[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 4]
Film - The Lunch Box (2013)
Film - The Lunch Box (2013)
समीक्षक - रोहित यादव जी
तलाश एक टुकड़ा ज़िंदगी का
बहरहाल फिल्म से पहले एक कहानी सुनिये- अमेरिका में एक अप्रवासी भारतीय अपनी रोजमर्रा की कॉर्पोरेट वाली नौकरी से आजिज आ गया है, वो नौकरी छोड़ कर एक फिल्म स्कूल में प्रवेश लेता है और उसी मे पढ़ाई के दौरान उसकी एक पटकथा पर रॉबर्ट रेडफोर्ड की नजर पड़ती है। उस अप्रवासी भारतीय को मौका मिल जाता है फिल्म क्षेत्र मे रह कर अपनी कला को निखारने का मौका मिल जाता है. वो फिल्म स्कूल छोड़ देता है और वो कुछ 10-12 लघु फिल्मों का निर्माण करता है, जिन्हें कुछ अच्छे फिल्म उत्सवों पर पहचान मिलती चली जाती है. फिर वो 2007 में मुम्बई आता है मुम्बई के “डिब्बावालों” पर एक वृत्तचित्र का निर्माण करने के लिये, वो डिब्बों वालों के साथ पूरा एक हफ्ता बिताते है और उन्हे कुछ किस्से पता चलते है कि कैसे इन डब्बेवालों को हर घर के कुछ ना कुछ राज़ पता है गोयाकि हर लंचबॉक्स कुछ कहता है। कैसे एक घर में सिर्फ सास की चलती है, एक पत्नी रोज खाने के डिब्बे में अपने पति के लिये एक चिठ्ठी भेजती है। कैसे एक पत्नी रोज एक ही तरह का खाना भेजती है। इन सबको सुनने के बाद उस अमेरिकी भारतीय को लगा की अरे यहाँ तो एक पूरी की पूरी गाथा इंतज़ार कर रही है अपने सुनाये जाने का, और इसके बाद से तक़रीबन साढ़े चार साल तक मेहनत से एक पटकथा लिखी गई और हमारे सामने “दि लंचबॉक्स” और वो अमेरिकी भारतीय रितेश बत्रा आये जिन पर आज सभी को नाज़ हो रहा है।
जिन डिब्बेवालों का मजाक मुम्बईया फिल्मकारों ने जाने अनजाने उड़ाया जरूर होगा, उन्ही डिब्बे वालों ने ऐसी फिल्म का आईडिया दे दिया कि जिसे ऑस्कर पर ना भेजे जाने पर पूरा देश (मीडिया) छाती कूट कर रो रहा है। कितनी अजीब बात है कि हमारे हिन्दी फिल्मकार ए.सी. कमरों में बंद हो कर ज़मीनी यथार्थ से दूर होते हुये अपनी फिल्मों मे तथाकथित हॉलीवुड के स्तर के विजुअल इफेक्टस ला रहे है, पर भावनात्मक इफेक्टस से कोसों दूर होते जा रहे है। वही काम जब कोई दूसरा हॉलीवुड से आकर कर रहा है तो आप तालियाँ बजाते नही थक रहे है। कहीं ऐसा तो नही की ए.सी. ने हमारे फिल्मकारों की खिड़कियाँ बंद करवा कर उन्हें एक भ्रम में रखा हुआ है। ये फिल्म, फिल्म उत्सवों मे तो सराही ही गयी है और इसे विदेशों में भी व्यवसायिक सफलता मिली है। कांस फिल्म उत्सव में ही सोनी पिक्चर्स क्लासिक ने उत्तरी अमेरिका के लिये, इस फिल्म के वितरण अधिकार खरीदे है।
बहरहाल जब आप इस बात से दुखी हो रहे होते है कि अब शुद्ध देसी रोमांस में भी प्रेमी प्रेमिका पहली ही मुलाकात में “किस” करते हुये, अगले हफ्ते में बिस्तर से होते हुये, कुछ ही महीनों में एक दूसरे से भागने की कोशिश करते हुये दिखाई दे रहे है, तो क्या होगा उन चरित्रों का जो कैसेट लगा कर 'साजन' फिल्म के गाने सुनते है, क्योंकि उसके अनदेखे प्रेमी का नाम साजन है। जहाँ शार्ट वेव में भूटानी रेडियो चैनल लगा कर भूटानी गाना इसलिये सुना जाता है क्योंकि आपकी संभावित प्रेमिका को भूटान बहुत पसंद है। जहाँ आज भी लोग ओरियेंट पंखे की मिसाल देने की बातें करते है। जहाँ ‘ये जो है ज़िंदगी’ देख कर जीवन और रिश्तों की गहराई समझने की कोशिश की जाती है। जहाँ आज भी अपनी बेटी के पति से 5000 रूपये की मदद लेना बहुत बड़ी बात है, पर आपको मजबूरी में लेने ही पड़ते है,. और ऐसे में आप खुद को इन सब के बीच पाते है और समझ ही नही पाते कि कैसे ये लोग आपको ये समझा रहे है कि आज कोमा मे पड़े हुये इंसान और चौबीसों घंटे काम काम की रट लगाने वालों के बीच अब कोई फर्क़ नही रह गया है।
तलाश एक टुकड़ा ज़िंदगी का
“हम बहुत सी चीजें भूल जाते है क्योंकि हमारे आस पास कोई होता नही जिससे हम उनके बारे में बात कर सके।” रितेश बत्रा के लिखे इस संवाद को सुनने के बाद भी अगर फिल्म के बारे मे नही लिखता तो मेरा फिल्मों के बारे मे पढ़ना, लिखना और सुनना सब बेकार है। चारों तरफ रोना मचा हुआ है कि “दि लंचबॉक्स” को ऑस्कर में ना भेज कर भारत इतनी बड़ी गलती कर दी है, कि आने वाला इतिहास कभी माफ नही करेगा. दरअसल पश्चिम जब तक हमारी फिल्मों को सम्मान नही देगा, हमें पता ही नही चलेगा कि अरे !!!! लंचबॉक्स तो इतनी अच्छी फिल्म थी। आस्कर के प्रति हमारी हवस आप इस बात से भी समझ सकते है कि ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ जो आधिकारिक तौर पर ब्रिटेन के फिल्ममेकर की फिल्म थी उसे आस्कर मिलने पर भारत मे होली तकरीबन एक महीना पहले मना ली गई थी। हमारे हर मानकों का मापदंड वैसे भी आजकल पश्चिम ही परिभाषित कर रहा है।
बहरहाल फिल्म से पहले एक कहानी सुनिये- अमेरिका में एक अप्रवासी भारतीय अपनी रोजमर्रा की कॉर्पोरेट वाली नौकरी से आजिज आ गया है, वो नौकरी छोड़ कर एक फिल्म स्कूल में प्रवेश लेता है और उसी मे पढ़ाई के दौरान उसकी एक पटकथा पर रॉबर्ट रेडफोर्ड की नजर पड़ती है। उस अप्रवासी भारतीय को मौका मिल जाता है फिल्म क्षेत्र मे रह कर अपनी कला को निखारने का मौका मिल जाता है. वो फिल्म स्कूल छोड़ देता है और वो कुछ 10-12 लघु फिल्मों का निर्माण करता है, जिन्हें कुछ अच्छे फिल्म उत्सवों पर पहचान मिलती चली जाती है. फिर वो 2007 में मुम्बई आता है मुम्बई के “डिब्बावालों” पर एक वृत्तचित्र का निर्माण करने के लिये, वो डिब्बों वालों के साथ पूरा एक हफ्ता बिताते है और उन्हे कुछ किस्से पता चलते है कि कैसे इन डब्बेवालों को हर घर के कुछ ना कुछ राज़ पता है गोयाकि हर लंचबॉक्स कुछ कहता है। कैसे एक घर में सिर्फ सास की चलती है, एक पत्नी रोज खाने के डिब्बे में अपने पति के लिये एक चिठ्ठी भेजती है। कैसे एक पत्नी रोज एक ही तरह का खाना भेजती है। इन सबको सुनने के बाद उस अमेरिकी भारतीय को लगा की अरे यहाँ तो एक पूरी की पूरी गाथा इंतज़ार कर रही है अपने सुनाये जाने का, और इसके बाद से तक़रीबन साढ़े चार साल तक मेहनत से एक पटकथा लिखी गई और हमारे सामने “दि लंचबॉक्स” और वो अमेरिकी भारतीय रितेश बत्रा आये जिन पर आज सभी को नाज़ हो रहा है।
जिन डिब्बेवालों का मजाक मुम्बईया फिल्मकारों ने जाने अनजाने उड़ाया जरूर होगा, उन्ही डिब्बे वालों ने ऐसी फिल्म का आईडिया दे दिया कि जिसे ऑस्कर पर ना भेजे जाने पर पूरा देश (मीडिया) छाती कूट कर रो रहा है। कितनी अजीब बात है कि हमारे हिन्दी फिल्मकार ए.सी. कमरों में बंद हो कर ज़मीनी यथार्थ से दूर होते हुये अपनी फिल्मों मे तथाकथित हॉलीवुड के स्तर के विजुअल इफेक्टस ला रहे है, पर भावनात्मक इफेक्टस से कोसों दूर होते जा रहे है। वही काम जब कोई दूसरा हॉलीवुड से आकर कर रहा है तो आप तालियाँ बजाते नही थक रहे है। कहीं ऐसा तो नही की ए.सी. ने हमारे फिल्मकारों की खिड़कियाँ बंद करवा कर उन्हें एक भ्रम में रखा हुआ है। ये फिल्म, फिल्म उत्सवों मे तो सराही ही गयी है और इसे विदेशों में भी व्यवसायिक सफलता मिली है। कांस फिल्म उत्सव में ही सोनी पिक्चर्स क्लासिक ने उत्तरी अमेरिका के लिये, इस फिल्म के वितरण अधिकार खरीदे है।
बहरहाल जब आप इस बात से दुखी हो रहे होते है कि अब शुद्ध देसी रोमांस में भी प्रेमी प्रेमिका पहली ही मुलाकात में “किस” करते हुये, अगले हफ्ते में बिस्तर से होते हुये, कुछ ही महीनों में एक दूसरे से भागने की कोशिश करते हुये दिखाई दे रहे है, तो क्या होगा उन चरित्रों का जो कैसेट लगा कर 'साजन' फिल्म के गाने सुनते है, क्योंकि उसके अनदेखे प्रेमी का नाम साजन है। जहाँ शार्ट वेव में भूटानी रेडियो चैनल लगा कर भूटानी गाना इसलिये सुना जाता है क्योंकि आपकी संभावित प्रेमिका को भूटान बहुत पसंद है। जहाँ आज भी लोग ओरियेंट पंखे की मिसाल देने की बातें करते है। जहाँ ‘ये जो है ज़िंदगी’ देख कर जीवन और रिश्तों की गहराई समझने की कोशिश की जाती है। जहाँ आज भी अपनी बेटी के पति से 5000 रूपये की मदद लेना बहुत बड़ी बात है, पर आपको मजबूरी में लेने ही पड़ते है,. और ऐसे में आप खुद को इन सब के बीच पाते है और समझ ही नही पाते कि कैसे ये लोग आपको ये समझा रहे है कि आज कोमा मे पड़े हुये इंसान और चौबीसों घंटे काम काम की रट लगाने वालों के बीच अब कोई फर्क़ नही रह गया है।
आपने वो एवरेस्ट मसाले वाला एड देखा है ना जिसमें एक पत्नी इस बात से परेशान है कि उसके पति रोज बाहर से खाना खा कर आ जाते है, दि लंच बॉक्स इस पत्नी की परेशानी को सतही तौर से भीतर उतर दिखाती है कि ऐसा हो क्यों रहा है, और फिल्म में इस महिला के दूसरे छोर पर एक ऐसा अधेड़ इंसान खड़ा है जो ग़म और खुशी मे फर्क़ महसूस नही करता और रोज उस भोजनालय में खाना खाता है जिन पर बड़े अक्षरों से लिखा होता है घर से बाहर घर की थाली। ये दोनों अपने अपने जीवन मे ज़िंदगी की तलाश कर रहे होते है, और एक दिन मुंबई के डिब्बावालों से बिल्कुल ना होने वाली गलती इन दोनो को मिला देती है।
एक लंचबॉक्स, जो इला (निम्रत कौर) ने अपने पति के लिये भेजा था पर गलती से इस अधेड़ साजन फर्नांडिस (इरफ़ान ख़ान) के ऑफिस डेस्क पर पहुँच गया है। दोनो ने कभी एक दूसरे को देखा तक नही है, पर फिर भी बातें एक माफीनुमा ख़त के साथ शुरू हो जाती है, (ख़त जिन्हें हम भुला चुके है, और बकौल शेख (नवाजुद्दीन सिद्दकी) अब तो सब ईमेल करते है ये तो कोई नही करता, और कहीं ना कहीं हम इंतज़ार कर रहे है कि कब सरकार इस बात की आधिकारिक घोषणा करेगी कि अब इस दिन से चिठ्ठियाँ नही भेजी जायेंगी, और फिर हम सब खत भेजेंगे, उनका फोटो खिंचवायेंगे और वो फोटो फेसबुक पर डाल कर लाईक और कमेंट कर सके) कि आपको लंचबॉक्स गलती से चला गया था, और आपको कैसा लगा मेरा बनाया हुआ खाना बस यही पूछने के लिये खत लिखा है और फिर से लंचबॉक्स भेजा है, और बदले में जवाब मिलता है कि “Dear Ila the food was very salty today”. बस यही बात रिश्ते की नींव बनती है और फिर हम सीन, शॉट तो बहुत दूर की बात फ्रेम दर फ्रेम यही सोचते रहते है कि ज़िंदगी और प्यार तो यही सब होते है, जो इरफान, निम्रत कौर और नवाज अपने शरीर के हर हिस्से और अपने हाव भावों से बता रहे होते है। अच्छा इंसान बनना, भीड़ भरे रेल के डिब्बे में भी मुस्कुराना, बेकरारी से लंचबॉक्स का इंतजार करना और ख़त पढ़ते वक़्त सबकी नज़रों से छुपने की कोशिश करना यही सब तो प्यार होता है ना??
इरफान खान, साजन फर्नांडिस के हाव भाव, उसकी बेचैन कर देने वाली खामोशी, उसका चिड़चिड़ापन, इन सब को वो जितने ही बेहतर तरीके से जज़्ब कर चेहरे पर लाते है उतने ही सलीके से वो साजन के प्यार में होने के बाद में उसे खुद को सुधारने की कोशिश करते हुये दिखाते है, खुदा का शुक्र है कि फिल्म में ये नही दिखाया कि हीरोईन के कहने पर ही हीरो अगले क्षण से ही सिगरेट को आसानी से छोड़ देता है। इला के रूप में निम्रत कौर ने अपने संवादो और अपने पानी से तरल अभिनय से उस अकेलेपन को दिखा दिया है जिसके लिये हमारी आँखें तरसी हुई थी उसका विद्रोह भी मन को खुश करता है। नवाज का किरदार शेख़ जो फिल्म में अपनी स्वर्गीय माँ को ज़िंदा कराता है क्योंकि उससे बातों मे वजन आता है। उसमें इस बात का गुस्सा है कि साजन उससे बात नही करना चाहते पर फिर भी वो पूरे आत्मविश्वास से रोज बात करता है, और उसमें इस बात का विश्वास भी है कि जब नाम तक खुद रखा है, तो बाकि भी सब खुद ही सीख लूंगा शेख़ कहीं ना कहीं फिल्म मे आशावाद का प्रतीक है, वो उन भारतीयों के प्रतीक है जो ये मानते है कि जैसा है जो है उसमें मैं अपनी ज़िंदगी भरपूर जी लूंगा।
रितेश बत्रा ने दो ध्वनि चरित्र भी रखे है एक है मिसेज देशपांडे (भारती आचरेकर) जिनकी आवाज ही काफी होती है सीन में जान डालने के लिये, और दूसरा है एक पुराने से रेडियो में संजीव कपूर की आवाज जो इला को नई नई रेसिपी बताती है, और उन पलों मे भी उसे समझा रही होती है कि आप अपने पति को इस नई डिश से कैसे मनाये। जब इला को अपने पति की शर्ट से आती हुई महक से पता चल रहा होता है कि उसके पति का बाहर कही अफेयर चल रहा है।
शहर को एक चरित्र के रूप में स्थापित करता हुआ नजर आता है फिल्म का संपादन (जॉन लॉयंस) इतना बेहतरीन है कि कुछ हिस्सों में फिल्म जब कुछ कदम आगे जाने के बाद जब वापस लौटती है तो आपको चौकाती है खाने के डिब्बों और खाने की महक से कैमरा तुरंत नही भागता, कट जल्दी-जल्दी नही लगते बल्कि आराम से और पूरे भाव को स्थापित करने के बाद संपादक की कैंची चलती है। जब आप ऑफ स्क्रीन आवाज पर चल रहे दृश्यों को देखेंगे तो समझ आता है कि कैसे विरोधाभास पैदा करते हुए भी दृश्य आपको अच्छे लग रहे होते है। स्टीफन लॉफर का ध्वनि मुद्रण (साऊंड डिजाईन) इतना मजबूत है कि कुछ जगह आपको लगता है कि आप कोई डाक्यूमेंट्री देख रहे है और सारे साऊंड दुबारा रिकार्ड किये ही नही गये है।
अब इस फिल्म का वितरण बड़े पैमाने पर करने के लिये करण जौहर की एक “आई हेट लव स्टोरी” माफ की जा सकती है। हमें खुश होना चाहिये कि हम अब ऐसे दौर मे है जहाँ सब तरह की फिल्में बन रही है, और उनमें से अब ऑफ बीट फिल्मों के निर्माताओं को इस बात का रोना नही है कि दर्शक नही है। बकौल अपूर्व शुक्ल जो फिल्मों की सामाजिक जाँच पड़ताल करते है वो कहते है कि “अगर आप समझते हैं कि आप सही हैं (रिश्ते निभाने में) तो ये फिल्म आपके लिए है। और अगर आपको लगता है, कि आप सही नहीं है, तब तो फिल्म आपके ही लिए है , जाईये...देखिये और रिश्तों की अहमियत को पुनर्परिभाषित कीजिये”, कुल मिला कर हम सभी को दि लंचबॉक्स जरूर देखना चाहिये। इस फिल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बढ़ा कर रितेश बत्रा और उनकी टीम को धन्यवाद ज्ञापन करना चाहिये और ऑस्कर का छाती कूट रुदाली रोना बंद करना चाहिये।
इरफान खान, साजन फर्नांडिस के हाव भाव, उसकी बेचैन कर देने वाली खामोशी, उसका चिड़चिड़ापन, इन सब को वो जितने ही बेहतर तरीके से जज़्ब कर चेहरे पर लाते है उतने ही सलीके से वो साजन के प्यार में होने के बाद में उसे खुद को सुधारने की कोशिश करते हुये दिखाते है, खुदा का शुक्र है कि फिल्म में ये नही दिखाया कि हीरोईन के कहने पर ही हीरो अगले क्षण से ही सिगरेट को आसानी से छोड़ देता है। इला के रूप में निम्रत कौर ने अपने संवादो और अपने पानी से तरल अभिनय से उस अकेलेपन को दिखा दिया है जिसके लिये हमारी आँखें तरसी हुई थी उसका विद्रोह भी मन को खुश करता है। नवाज का किरदार शेख़ जो फिल्म में अपनी स्वर्गीय माँ को ज़िंदा कराता है क्योंकि उससे बातों मे वजन आता है। उसमें इस बात का गुस्सा है कि साजन उससे बात नही करना चाहते पर फिर भी वो पूरे आत्मविश्वास से रोज बात करता है, और उसमें इस बात का विश्वास भी है कि जब नाम तक खुद रखा है, तो बाकि भी सब खुद ही सीख लूंगा शेख़ कहीं ना कहीं फिल्म मे आशावाद का प्रतीक है, वो उन भारतीयों के प्रतीक है जो ये मानते है कि जैसा है जो है उसमें मैं अपनी ज़िंदगी भरपूर जी लूंगा।
रितेश बत्रा ने दो ध्वनि चरित्र भी रखे है एक है मिसेज देशपांडे (भारती आचरेकर) जिनकी आवाज ही काफी होती है सीन में जान डालने के लिये, और दूसरा है एक पुराने से रेडियो में संजीव कपूर की आवाज जो इला को नई नई रेसिपी बताती है, और उन पलों मे भी उसे समझा रही होती है कि आप अपने पति को इस नई डिश से कैसे मनाये। जब इला को अपने पति की शर्ट से आती हुई महक से पता चल रहा होता है कि उसके पति का बाहर कही अफेयर चल रहा है।
शहर को एक चरित्र के रूप में स्थापित करता हुआ नजर आता है फिल्म का संपादन (जॉन लॉयंस) इतना बेहतरीन है कि कुछ हिस्सों में फिल्म जब कुछ कदम आगे जाने के बाद जब वापस लौटती है तो आपको चौकाती है खाने के डिब्बों और खाने की महक से कैमरा तुरंत नही भागता, कट जल्दी-जल्दी नही लगते बल्कि आराम से और पूरे भाव को स्थापित करने के बाद संपादक की कैंची चलती है। जब आप ऑफ स्क्रीन आवाज पर चल रहे दृश्यों को देखेंगे तो समझ आता है कि कैसे विरोधाभास पैदा करते हुए भी दृश्य आपको अच्छे लग रहे होते है। स्टीफन लॉफर का ध्वनि मुद्रण (साऊंड डिजाईन) इतना मजबूत है कि कुछ जगह आपको लगता है कि आप कोई डाक्यूमेंट्री देख रहे है और सारे साऊंड दुबारा रिकार्ड किये ही नही गये है।
अब इस फिल्म का वितरण बड़े पैमाने पर करने के लिये करण जौहर की एक “आई हेट लव स्टोरी” माफ की जा सकती है। हमें खुश होना चाहिये कि हम अब ऐसे दौर मे है जहाँ सब तरह की फिल्में बन रही है, और उनमें से अब ऑफ बीट फिल्मों के निर्माताओं को इस बात का रोना नही है कि दर्शक नही है। बकौल अपूर्व शुक्ल जो फिल्मों की सामाजिक जाँच पड़ताल करते है वो कहते है कि “अगर आप समझते हैं कि आप सही हैं (रिश्ते निभाने में) तो ये फिल्म आपके लिए है। और अगर आपको लगता है, कि आप सही नहीं है, तब तो फिल्म आपके ही लिए है , जाईये...देखिये और रिश्तों की अहमियत को पुनर्परिभाषित कीजिये”, कुल मिला कर हम सभी को दि लंचबॉक्स जरूर देखना चाहिये। इस फिल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बढ़ा कर रितेश बत्रा और उनकी टीम को धन्यवाद ज्ञापन करना चाहिये और ऑस्कर का छाती कूट रुदाली रोना बंद करना चाहिये।
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The End
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