun भी बीहड़ रहता आया है. लेकिन यह तय है कि मैं इनकी जितनी मेहनत नहीं कर सकता :-)

सवाल : क्या किसी पुराने कार्टूनिस्ट का कोई ऐसा कार्टून है जो आपके दिलो दिमाग में आज भी बसा हो ?
0- मुझे तो कई बार अपने ही बनाए कार्टून देख कर हैरानी होती है… अरे ! ये कब बनाया ! कुछ मुश्किल सा है इस समय याद करना. वास्तव में, एक समय के बाद आप किसी की भी कला-शैली के अभ्यस्त हो जाते हैं, ऐसे में किसी चित्र-विशेष का कोई बहुत अधिक महत्व नहीं रह जाता.

सवाल : कार्टूनिस्ट के रूप में लम्बी और सशक्त पारी खेलने का मूल-मंत्र क्या है ?
0- आपके भीतर एक ग़ज़ब का गुस्सैल लेकिन शरारती और एकदम मस्त बच्चा हमेशा खेलता रहना चाहिये …बस्सस. साथ ही साथ, हर रोज़ सीखते रहने से भी कार्टूनिंग में मज़ा बना रहता है.

सवाल : एक अच्छे कार्टूनिस्ट की परिभाषा आपके दृष्टिकोण से क्या है ?
0- जो piercing धारदार बात कहता हो, उठा कर धड़ाम से पटक देता हो चारों-खाने चित.

सवाल : हमने सुना है कि आप आवाज़ की दुनिया से भी जुड़े हैं .क्या यह सच है ?
0- :-) अब मैं स्वयं को कई बातों के संदर्भ में भूतपूर्व मानता हूं व नए लोगों के नए-नए प्रयोगों में खूब आनंद लेता हूं. प्रसारण भी एक ऐसी ही विधा रही जिससे जुड़ कर, एक समय मैंने पर्याप्त आनंद पाया. आजकल मैं एक अच्छा श्रोता हूं.

सवाल : भारत में आज भी इस कला को वह पहचान नहीं मिली जो विदेशों में इस कला को मिली है,ऐसा क्यूँ ? उदाहरण के लिए दुबई में ग्लोबल विलेज में हमारा एक रंगीन कार्टून ओन स्पोट बना कर देने वाले कलाकार प्रति व्यक्ति साठ दिरहम चार्ज करते हैं.
0- शायद खुद पर हंसना, हमें अभी भी सीखना है. हमारे यहां लोग कार्टूनिस्ट से अपना कार्टून बनवाने की ज़िद तो कर लेते हैं पर अधिकांशत: मन में पोर्टेट देखने की इच्छा रखते हैं. इसके अलावा भी बहुत से कारण हैं जैसे, हमारे यहां किसी भी चीज़ की मार्केटिंग का रिवाज नहीं रहा है. मसलन प्रकाशकों को ही ले लीजिए, वे बस कुछ भी छाप देना भर ही इतिश्री मान लेते हैं जबकि विकसित देशों में प्रकाशन से कहीं ज़्यदा पैसा, नीति के अंतर्गत, किताब के प्रचार-प्रसार में लगाया जाता है यही हाल कार्टूनिंग का है. कार्टून-प्रदर्शनी से कार्टून ख़रीद कर कोई अपने दफ़्तर/ड्राईंगरूम में लगाएगा, सोचना मुश्किल लगता है, कई सीमाएं भी हैं इस कला की.

कार्टून चरित्र को प्रचारित करने में भी अथाह मेहनत की उम्मीद की जाती है. मुझे याद नहीं कि किसी पत्रिका की डमी में कार्टून भी रखा जाता हो. संपादकीय लिखने वालों का स्थान समाचार-पत्र में खासा अच्छा होता है पर एक कार्टून में पूरा संपादकीय कह देने वाले कार्टूनिस्ट को वही स्थान देने की सोच स्वीकार करने में ही बहुत समय लग जाता है. प्रकाशन-प्रसारण के धंधे वाले लोगों में कार्टूनिंग के प्रति समुचित रूचि नहीं दिखती. इस क्षेत्र में सिंडीकेशन के बारे में लोग सोचते तो हैं पर कोई समुचित प्रयास नहीं किया जाता कि पूरे देश के विभिन्न प्रकाशनों में इन्हें समुचित रूप से वितरित भी किया जाए. सिंडीकेशन भी आधा-अधूरा प्रयास होता है, न कि व्यवसायिक उपक्रम. लोग उम्मीद करते हैं कि कार्टूनिस्ट ख़ुद ही सिंडीकेशन भी चलाए. कामिक्स तक को प्रचारित करने का कोई समुचित प्रयास नहीं किया जाता. हैरी पाटर को आज पूरी दुनिया जानती है, चंद्रकांता संतति को हिन्दी भाषी ही जान लें तो भी बहुत…दोनों ही कल्पना की उड़ान हैं, बस मार्केटिंग का आंतर है.

सवाल : एक रोचक बात ओब्सेर्व की गयी है कि अधिकतर कार्टूनिस्ट पुरुष ही हैं महिलाएं नहीं ,ऐसा क्यूँ ?
0- मैंने तो कभी ध्यान ही नहीं दिया था इस बात पर. लेकिन आपकी बात है सही. उंहु… पर कुछ नहीं कह सकता कि ऐसा क्यों है. पेंटिंग में तो एक से एक बढ़िया महिला कलाकार हैं. नि:संदेह महिलाओं को इस क्षेत्र में भी अवश्य आना चाहिये.

सवाल : नई तकनीक आने के बाद अब एक कार्टूनिस्ट का काम कितना आसान हुआ है ?
0- जी एकदम. कार्टूनिंग में कुछ काम ऐसे हैं जिन्हे करना मैंने कभी पसंद नहीं किया जैसे चित्र के चारों ओर की लाइनें खींचना, कार्टूनों में संवाद लिखना व संवादों के चारों ओर balloon बनाना. तकनीक ने इस नीरस काम से मुझे उबार लिया है. इसी तरह, चित्रों को रंगीन करना भी कहीं अधिक सुगम हो गया है. मुझ जैसे आरामपसंद आदमी के लिए तो यह तकनीक एक वरदान है. आज चित्रों को स्कैन कर ई-मेल से भेजना कहीं अधिक आसान रास्ता है, मूल कार्टून भी आपके पास ही रहता है, वर्ना पहले डाक में ही कार्टून की भद पिट जाती थी. कंप्यूटर व इनके साफ़्टवेयर बनाने वालों को बहुत बहुत धन्यवाद. भगवान इन्हें हर सुख दे :-)

सवाल : आज के दौर में 'एज ए प्रोफेशन' कार्टूनिस्ट का क्या स्कोप है ?
0- भारत में आज भी इसका स्कोप कोई बहुत बेहतर तो नहीं ही है हां, नए नए प्रयोग होते रहने के चलते openings पहले से ज़्यादा हैं. लेकिन, लोगों को अभी भी समझने में समय लगेगा कि चुटकुला और कार्टून, दो एकदम अलग चीजें हैं. यह एक बहुत stressful काम है इसलिए संयत बने रहने के प्रति जागरूकता बहुत ज़रूरी है.
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नीचे आप काजल जी द्वारा बनाए गए कुछ और बेहतरीन कार्टून स्लाईड शो के माध्यम से देख सकते हैं :>

काजल कुमार जी ने जिस आत्मीयता के साथ हमें साक्षात्कार में सहयोग दिया और कार्टून से सम्बंधित आवश्यक जानकारी दी, उसके लिए क्रिएटिव मंच ह्रदय से काजल जी का आभार व्यक्त करता है
हार्दिक शुभ-कामनाएं
The End