मंगलवार, 25 अगस्त 2015

फ़िल्म मांझी - दि माउन्टेन मैन (2015) : यह कौन सा राष्ट्र है जहां दशरथ माझी रहता है (Film Review)

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 10]
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संध्या नवोदिता जी और संजय जोठे जी की कलम से लिखी गयी 
फिल्म- 'मांझी : दि माउन्टेन मैन' के बारे में दो बेहतरीन समीक्षाएं पढ़िए
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Film - Maanjhi : The Mountain Man
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समीक्षक : 
सुश्री संध्या नवोदिता
मैंने यह फिल्म रिलीज़ वाले दिन ही देखी. फिल्म देखकर सच मन में गुस्से का ज्वार सा उठता है। रात को ठीक से नींद नहीं आई और मैं सोचती रही जो लोग दसरथ को माउन्टेनमैन या पागल प्रेमी बना रहे हैं। वे इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के क्रूर हत्यारे चेहरे को एक रोमांटिसिज्म के नकाब में ढँक रहे हैं। दसरथ मांझी की कहानी
सब जानते हैं। जीतन राम मांझी के कारण आज सब यह जानते हैं कि मांझी बिहार की अतिदलित जाति है जिसके बहुतायत लोग आज भी चूहा खाकर जीने को विवश हैं, यह अतिदलित जाति बिहार के जैसे मध्ययुगीन सामंती राज्य व्यवस्था में सवर्ण सामंतों के भयानक दमन और उत्पीड़न का शिकार हुए हैं और आज भी हो रहे हैं. दसरथ माझी का जीवन जैसा भी फिल्म ने दिखाया बेहद उद्वेलित करता है, कई बार दिल जलता है और भीगता है।

हालांकि फिल्म इससे बेहतर दिखा सकती थी। कमजोर स्क्रिप्ट, अत्यधिक नाटकीयता कई बार बहुत इरिटेट करती है। लगता नहीं केतन मेहता की फिल्म है। फिर नवाज़ का अभिनय साध लेता है, टूटता पहाड़ इसे अपने कन्धों पर रोक लेता है। कई दृश्य तो बिलकुल नुक्कड़ नाटक की झलक हैं। इसके बावजूद फिल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए. तमाम कमियों, कमजोर पटकथा, बनावटी संवादों के बावजूद यह फिल्म एक एहसान है, क्योंकि यह फिल्म ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रीय पहचान दिलाती है, जिसे दुनिया के सबसे बड़े और मजबूत लोकतंत्र ने सिर्फ उपेक्षित ही नहीं किया, बल्कि उसे बहुत तकलीफ दी, बहुत पीड़ा दी,. बहुत अपमान दिया। 

मैं फिल्म देखती हूँ, दसरथ माझी पहाड़ को चुनौती दे रहा है... खून से सने कपड़े, उसकी चुनौती ..फिल्म का पहला सीन -- और डायलाग सुनते ही हॉल में दर्शकों का तेज ठहाका ! क्यों ? यह तो मार्मिक दृश्य है. दसरथ का दुःख क्रोध में रौद्र हो रहा है. पर दर्शक नवाज़ को देसी भाषा बोलते देख हंस रहा है. ऐसे और भी संवेदनशील दृश्य हैं जो दर्शकों के ठहाके का निशाना बन गये- क्रूर मुखिया के सामने से दलित चप्पल पहन कर जा रहा है. मुखिया ने आदेश दिया इसकी वो हालत कर दो कि आगे से इसके पाँव चलने लायक भी न रहें, चप्पल तो दूर की बात है. दलित माफ़ी माँगता है, पाँव गिरता है पर मुस्टंडे उसे घसीटकर ले जाते हैं और उसके पाँव दाग देते हैं, भयावह चीत्कार गूंजता है पर दर्शक ठहाका लगाते हैं. 

जब युवा दसरथ धनबाद की कोयलरी में काम करके कुछ पैसा कमाने के बाद थोडा बना ठना अपने गाँव लौटता है तो मुखिया के लोग उसे बुरी तरह कूट देते हैं, यहाँ भी दर्शकों का ठहाका सुनाई देता है. फटे हुए कपड़ों और नुचे हुए शरीर से भी दसरथ अपने घर में मौज लेता है. यहाँ पता नहीं कि असली दसरथ भी ऐसा ही कॉमिक चरित्र का था या नहीं. लेकिन ये फिल्म के कमजोर हिस्से बन गये जो वास्तव में बहुत मजबूत हो सकते थे। हाँ माओवादियों के आने और जन-अदालत लगा कर मुखिया को फाँसी देने का दृश्य बहुत कमजोर बन गया, जो फिल्म का एक
शानदार टर्निंग प्वाइंट हो सकता था, लेकिन शायद निर्देशक दिखाना ही यही चाहते थे जो उन्होंने दिखाया। दसरथ के पत्नी फगुनिया के साथ रोमांटिक दृश्य तो बाहुबली की याद दिलाते हैं। जब झरने की विशाल पृष्ठभूमि में फगुनिया एक जलपरी की तरह अवतरित होती है। क्या प्यार हर जगह ऐसे ही होता होगा, बाहुबली टाइप का, हर फिल्म में नायक-नायिका की कमोबेश एक जैसी छवि. आदिवासी, अति दलित समाज में भी सौन्दर्य के वही रूपक, वही बिम्ब. अकाल का सीन। 

लग रहा है यह कोई जंगल की बात है। कोई सरकार नहीं है। कोई देश नहीं है। कोई राहत कोष नहीं है। यह कौन सा राष्ट्र है जहां दशरथ माझी रहता है ! यह कौन सी सदी की बात है! तब आदमी चाँद पर तो न ही पहुंचा होगा जब दसरथ माझी आकाश की आग तले पहाड़ तोड़ रहा था। तब शायद पत्थर तोड़ने वाली मशीन भी भारत न आई होगी, जब दसरथ पहाड़ तोड़ रहा था। एक कुआं खोदना भी बहुत मुश्किल काम होता है, पथरीले इलाके में यह कुआं खोदना बेहद मुश्किल होता है, और पथरीले पहाड़ को तोड़ कर सड़क बनाना.... यह अविश्वसनीय काम है। जब दसरथ पहाड़ तोड़ रहा था, जब अपनी ज़िन्दगी के बाईस साल उसने सड़क बनाने में लगा दिए। उस समय डायनामाईट से पहाड़ तोड़कर सड़कें बन सकती थीं और यह काम महज कुछ माह का था, पर दसरथ डायनामाईट के ज़माने में छेनी और हथौड़ी से सड़क बना रहा था, और हमारी व्यवस्था गौरवान्वित महसूस कर रही थी। दसरथ की ज़िन्दगी से यह भी समझ में आता है कि पहाड़ से लड़ना आसान है, पर पहाड़ जैसी व्यवस्था से लड़ना बहुत कठिन।

22 साल दशरथ ने पहाड़ तोडा, सबने देखा होगा। लोकतन्त्र के चरों खम्भो को पता था पर कोई खम्भा ज़रा भी डगमगाया नहीं, आखिर खम्भा जो था। तब जनप्रतिनिधि उस क्षेत्र के विधायक सांसद पंचायत क्या करते रहे। दशरथ माझी कौन है? इस देश के महानायक तो अमिताभ बच्चन हैं। दशरथ माझी को अपने जीवन भर ज़िन्दगी जीने तक का सहारा नहीं मिलता, पर उसके नाम पर बनी फ़िल्म करोड़ों कमाती है। हम फ़िल्म में एडवेंचर पसन्द करते हैं। बेसिकली हम दशरथ को पसंद नहीं करते। हम दशरथ द्वारा दिए माउंटेन मैन के मनोरंजन को पसन्द करते हैं। दसरथ जब तक था शायद ही हममे से किसी ने उसके जीवन के बारे में सोचा हो। और शायद ही किसी को यह जानने में दिलचस्पी हो कि दशरथ का परिवार इस समय भी बदहाली में जीने को मजबूर है। यह कौन सा राष्ट्र है जहां दशरथ माझी रहता है। 

नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे और तिग्मांशु धूलिया के बेहतरीन अभिनय के बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है. फिल्म के पसंद किये जाने का कारण नवाज का लुक और अभिनय ही है

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End
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एक और बेहतरीन समीक्षा 
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Film - Maanjhi : The Mountain Man 
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समीक्षक : श्री संजय जोठे 
दशरथ माझी एक कवि हैं. एक पाषाण पर उनकी हिम्मत और हौसले ने दुनिया की सबसे बड़ी और सुन्दरतम कविता रची है यह कविता एक गहरी बुनाई की तरह है जिसमे बहुत सारे ताने बाने एक साथ चलते हैं प्रेम की सुगंध और बिछोह की पीड़ा इस बुनाई में उभरकर नजर आती है, लेकिन बहुत गहराई में कई और सूत्र हैं जो उभर नहीं पा रहे है वे वहां बहुत घनीभूत होकर मौजूद है, लेकिन इस देश के सभ्य लोग उसपर बहस नहीं करेंगे एक अतिदलित मुसहर समाज का व्यक्ति – एक प्रेमी जिसे इंसान समझा ही नहीं जाता हो, जिसकी भूख और मौत तक की कोई सुनवाई न हो, ऐसे में उसके प्रेम की क्या ख़ाक सुनवाई हो सकती है? वैसे भी इस देश का मुख्यधारा का दर्शन और धर्म प्रेम के खिलाफ है. उस पर वंचित तबकों के प्रेम और उस प्रेम की पुकार को कितना मूल्य दिया जा सकता है यह समझना बहुत आसान है 

पहली बार यह समाज इतना प्रौढ़ हुआ है, जहां छोटे बजट की ही सही एक ऐसी फिल्म बनी है और चर्चित हो रही है, जिसका नायक अतिदलित है, जिसका कथानक दो वंचितों के मासूम प्रेम के परितः घूमता है और जिसकी प्रेरणा में एक ऐसा स्वर्णिम सूत्र शामिल है, जो व्यक्तिगत शोषण की टीस से उभरकर सामूहिक शोषण के सनातन प्रश्न का उत्तर बन जाता है यह इस देश में बहुत बहुत बार हुआ है. शोषण और पीड़ा की ठोस जमीन पर खड़े लोगों ने इस समाज को बदलने के लिए बहुत बार पहाड़ तोड़े हैं, लेकिन उनका श्रेय उन्हें नही मिला है. अक्सर ही कोई पुराण या कहानी उभर आती है और असली हीरो उस पुराण के पाखण्ड की अनंत धुंध में खो जाते हैं शंबूक, एकलव्य, मातादीन, झलकारी बाई, और न जाने कितने ही ऐसे महानायक हैं जो या तो मिटा दिए गये हैं या जिनकी महान सफलताओं का श्रेय किसी अन्य को दे दिया गया है, लेकिन दबे-कुचलों के सौभाग्य से अब समय बदला है और असली नायकों को स्वीकार करने की हिम्मत इस देश में इस समाज में उभर रही हैवैसे भी अब अखबार इन्टरनेट और टेलीफोन के जमाने में दशरथ माझी की सफलता किसी देवी देवता, जमींदार, या दबंग के नाम नहीं की जा सकती थी गनीमत ये रही है कि उनपर एक पहाड़ जैसे शासकीय संपत्ति को “नुक्सान” पहुंचाने के लिए कोई मुकद्दमा नहीं हुआ 

मेरे लिए दशरथ एक कवि हैं – एक महाकवि हैं समाज के पाषाण
हो चुके ह्रदय पर उन्होंने बाईस साल तक एक महाकाव्य रचा है इसमें प्रेम की कसक, विछोह की पीड़ा और शोषण के प्रति विद्रोह का अमर गीत गूँज रहा है एक अकेला व्यक्ति जो अपने ह्रदय के सबसे कोमल भाव को हथियार बनाकर एक सनातन पहाड़ से भिड जाता है ये पहाड़ असल में उस समाज और संस्कृति का प्रतीक है जिसमे प्रेम सहित समानता और गरीब के आत्मसम्मान की हमेशा ह्त्या की गयी है इस पहाड़ ने न केवल दशरथ माझी के प्रेम का मार्ग रोका हुआ है बल्कि समय के अनंत में अन्य असंख्य प्रेम की धाराओं को बहने से भी रोक दिया है इस पहाड़ को तोड़कर उसमे रास्ता बनाना बहुत गहरा प्रतीक है. यह असल में सामूहिक मुक्ति का महाकाव्य है 

अक्सर ऐसा होता है कि काल्पनिक कथानक बुने जाते हैं और उन्हें ठोस बिंब व आकार दिए जाते हैंमूर्तिकला इसका उदाहरण है प्रेम की कोमल प्रेरणाओं, को उनके गीतों को ह्रदय में बुनकर पत्थर पर उकेरा जाता है ये पत्थर फिर स्वयं में काव्य बन जाता है इसमें एक स्पष्ट आकार और प्रेरणा होती है एक स्पष्ट मार्ग और मंजिल का पता होता है माझी का काव्य एक अनंत से दुसरे अनंत की तरफ बह रहा है पाषाण पर उनकी उकेरी प्रेम और
विद्रोह की प्रतिमा का कोई स्पष्ट नैन नक्श नहीं है यह एक निर्गुण की छवि है जो स्वयं में किसी दिशा का संधान न करते हुए भी सभी दिशाओं पर एक साथ अपनी सुगंध फैला रही है यह एक अन्य प्रतीक है शोषण से मुक्ति का या प्रेम की खिलावट का कोई बंधा बंधाया मार्ग या नक्शा नहीं है हर प्रेमी को हर शोषित को अपना पहाड़ खुद ही तोड़ना है, अपना मार्ग खुद ही बनाना है


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End
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निर्देशक - केतन मेहता
निर्माता - नीना गुप्ता / दीपा साही
संगीत - सन्देश शांडिल्य
कलाकार - नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, तिग्मांशु धुलिया, दीपा साही, पंकज त्रिपाठी, गौरव द्विवेदी 

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

फिल्म - पीके (2014) : धर्म के नाम पर हो रही कुरीतियों पर कड़ा प्रहार (Film Review)

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 9]
Film - PK (2014) 
समीक्षक - समय ताम्रकार 
(वेब दुनिया मैग्जीन में प्रकाशित)

फिल्म - पीके (2014)
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पीके फिल्म का नाम इसलिए है क्योंकि मुख्य किरदार (आमिर खान) को लोग पीके कहते हैं। वह प्रश्न ही ऐसे पूछता है कि लोगों को लगता है कि होश में कोई ऐसी बातें कर ही नहीं सकता। 'पीके हो क्या?' जैसा जवाब ज्यादातर उसको सुनने को मिलता है और वह मान लेता है कि वह पीके है। 

भगवान की मूर्ति बेचने वाले से वह पूछता है कि क्या मूर्ति में ट्रांसमीटर लगा है जो उसकी बात भगवान तक पहुंचेगी। दुकानदार नहीं बोलता है तो पीके कहता है कि जब भगवान तक डायरेक्ट बात पहुंचती हो तो फिर मूर्ति की क्या जरूरत है? ऐसे ढेर सारे सवाल पूरी फिल्म में पीके पूछता रहता है और धर्म के ठेकेदार बगलें झाकते रहते हैं। 

आखिर ये सवाल पीके पूछता क्यों है? पीके पृथ्वी पर रहने वाला नहीं है। वह एलियन है। चार सौ करोड़ किलो मीटर दूर से पृथ्वी पर आया है। अपने ग्रह पर वापस जाने वाला रिमोट कोई उससे छीन ले गया है। जब रिमोट के बारे में वह लोगों से अजीब से सवाल पूछता है तो जवाब मिलता है कि भगवान ही जाने। वह भगवान को ढूंढने निकलता है तो कन्फ्यूज हो जाता है। 

मंदिर जाता है तो कहा जाता है कि जूते बाहर उतारो, लेकिन चर्च में वह बूट पहन कर अंदर जाता है। कही भगवान को नारियल चढ़ाया जाता है तो कही पर वाइन। एक धर्म कहता है कि सूर्यास्त के पहले भोजन कर लो तो दूसरा धर्म कहता है कि सूर्यास्त होने के बाद रोजा तोड़ो। भगवान से मिलने के लिए वह दान पेटी में फीस भी चढ़ाता है, लेकिन जब भगवान नहीं मिलते तो वह दान पेटी से रुपये निकाल लेता है। 

पीके को राज कुमार हिरानी और अभिजात जोशी ने मिलकर लिखा है। धर्म के नाम पर हो रही कुरीतियों पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया है। पीके को एलियन के रूप में दिखाना उनका मास्टरस्ट्रोक है। एक ऐसे आदमी के नजरिये से दुनिया को देखना जो दूसरे ग्रह से आया है एक बेहतरीन कांसेप्ट है। इसके बहाने दुनिया में चल रही बुराइयों तथा अंधविश्वासों को निष्पक्ष तरीके से देखा जा सकता है। 

इंटरवल से पूर्व फिल्म में कई लाजवाब दृश्य देखने को मिलते हैं। जो हंसाने के साथ-साथ सोचने पर मजबूर करते हैं। एक साथ मन में दो-तीन भावों को उत्पन्न करने में लेखक और निर्देशक ने सफलता हासिल की है। भगवान के लापता होने का पेम्पलेट पीके बांटता है। वह मंदिर में अपने चप्पलों को लॉक करता है। उसे समझ में नहीं आता है कि वह कौन सा धर्म अपनाए कि उसे भगवान मिले। यह बात भी उसके पल्ले नहीं पड़ती कि आखिर इंसान कौन से धर्म का है, इसकी पहचान कैसे होती है क्योंकि इंसान पर कोई ठप्पा तो लगा नहीं होता। इन बातों को लेकर कई बेहतरीन सीन गढ़े गए हैं जो आपकी सोच को प्रभावित करते हैं। 

भगवान के नाम पर कुछ लोग ठेकेदार बन गए हैं और उन्होंने इसे बिजनेस बना लिया है। फिल्म में एक सीन है जिसमें एक गणित महाविद्यालय के बाहर पीके एक पत्थर को लाल रंग पोत देता है। कुछ पैसे चढ़ा देता है और विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थी उस पत्थर के आगे पैसे चढ़ाने लगते हैं। इस सीन से दो बातों को प्रमुखता से पेश किया गया है। एक तो यह कि धर्म से बेहतर कोई धंधा नहीं है। लोग खुद आते हैं, शीश नवाते हैं और खुशी-खुशी पैसा चढ़ाते हैं। दूसरा ये कि विज्ञान पढ़ने वाले भी अंधविश्वास का शिकार हो जाते हैं। बचपन से ही संस्कार के नाम पर उनमें कुछ अंधविश्वास डाल दिए जाते हैं जिनसे वे ताउम्र मुक्त नहीं हो पाते। 

फिल्म उन संतों को भी कटघरे में खड़ा करती है जो चमत्कार दिखाते हैं। हवा से सोना पैदा करने वाले बाबा चंदा क्यों लेते हैं या देश की गरीबी क्यों नहीं दूर करते? धर्म के नाम पर लोगों में भय पैदा करने वालों पर भी नकेल कसी गई है। जब ऊपर वाले ने तर्क-वितर्क की शक्ति दी है तो क्यों भला हम अतार्किक बातों पर आंखें मूंद कर विश्वास करें? 

बातें बड़ी-बड़ी हैं, लेकिन उपदेशात्मक तरीके से इन्हें दर्शकों पर लादा नहीं गया है। हल्के-फुल्के प्रसंगों के जरिये इन्हें दिखाया गया है जिन्हें आप ठहाके लगाते और तालियां बजाते देखते हैं। गाने लंबाई बढ़ाते हैं, लेकिन फिल्म से आपका ध्यान नहीं भटकता। पीके देखते समय 'ओह माय गॉड' की याद आना स्वाभाविक है, लेकिन पीके अपनी पहचान अलग से बनाती है।

ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार, बासु चटर्जी की तरह निर्देशक
राजकुमार हिरानी मिडिल पाथ पर चलने वाले फिल्मकार हैं। वे दर्शकों के मनोरंजन का पूरा ध्यान रखते हैं साथ ही ऐसी कहानी पेश करते हैं जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करे। 'पीके' में वे एक बार फिर उम्मीदों पर खरे उतरते हैं। सिनेमा के नाम पर उन्होंने कुछ छूट ली है, खासतौर पर जगतजननी (अनुष्का शर्मा) और सरफराज (सुशांतसिंह राजपूत) की प्रेम कहानी में, लेकिन ये बातें फिल्म के संदेश के आगे नजरअंदाज की जा सकती है। अपनी बात कहने में अक्सर वे वक्त लेते हैं और यही वजह है कि उनकी फिल्में लंबी होती हैं। संपादक के रूप में वे कुछ सीन और गानों को हटाने का साहस नहीं दिखा पाए। कुछ प्रसंग धार्मिक लोगों को चुभ सकते हैं जिनसे बचा भी जा सकता था। 


आमिर खान पीके की जान हैं। उनके बाहर निकले कान और बड़ी आंखों ने किरदार को विश्वसनीय बनाया है। उनके चेहरे के भाव लगातार गुदगुदाते रहते हैं। वे अपने किरदार में इस तरह घुसे कि आप आमिर खान को भूल जाते हैं। परदे पर जब वे नजर नहीं आते तो खालीपन महसूस होता है। ऐसा लगता है कि सारा समय वे आंखों के सामने होना चाहिए। यह उनके करियर के बेहतरीन परफॉर्मेंसेस में से एक है। 

हिरानी की फिल्मों में आमतौर पर महिला किरदार प्रभावी नहीं होते, लेकिन 'पीके' में यह शिकायत दूर होती है। अनुष्का शर्मा को दमदार रोल मिला है। वे बेहद खूबसूरत नजर आईं और आमिर खान जैसे अभिनेता का सामना उन्होंने पूरे आत्मविश्वास के साथ उन्होंने किया है। सुशांत सिंह राजपूत, संजय दत्त, सौरभ शुक्ला, बोमन ईरानी और परीक्षित साहनी का अभिनय स्वाभाविक रहा है। 

फिल्म के गाने भले ही हिट नहीं हो, लेकिन फिल्म देखते समय ये गाने प्रभावित करते हैं। 

एक बेहतरीन तोहफा 'पीके' के रूप में राजकुमार हिरानी ने सिने प्रेमियों को दिया है और इसे जरूर देखा जाना चाहिए। 

बैनर : विनोद चोपड़ा फिल्म्स, राजकुमार हिरानी फिल्म्स
निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा, राजकुमार हिरानी
निर्देशक : राजकुमार हिरानी
संगीत : शांतनु मोइत्रा, अजय-अतुल
कलाकार : आमिर खान, अनुष्का शर्मा, संजय दत्त, सुशांत सिंह राजपूत, बोमन ईरानी, 
सौरभ शुक्ला, परीक्षित साहनी, रणबीर कपूर (मेहमान कलाकार)

रविवार, 4 जनवरी 2015

फ़िल्म - इजाज़त (1987) : कोहरे में जमीं और आसमां के बीच भीगती जिन्दंगी


[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 8]
Film - Izaazat (1987) 
समीक्षक - राकेश जी
फ़िल्म - इजाज़त (1987)
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इजाज़त मूलतः एक प्रेम कहानी है जो ताजगी भरे अहसास को दर्शकों तक लाती है। सुखद बात यह है इस फिल्म के साथ कि तमाम अन्य हिन्दी फिल्मों की तरह यह घिसी पिटी और फार्मूलों पर आधारित प्रेम कहानी नहीं है। 

यहाँ प्रेमियों के अलगाव के पीछे किसी खलनायक का कोई षडयंत्र नहीं है। यहाँ किरदार खुद जिम्मेदार हैं अपने द्वारा उठाये गये अच्छे और बुरे कदमों के लिये। कोई उन्हे बरगलाता नहीं है, कोई गलतफहमी भी उत्पन्न नहीं करता। इजाज़त जिंदगी को अपनी समझ से जीते चरित्रों की कहानी है। 

इजाज़त बेहद सभ्य किरदारों की प्रेम कहानी है। ज़िन्दगियाँ यहाँ दुख तो पाती हैं पर दोषी कोई नहीं है। बेहद अच्छे लोग भी गलतियाँ कर जाते हैं। बेहद सुलझे हुये लोग भी वह देख लेते हैं जो शायद सच तो है पर उस सच की व्याख्या वह नहीं है जो उन्होने कर ली है और जिसके वशीभूत होकर वे कुछ ऐसा निर्णय ले लेते हैं जो उनके और उनके प्रिय के जीवन में दुख लेकर आता है।

स्त्री-पुरुष के मध्य रिश्ते पर बनी यह फिल्म गुलज़ार की ऐसे ही सम्बंधो पर बनी अन्य फिल्मों से ज्यादा गुणवत्ता वाली है। यह फिल्म 1987 में रिलीज हुयी थी जबकि हिन्दी सिने उद्योग से हर हफ्ते ऊटपटाँग फिल्में आने का दौर जोर पकड़ चुका था। बहुमत बेहद ऊलजलूल किस्म की फिल्में रिलीज होने का था और ऐसे कुरुपता फैलाते वातावरण में इजाज़त सौन्दर्य का अवतार बन कर आयी थी और तब से यह हिन्दी सिनेमा में कवित्त भाव लिये हुयी कुछ सिरमौर फिल्मों की जमात में ससम्मान शामिल हो चुकी है और सालों से दर्शकों को लुभाती आ रही है।

कथा और एक तार्किक कथा से ज्यादा इजाज़त का महत्व है फिल्मांकन में। दृष्य दर्शक को मनाते हैं, प्रभावित करते हैं। सुधा (रेखा) और महेन्द्र (नसीरुद्दीन शाह) आपस में शादी करते हैं माया (अनुराधा पटेल) और महेन्द्र के बारे में सब कुछ जानकर भी। वे शादी क्यों करते हैं, इस बात पर फिल्म नहीं टिकी है बल्कि यह एक स्थिति है जिसकी संभावना धरती पर मौजूद मानवों के जीवन में हो सकती है और होती भी है और इस फिल्म की कहानी में तो खैर है ही। परिस्थितियों के वशीभूत होकर सुधा और महेन्द्र की शादी हो गयी है और यह एक कदम फिल्म की इमारत बनाने के लिये एक स्तम्भ का कार्य करता है। सो “क्यों” से ज्यादा फिल्म का जोर इस बात पर है कि “जब ऐसा हो जाये तो क्या संभावनायें हैं ऐसे रिश्तों वाली फिल्म में“! 

एक तरह से देखा जाये तो इजाज़त वहाँ से सिरे उठाती हुयी शुरु होती है जहाँ विजय आनंद और जया भादुड़ी अभिनीत फिल्म – कोरा काग़ज खत्म हुयी थी। 

फिल्मांकन के स्तर पर फिल्म बेहद योजनाबद्ध है। चरित्रचित्रण ही ले लीजिये। महेन्द्र द्वारा शुरु में ही रेलवे वेटिंग रुम में दिखायी गयी अस्त-व्यस्तता उसकी आदतों को दर्शकों को दिखाती है और ऐसा सूचित करती है कि कहीं न कहीं यह आदमी बेहद बेतरतीब है और इसे महिला पर निर्भर होना चाहिये अपनी ज़िन्दगी को संवारने के लिये और सुव्यवस्थित बनाने के लिये।

सुधा महेन्द्र को वेटिंग रुम में देखकर एक पत्रिका से अपना
मुँह छिपा लेती है जिससे कि महेन्द्र उसे न देख पाये। गुलज़ार एक रहस्यमयी अंदाज में फिल्म शुरु करते हैं और सस्पैंस का यह तत्व फिल्म के क्लाइमेक्स तक मौजूद रहता है। महेन्द्र को वेटिंग रुम में देखने के बाद सुधा द्वारा किये गये व्यवहार से दर्शक समझ जाता है कि सुधा और महेन्द्र का कोई साझा भूतकाल अवश्य रहा है और यह बात दर्शक में एक उत्सुकता को जन्म देती है। वह इन दोनों के मध्य भूतकाल में बीते हुये इस सांझे समय की विरासत को जानने, पहचानने और खोजने के लिये बैचेन हो जाता है। 

इजाज़त चरित्र और रिश्ते प्रधान फिल्म होते हुये भी संवाद द्वारा बताने से ज्यादा दृष्यों की सहायता से दिखाने पर जोर देती है। सुधा को वहाँ वेटिंग रुम में बैठा देख महेन्द्र अपना सूटकेस खुला ही छोड़ कर बाथरुम चला जाता है। शायद यह सोचकर कि वह तो देख ही लेगी। 

वहीं वेटिंग रुम में चाय पीते हुये सुधा और महेन्द्र के बीच होने वाले संवाद पर जरा गौर करें कि कैसे धीरे धीरे उनके बीच किसी किस्म के पूर्व-सम्बंध होने की परतें निर्देशक ने खोली हैं सुधा के यह पूछने पर कि क्या वह अभी तक उसी पुराने घर में ही रहते हैं, महेन्द्र कहते हैं - "सब कुछ वही तो नहीं है पर है वहीं“। 

हिन्दी सिनेमा में चेतन आनंद की हीर-रांझा ही ऐसी फिल्म रही है जहाँ पर कि संवाद भी काव्य के रुप में रचे और बोले गये गये थे। इजाज़त भी गद्य और पद्य का बहुत खूबसूरत मिश्रण लेकर दर्शकों को रस में सराबोर करती हुयी चलती है। माया (अनुराधा पटेल) हृदय से कवि है। उसके क्रिया-कलाप अनपेक्षित हैं। उसके चरित्र के द्वारा गुलज़ार ने अपनी काव्य प्रतिभा का भरपूर दोहन किया है। माया के आने से पहले ही उसका साया फिल्म में प्रवेश पा जाता है। 

माया महेन्द्र के रिश्ते की प्रकृति तुरंत स्पष्ट हो जाती है जैसे ही महेन्द्र अपने दादा (शम्मी कपूर) से मिलकर वापिस शहर में अपने घर पहुँचता है और वहाँ उसे माया की एक प्रेममयी धमकी देखने को मिलती है - “बिना बताये चले जाते हो, जाके बताऊँ कैसा लगता है“?

प्रेमी के लिये उस भाव को अपने प्रेमी तक पहुँचाना जरुरी लगने लगता है जिससे उसका सामना हो रहा है। माया, महेन्द्र के लिये छोड़े पत्र में शब्दों से विम्ब चित्रित कर जाती है -
"चलते चलते मेरा साया कभी कभी यूँ करता है,
जमीं से उठके सामने आकर हाथ पकड़ के कहता है
अबकी बार मैं आगे आगे चलता हूँ
और तू मेरा पीछा करके देख जरा क्या होता है?"

ये वे कल्पनायें हैं जहाँ साये जमीन से उठ पड़ते हैं और अपने ही वास्तविक वजूद से बातें करने लगते हैं। ऐसी कल्पनायें एक विशिष्ट वातावरण रचती हैं फिल्म में और जिसके जादुई परिवेश में दर्शक खो जाता है। माया दिखती नहीं है अभी तक पर उसके वर्णन के द्वारा फिल्म उसकी पेंटिंग रचने लगती है। उसे रुबरु भले ही न देखा हो दर्शक ने अभी तक पर वह आकार ले चुकी है। वह कैसी होगी इसका अंदाजा लगने लगता है। अभी तक रहस्य की चादरों में ढ़की इस शख्सियत, माया, की तारीफ में उसकी सहेली मोना, महेन्द्र से कहती है कि एक बार खुद माया ने उससे कहा था - "मोना मैं सूखे पत्ते की तरह उड़ कर महेन्द्र के कॉलर पर जा अटकी।"

एक सूखे पत्ते जैसा मुक्त्त जीवन जी रही महिला को देखने के लिये दर्शक की उत्सुकता स्वाभाविक है और इजाज़त ऐसी ही उत्सुकतायें जन्माती और बढ़ाती चली जाती है। महेन्द्र की प्रेमिका (दर्शकों द्वारा अनदेखी) गायब हो गयी है और नियति महेन्द्र की शादी सुधा से करवा देती है।

पर हाथ छूट जाने से रिश्ते नहीं टूटा करते और कोई न भी हो किसी जगह पर, परंतु उसके वजूद का अहसास उस जगह पर रह ही जाता है। माया भी महेन्द्र के जीवन और घर में भौतिक रुप से अनुपस्थित होते हुये भी रहती है। माया का फोटो महेन्द्र के पर्स में देखने के बाद रेखा का सुधा के रुप में किया हुआ अभिनय गवाह बन कर देखने की चीज है। महेन्द्र जैसे स्पष्टीकरण देते हैं - "माया बहुत ज्यादा बसी हुयी थी इस घर में। सब जगहों से तो उसे निकाल दिया है अब कहीं कोने खुदरे में पड़ी रह गयी है वहाँ से भी हट जायेगी।"

सुधा को महेन्द्र और माया के प्रेम सम्बंधों के बारे में शादी करने से पहले से ही पता है, पर है तो वह एक जीती जागती स्त्री ही और मानवीय संवेदनायें एकदम से प्लास्टिक जैसी निर्मोही नहीं बनायी जा सकतीं कि उन पर किसी बात का कोई असर ही न हो और वह भी सभ्यता के दायरे में अपना पक्ष रखती है - "मैं कहाँ कह रही हूँ कि हटा दो या निकाल दो उसे… सिर्फ ये कि सब कुछ ही बंटा हुआ लग रहा है इस घर में। जिस चीज को भी छूने जाती हूँ लगता है किसी और की चीज छूने जा रही हूँ, पूरा पूरा अपना कुछ भी नहीं लगता।"

फिल्म पति पत्नी और वो जैसे रिश्तों की उलझने रचने लगती है। महेन्द्र विवाहेत्तर संबध को नहीं निभा रहे हैं। वे अपने और माया के बारे में सब कुछ पहले ही सुधा को बता चुके थे।

गुलज़ार बिना नाटकीय हुये संबधों की जाँच पड़ताल करते हैं। उनकी इजाज़त के महेन्द्र जीवन को सीधी पटरी पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। कभी कभी आदमी अपने को एक पतंग की तरह ढ़ीला छोड़ देता है कि उड़ने दो हवा के संग संग। उन्हे शायद लगा होगा कि देखा जायेगा जैसे जैसे मोड़ जीवन लायेगा वैसे जी लेंगे। शादी के बाद सुधा की तरफ से यह पहला हल्का सा विरोध माया के प्रति दर्ज हुआ है। न महेन्द्र और न ही सुधा इस स्थिति को जानबूझ कर लाये हैं। ऐसा हो गया है। महेन्द्र सुधा को दुखी भी नहीं करना चाहते। माया का फोटो पर्स में अंदर के अंधेरे कोनों की ओर खिसक जाता है।

रेलवे के वेटिंग रुम में मौका पाने पर सुधा मेज पर पड़े महेन्द्र के पर्स को ऐसे चोरी छिपे खोलती हैं अन्दर की फोटो देखने को जिससे कि महेन्द्र को इस बात का आभास न हो। महेन्द्र दरवाजे पर वेटर से बातचीत में व्यस्त हैं। सुधा की हरकत से दर्शक के मन में भी उत्सुकता जाग उठती है कि महेन्द्र के पर्स में इस वक्त किसकी तस्वीर होगी, माया की या सुधा की या दोनों की? शायद सुधा के मन में कहीं उम्मीद है कि भौतिक दूरियों के आ जाने के बाद उसका फोटो भी पर्स में हो सकता है। मन तो बेहद विचित्र चीज है ये कब क्या करने को व्यक्ति को विवश कर दे कोई नहीं कह सकता। पर फिल्म गच्चा दे जाती है दर्शक को और यह न तो सीधे-सीधे और न ही सुधा की भाव भंगिमा के द्वारा दर्शक को दिखाती है कि महेन्द्र के पर्स में किसकी तस्वीर लगी है?

सुधा जब पहली बार वेटिंग रुम में कैमरा उठाती है तो उसका जेहन पीछे बीती ज़िन्दगी में चला जाता है। साथ में दो जीवंत आदमी कितने लम्हे गुजारते हैं और कितना कुछ ऐसा जिया जाता है जो यादों के बैंक में फिक्स डिपॉजिट की भाँति एकत्रित होता जाता है!

महेन्द्र कहते हैं वेटिंग रुम में, "ऐसे में गरमा-गरम चाय मिल जाये…” और यादों के गर्भ से एक ऐसा दृष्य जन्म ले लेता है जहाँ सुधा महेन्द्र के लिये चाय लेकर आती हैं।

इजाज़त पर बिना कवित्त भाव को अपनाये हुये नहीं लिखा जा सकता। ऐसा प्रयास भी करना इस खूबसूरत फिल्म की तौहीन है। यह ऐसी फिल्म नहीं है जिसका विश्लेषण विशुद्ध रुप से गद्य में किया जा सके। वेटिंग रुम में जब सुधा महेन्द्र के गीले सिर को तौलिये से पौंछने लगती हैं तब एकाएक पार्श्व में बज उठे संगीत को सुनिये और कहीं दूर से पास और पास ही से और पास आते आनंद में खो जाइये।

ऐसी योजना के लिये बेहद सतर्कता और गजब की रचनात्मकता की जरुरत है। कोई भी लेखक रचने के अभाव वाले दिनों से जरुर गुजरता है और ऐसे दिन भी आते हैं जब रचनात्मकता चारों तरफ से बरसती है इजाज़त ऐसे ही समय की पैदाइश है जब गुलज़ार के ऊपर चारों तरफ से रचनात्मकता की बारिश हो रही होगी।

ऐसे ऐसे संवाद गुलज़ार ने रचे हैं जिन्हे सुनकर दर्शक बस फिल्म पर न्यौछावर हो जाये। महेन्द्र के लगातार बरसती बारिश के खत्म न होने को लेकर की गयी शिकायत के जवाब में सुधा धैर्य से कहती हैं - "बरस जायेगी तो अपने आप बंद हो जायेगी।"

एक अकेले आदमी की रचनात्मकता, कहानी, स्क्रीनप्ले, फिल्मांकन, दृष्य संयोजन, संवाद, गीत आदि कितने ही रुपों में उत्कृष्ट रुप में सामने आ सकती है, इजाज़त उसका ज्वलंत उदाहरण है।

वेटिंग रुम में साथ साथ बिताई जा रही एक रात सुधा और महेन्द्र, दोनों के वर्तमान के जीवन की ऐसी रात है जो उनकी बीते जीवन में किसी समय छोड़े गये सिरों को मिला देती है। सुधा के महेन्द्र की अनुपस्थिति में घर से चले जाने से सुधा और महेन्द्र के बीच एक ऐसा उधार बकाया रह जाता है जो इसलिये पनपता है क्योंकि वे इस अलगाव के कारणों पर कभी भी आमने सामने बात नहीं कर पाये। दोनों को कचोटता होगा इस संवाद का अभाव। वेटिंग रुम की यह रात वह मौका लायी है जब जो गिले शिकवे बचे थे उन्हे सुलझाया जा सकता है। बिना बताये चले जाना पीछे छूट गये लोगों को तड़पन दे जाता है।

महेन्द्र, सुधा और माया – इन नामों के अर्थ तीनों चरित्रों के गुणों और प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। सुधा के रुप में रेखा का चयन गजब का है। सुधा (वाया रेखा) का बाह्य और आंतरिक सौन्दर्य, उनके सलीकेदार तौर तरीके, धैर्य, और सुलझापन सब कुछ ऐसा है जो कि महेन्द्र को वैवाहिक जीवन में ठहरा सके। केवल विवाह करने के कर्तव्य से ही महेन्द्र सुधा के साथ नहीं है बल्कि वे उनसे भी उतना ही जुड़ाव महसूस करने लगते हैं जितना वे माया के साथ महसूस करते थे या करते हैं। सुधा के महेन्द्र की अनुपस्थिति में घर से चले जाने वाली रात उनके सुधा से भी प्रेम की गहराई को दिखाती है और नसीर ने क्या काबिलेतारीफ अंदाज में उन दृष्यों को अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है!

इजाज़त में एक तरह से गद्य को पद्य में जोड़ा गुलज़ार ने और अकविता को भी बाग मे जगह दी जिससे कि वह भी पनप सके। मेरा कुछ सामान नज़्म को महेन्द्र द्वारा पढ़े जाते समय सुधा का रुदन जीवन है, जीवन की संवेदना है। यहाँ दूसरे का दर्द अपना बन गया है। यह अपने किये हुये पर पछतावे का दर्द है। यह बिना समझे कुछ कर जाने के पछतावे का दर्द है। यह एक दर्द के कविता में रुप में सामने आ जाने का दर्द है।

गुलज़ार ऐसी कल्पना का समावेश भी कर देते हैं अपने काव्य में कि अगर सुनने वाला शब्दों को सुन ले तो ठिठक जाये - "एक सौ सोलह चाँद की रातें एक तुम्हारे काँधे का तिल" – सुनने वाला बिना इस गुत्थी को सुलझाये चैन नहीं पा सकता कि क्यों गुलज़ार ने ये पंक्ति लिखी। एक सौ सोलह चाँद की रातें एक ऐसे ही वर्णित की हुयी संख्या है। महेन्द्र के कँधे पर तिल का वर्णन कविता में सुनकर सुधा को माया की महेन्द्र से नजदीकी का परोक्ष रुप से अहसास होता है और वह रोते हुये उस तिल को छूती है।

माया रहस्मयी है। जीवंत है, बिना रोक-टोक बहने वाली नदी है। माया बेफिक्र है या उसने अपनी फिक्रों को भुलाने के लिये ही जीवन जीने का ऐसा अंदाज अपना लिया है। वह भाग तो रही है, जैसी ज़िन्दगी उसे परिवार की तरफ से मिली है उससे, परन्तु जो वह कुछ करती है उससे जीवन भी उत्पन्न होता है। उसकी ज़िन्दगी बिंदास है, मौत का खौफ वहाँ नहीं है क्योंकि ज़िन्दगी की भी बहुत कीमत उसके लिये नहीं है, मौत आज आती हो तो अभी आ जाये। अपने रचे में भी उसे बहुत सहारा नहीं मिलता वरना वह अकेले रहने के ख्याल से उदास न हो जाती, नींद की गोलियाँ खाकर आत्महत्या करने की कोशिश न करती।

एक अच्छा संवाद माया के द्वारा बोला गया है आत्महत्या करने के प्रयास पर। वह महेन्द्र से कहती है - "जानते हो महेन्द्र अगर जरुरत से ज्यादा गोलियाँ भी खा लो तो भी मौत नहीं आती क्योंकि उल्टी हो जाती है, गोलियाँ तो बस इतनी खानी चाहियें जितनी पेट पचा सके।"

साथ छूट जाने पर भी रिश्ते विचारों के स्तर पर तो बने ही रहते हैं और पुनर्मिलन होने पर याद आ गये अधिकार भी वापिस आ जाते हैं। हालाँकि साल बीत जाते हैं, कुछ आदतें दम तोड़ जाती हैं कुछ नयी आदतें जन्म ले लेती हैं। पर रिश्तों में मौजूद रहे अधिकार नहीं बदलते। वे थोड़ी सी हिचकिचाहट के बाद वापस आ जाते हैं :
आदतें भी अजीब होती हैं / सांस लेना भी कैसी आदत है
जिये जाना भी क्या रवायत है / आदतें भी अजीब होती हैं

इजाज़त में एक सच्चाई है। कविता है पर जीवन की सच्चाई से ओतप्रोत। महेन्द्र कहते हैं सुधा से - "मैं माया से प्यार करता था ये सच है और उसे भूलने की कोशिश कर रहा हूँ ये भी सही है"

वेटिंग रुम से निकलते हुये सुधा के घुटने में लगी चोट के बाद के दृष्य औरकतरा कतरा गीत का दृष्यांकन दर्शा देते हैं कि ज़िन्दगी परिभाषाओं में बँधी चिड़िया का नाम नहीं है। यह तो कल्पना से भी परे की स्वतंत्रता का नाम है बल्कि भाषा में इसे बाँधना बहुत मुश्किल है। भाषा तो बहुत छोटी चीज है ज़िन्दगी की विशालता के सामने।

ऐसा भी हो सकता है कि कवि कुमार विश्वास को इजाज़त के प्लेन वाले दृष्य में माया द्वारा भेजी गयी भेंट महेन्द्र को मिलने के बाद के दृष्य देखकर ही अपनी प्रसिद्ध कविता - "एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है / एक पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है"  के लिये प्रेरणा मिली हो।

सम्बंधों पर बनायी गयी फिल्मों में इजाज़त गुलज़ार का बेहद उल्लेखनीय काम है। एक परिपूर्ण फिल्म की योजना यहाँ दिखायी देती है। खाली हाथ शाम आयी है की टाइमिंग देखिये। महेन्द्र के हार्ट अटैक वाले सीन में नसीर की अदाकारी देखिये। एक सम्पूर्णता है हरेक संवाद में -"सुधा तलाक लेने का नहीं देने का सोच रही है।"

सूक्ष्म स्तर पर परिपूर्ण हैं फिल्म के संवाद। सभ्य किरदारों की कहानी है इजाज़त। आँधी में छोड़े गये रिश्तों में अलगाव के रेशे यहाँ एक झीना परन्तु मुकम्मल वस्त्र बुन देते हैं। फिल्म के दृष्य इतने प्रभावी हैं कि जब जिस चरित्र की तरफ से फिल्म दिखायी जाती है तब दर्शक भी उसी चरित्र की तरफ से फील्डिंग करने करने लगता है।

सुधा के घर छोड़ने पर दिल के दौरे की बात जब महेन्द्र सुधा को पहली बार बताते हैं तो इस दृष्य को पहले ही देख लेने के बावजूद सुधा के साथ दर्शक भी चिहुँक जाते हैं। अगर महेन्द्र बता देते सुधा को कुद्रेमुख से लौटकर ही कि माया ने आत्महत्या करने की कोशिश की तो एक अलग ही कहानी बन जाती और जैसा कि एक बार महेन्द्र माया से कहते हैं कि - "वे उसे सुधा के हवाले कर देंगे क्योंकि सुधा समझदार है और वह वही करेगी जो सच है और सही है और उसे जरुर पता होगा कि क्या करना चाहिये।"

माया तो आजाद हवा थी, उसके साथ शायद महेन्द्र भी न रह पाते पर समय चक्र ऐसा घुमता है कि माया और सुधा दोनों महेन्द्र के जीवन से दूर चली हैं।

फिल्म दिल के साथ छेड़छाड़ करती है, उसे कचोटती भी है, दिमाग पर एक नशे की खुमारी भी चढ़ाती है और कभी उसे जाग्रतावस्था में भी ले आती है जब सम्बंधों के बारे में ऐसा दिखा और समझा जाती है जो अब तक दर्शक के जेहन से अंजान ही था। अगर किसी को ऐसा लगता हो कि वह ज़िन्दगी को समझने लगा है तो उसे इजाज़त दिखा देनी चाहिये, उसका गुरुर टूट जायेगा।

सुधा महेन्द्र के दुख और दर्द दोनों से वाकिफ हो जाती है रेलवे के वेटिंग रुम में। वह दुखी है, बहुत ज्यादा दुखी है महेन्द्र के दुख से और कहीं न कहीं अपनी नादानी को भी इसका जिम्मेदार मानती होगी और जब दर्शक और महेन्द्र दोनों को लगता है कि शायद अब फिल्म में महेन्द्र और सुधा के उलझन भरे जीवन में एक सुखद पड़ाव आ गया है और नयी शुरुआत हो सकती है उसी समय आँधी तूफान की तरह एक ऐसे आकर्षक, खुशमिजाज़ शख्स का प्रवेश वेटिंग रुम में होता है जिसका आगमन महेन्द्र के पैरों तले से जमीन खिसका देता है।

"पिछले साल मैंने शादी कर ली" - जब सुधा कहती हैं तब
नसीर तो अवाक खड़े रह ही जाते हैं, दर्शक भी समझ नहीं पाते कि किस किरदार की तरफ से वह जीवन को समझे ! इस बार जब सुधा जब बाकायदा इजाज़त माँगती हैं महेन्द्र से अपने वर्तमान पति के साथ जाने के लिये तब महेन्द्र द्वारा दिये गये आशीर्वाद में प्रेम की ऊँचाई का एक अन्य रुप फिल्म दिखा देती है।

जीवन क्या कठोर है? जीवन ने इतने बरसों में परिवर्तन ला दिया है। एक और शख्स से जुड़ाव हो गया है सुधा का। और यह जुड़ाव भी दिल से है। वह वही करती है जो आज का सच है और आज सही है। नारी ज्यादा सही निर्णय लेती है इन मामलों में।

अंत ऐसा है कि आँखें उभर आयी नमी से धुँधली हो जायें तो समझिये गुलज़ार की कला ने आपको ठीक जगह छू लिया है। बहुत कम फिल्मों का ऐसा अंत देखने को मिलता है। फ्रीज शॉट और पार्श्व में से आती हुयी ट्रेन की ध्वनि। सुबह 7.30 की ट्रेन जिस पर सवार होकर दो पुराने साथी अपनी अपनी अलग मंजिलों की तरफ तो जायेंगें पर एक दूसरे के ख्यालों से भरे हुये। एक विवशता भरी मुस्कान, आँसु बहाते दो नैन, एक संवेदनशील मुस्कान मानो कह रही हो, धन्यवाद तुम्हारी असंवेदनशीलता को जिसके कारण मुझे ऐसा नगीना मिला, कितना बड़ा दुर्भाग्य था तुम्हारा और है।

पर ज़िन्दगी कहानी नहीं है जो बस यहीं रेलवे स्टेशन पर खत्म हो जाये। ज़िन्दगी तो सुधा के आँसुओं में है, पीछे लौटकर दुखी खड़े महेन्द्र को देखती उसकी भावप्रवण आँखों में है, उसकी भावनाओं में है जो उसके साथ ताउम्र रहने वाली हैं। पर स्टेशन पर लगी घड़ी तो दिखा रही है कि अभी तो ट्रेन छूटने में आधा धंटे से ज्यादा का वक्त्त है। कैसे कटेगा सुधा और महेन्द्र का यह वक्त, जब तक कि ट्रेन चल ही न दे!

उस वक्त या बाद में यात्रा के समय सुधा तो शायद आसुओं के लगातार बहने से धुँधला गयी आँखों और रोने से रुँधी आवाज से महेन्द्र की दुखभरी कथा को अपने पति को संप्रेषित कर रही होंगी और उनसे बेहद प्रेम करने वाले पति उन्हे सांत्वना दे रहे होंगे पर महेन्द्र कैसे उस दुख से पार पा पायेंगे जो इस बार इजाज़त लेकर गयी सुधा को खोने से उन्हे मिला है ? खोकर फिर से पाने का सौभाग्य और पाकर फिर से अपनी आँखों से खोते देखने का दुर्भाग्य जीवन को हिला तो देगा ही।

इजाज़त खत्म होकर भी खत्म नहीं होती, यह दर्शक के अंदर घुस कर बस जाती है। खुशी और गम के कितने ही दृष्य आकर उसकी स्मृतियों के साथ छेड़छाड़ करने लगते हैं।

इजाज़त के शुरु के कुछ मिनट और कतरा-कतरा गाने का फिल्मांकन , दोनों बेहद जिम्मेदारी से भारतीय पर्यटन को बढ़ावा देने का काम कर सकते हैं। हरियाली, पेड़, फूल पत्ते, पहाड़, चटटाने, नदी, आकाश, बादल, सूरज, उजाला, छाया, विम्ब, प्रतिविम्ब, ओस, आदि इत्यादी प्रकृति की खूबसूरती से भरे नजारे इन भागों में भरे पड़े हैं जिन्हे अशोक मेहता के कैमरे ने प्रकाश, छाया और रंगों के मिश्रण के द्वारा गुलज़ार के निर्देशन की छत्रछाया में इंद्रधनुषी खूबसूरती के साथ दर्शाया है। इजाज़त का साऊण्ड ट्रैक भी अनूठा है हिन्दी सिनेमा में। 


जिस किसी ने भी इजाज़त को एक बार भी देखा है उसके लिये इजाज़त कभी भी खत्म नहीं होती, खत्म हो भी नहीं पायेगी।

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The End 
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समीक्षक : राकेश जी

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

फ़िल्म - सत्यकाम (1969) : हत्या ईमानदारी की होते बेशर्मी से देखता रहा है हिन्दुस्तान

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 7]
Film - Satyakam (1969) 
समीक्षक - राकेश जी
फ़िल्म - सत्यकाम (1969)
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सत्यकाम फिल्म बहुत विचलित करती है और अगर कोई व्यक्त्ति ईमानदारी और भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर बेहद संवेदनशील है तो उसे शायद इस सशक्त्त फिल्म को नहीं देखना चाहिये क्योंकि यह फिल्म भ्रष्टाचार, बेईमानी, कमजोरियों और समझौतापरस्ती के जिन्न के विकराल रुप द्वारा प्रताड़ित सत्यप्रिय के शनै: शनै: मौत की तरफ बढ़ते कदमों को दिखाकर दर्शक को अंदर तक हिला जाती है। 

ठेकेदार लाडिया (तरुण बोस) का एक मुलाजिम उनसे सिविल इंजीनियर सत्यप्रिय (धर्मेंद्र) के बारे में कहता है -
"ये आदमी बहुत ही बदमाश और पाजी है … रिश्वत वगैरह नहीं खाता"
प्रख्यात लेखक राजिन्दर सिंह बेदी द्वारा रचा गया उपरोक्त्त वचन ब्रिटिश राज से नये नये स्वाधीन हुये भारत की सच्चाई पर कसा गया वह व्यंग्य बाण है जिसे अपने अस्तित्व पर सहन करने के बाद भारत नामक लोकतांत्रिक देश को शर्मिंदा होकर चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिये था परंतु भारत और इसके लोगों ने अपनी चमड़ी गेंडे की खाल से भी मोटी कर ली और भ्रष्टाचार को अपना मुख्य धर्म बना लिया और ऐसे परिवेश में इने-गिने ईमानदार लोगों की हत्यायें होती चली गयीं और यत्र-तत्र-सर्वत्र, भ्रष्टाचार का ही वास हो गया।

भारत की मोटी त्वचा का इससे बेहतर सुबूत नहीं मिलेगा कि कुछ समय पहले तक लोग बड़े फख्र से एक जुमला दोहराते थे -  "सौ में से निन्यान्वे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान"

आज की सच्चाई यह है कि भारत में सौ के सौ बेईमान ही बसते हैं, कुछ मूलतः भ्रष्टाचारी ही पैदा होते हैं, कुछ को उनके पारिवारिक परिवेश से ऐसा होने की शिक्षा मिलती है, और बाकी को समाज बना डालता है और वे बन भी जाते हैं क्योंकि अगर वे भ्रष्टाचार की बहती नदी में हाथ धोने से इंकार कर दें तो वे जीवित रह पाने के ऐश्वर्य का लाभ नहीं उठा सकते। वे मार दिये जाते हैं या उनके ईर्द-गिर्द ऐसा माहौल बना दिया जाता है जिससे कि या तो वे खुद ही गरीबी, अभाव और शोषण भरा जीवन सहकर किसी गम्भीर बीमारी का शिकार होकर मर जायें या हालात से हारकर आत्महत्या करके परिदृष्य से हट जायें। 

आर्थिक सफलता को ही जीवन में सफल होने का एकमात्र पैमाना बना देने वाले देश- भारत में ईमानदार रह पाना सबसे बड़े जीवट का कार्य है। ऐसा कर पाना कम साहसी कार्य नहीं है। कोई ऐसा ठान भर ले उसके परिवार के लोग ही उसे ईमानदार नहीं रहने देंगे। संताने अपने ईमानदार पिता को कोसने का कोई भी मौका न चूकेंगी क्योंकि जब उनके पिता के भ्रष्ट सहयोगी अपनी काली कमाई के बलबूते अपने बच्चों को हर तरह की सुख सुविधा दे रहे हैं तो वे ही क्यों वंचितों जैसा जीवन जीकर उन भ्रष्ट लोगों के सुविधाभोगी बच्चों से अपना उपहास उड़वायें। जब सभी बेईमान हैं तो उनके पिता ही क्यों ईमानदार रहकर अपने जीवन को जोखिम में डालें और उन्हे अभावों से भरा जीवन जीने के लिये विवश करें? 

सत्यकाम एक ऐसे विशुद्ध ईमानदार युवक सत्यप्रिय (धर्मेंद्र) की कहानी है जो कि ईमानदारी से किसी भी किस्म का समझौता नहीं करता है और ईमानदारी को बनाये रखने के लिये उसे अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़ जाती है पर वह ईमानदारी से टस से मस नहीं होता। उसकी ईमानदारी की शुद्धता इतनी खरी है कि वह अपने श्रद्धेय दादाजी आचार्य सत्यदर्शन (अशोक कुमार) के परम्परागत विचारों को चुनौती देने से नहीं चूकता जब वे जन्म के आधार पर मानव-मानव में भेदभाव के विचारों का त्याग नहीं कर पाते। आचार्य सत्यदर्शन बहुत ही पवित्र किस्म का जीवन जीते हैं परंतु सत्यप्रिय के खरे सोने जैसी शुद्धता के सामने वे भी मिलावट वाले दिखायी देते हैं। उनका आध्यात्मिक विकास व्यवहार की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाता और सैद्धांतिक स्तर पर ही रह जाता है। सत्यप्रिय केवल आर्थिक मामलों में ही ईमानदार नहीं हैं बल्कि वे जीवन के हर क्षेत्र में ईमानदारी का सच्चाई और निडरता से पालन करते हैं। ईमानदारी उनका स्वभाव है और उनके लिये यह ऊपर से ओढ़ी गयी भावना मात्र नहीं है। 

एक रियासत के अय्याश राजा कुवंर विक्रम सिंह (मनमोहन) के रहमोकरम पर जीने वाली गायिका रंजना (शर्मीला टैगोर) का उनके जीवन में आना उनके मजबूत और ईमानदार व्यक्तित्व को और ज्यादा निखार कर सामने लाता है और जटिल परिस्थितियों में एक लड़खड़ाहट के बाद वे शीघ्र ही संभल जाते हैं और अपने अंदर के सच के साथ जीवन जीते हैं। वे भागते नहीं है बल्कि मुसीबतों का साहस के साथ मुकाबला करते हैं। 

उनकी ईमानदारी इतनी खरी है कि अभावग्रस्त जीवन जी रही रंजना सत्यप्रिय के अभिन्न मित्र नरेन (संजीव कुमार) से कहती हैं -  "सोने के जेवर बनाने के लिये थोड़ी तो खोट मिलानी पड़ती है" 

बेईमान लोग तो सत्यप्रिय के जीवन को कष्टमयी बनाने वाले हैं ही पर उनसे तो इससे इतर अपेक्षा भी नहीं की जा सकती परंतु सत्यप्रिय के जीवन को काँटों भरा बनाने में उनके परम मित्र नरेन जैसे लोग भी कम दोषी नहीं हैं। नरेन का भ्रष्टाचार सूक्ष्म किस्म का है और एकबारगी तो उन्हे कोई दोषी भी न ठहरायेगा परंतु वे भी कम दोषी नहीं है ईमानदार सत्यप्रिय की हत्या में।नरेन जैसे लोग हैं जो हालात से समझौता करते चले जाते हैं और भ्रष्टाचार के सामने सिर झुकाकर खड़े हो जाते हैं क्योंकि उनके पास न तो इतना नैतिक बल है कि वे ईमानदारी की धारदार तलवार पर नंगे पाँव चल सकें और न ही इतना साहस कि कम से कम ईमानदार लोगों के धर्मयुद्ध में उनका साथ ही दे सकें!

सत्यप्रिय तो जहाँ भी कार्य करते हैं वहीं उनकी मुठभेड़ भ्रष्टाचारी ताकतों से होनी ही होनी है और वे डरते भी नहीं हैं इन सब ताकतवार लोगों से। उन्होने बचपन से ही ईमानदारी का पालन करने की शिक्षा ग्रहण की है और ईमानदारी और सत्य का साथ बनाये रखने के विचार और खुद से किये वादे उनके अस्तित्व के सबसे अहम पहलू बन गये हैं। वे चाहे मर जायें पर वे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के सामने सिर नहीं झुकायेंगे। आज के दौर में ऐसे आदमी को पागल करार देकर पागलखाने में भरती कर दिया जायेगा क्योंकि उसकी ईमानदारी लोगों को चुभेगी और उन्हे ऐसा आदमी अपनी राह का सबसे बड़ा रोड़ा नजर आयेगा। 

जब तक सत्यप्रिय दूसरी जगहों पर कार्य करते रहते हैं और अपने बारे में सब सूचनायें अपने परम मित्र नरेन को पत्र द्वारा भेजते रहते हैं नरेन उनका सम्मान करते हैं और उन्हे सलाह देते रहते हैं कि थोड़ा बहुत समझौता तो करना ही पड़ता है और सत्यप्रिय को कुछ बातें सहन करके नौकरी करनी चाहिये जिससे कि वह जीवन में स्थायित्व पा सके। उन्होने सत्यप्रिय की ईमानदारी के तेज को सीधे सीधे देखा नहीं है परंतु ऐसी परिस्थितियाँ भी बन जाती हैं जब नरेन तो समझौतापूर्ण व्यवसायिक जीवन जीते हुये बड़े सरकारी अफसर बन जाते हैं और सत्यप्रिय एक ठेकेदार की कम्पनी में इंजीनियर बनकर उनके ही मातहत एक प्रोजेक्ट पर कार्य करने लगते हैं और तब पहली बार नरेन का सामना सत्यप्रिय की बला की ईमानदारी से होता है। 

दुष्ट भ्रष्टाचारी लोगों के साथ साथ नरेन जैसे समझौतापरस्त लोगों ने सत्यप्रिय की ईमानदारी पर परोक्ष और अपरोक्ष रुप से आक्रमण कर करके उन्हे इस हद तक ईमानदारी के प्रति सचेत बना दिया है कि वे नीचे ऑफिस से ऊपर स्थिर अपने घर में थोड़ी देर के लिये एक-दो कुर्सियाँ मेहमानों के बैठने के लिये लाने पर आपा खो बैठते हैं। नरेन के बार बार आग्रह करने के बावजूद वे ऑफिस का समय समाप्त होने से पहले ऊपर घर में उनके साथ चाय पीने के लिये जाने के लिये तैयार नहीं होते क्योंकि ऐसा करना उनके उसूलों के खिलाफ होगा। पर ऐसी स्थितियाँ लाने के लिये नरेन जैसे लोग कम जिम्मेदार नहीं हैं। 

नरेन, सत्यप्रिय के साथ ही इंजीनियरिंग कालेज में पढ़े हैं, वे सत्यप्रिय की ईमानदारी को जानते हैं, पहचानते हैं, उन्होने भी एक ईमानदार इंजीनियर के रुप में व्यवसायिक जीवन जीने की कसम खायी है।

वे और उनके दूसरे साथी अगर चाहते तो वे भी ईमानदार बने रहकर सत्यप्रिय जैसे ईमानदार लोगों के धर्मयुद्ध को समर्थन दे सकते थे, जिससे कि सब तरफ भ्रष्टाचार का ही बोलबाला न हो जाये। पर वे अपनी और अपने परिवार की आर्थिक भालाई के लिये भ्रष्ट शक्त्तियों के सामने झुक गये और इसका परिणाम यह हुआ कि सत्यप्रिय जैसे ईमानदार लोगों का जीवन भयानक कष्टों में बीतता रहा है। उन पर हर किस्म की जोर आजमाइश भ्रष्ट ताकतों ने की है और उन्हे हर तरीके से प्रताड़ित किया है। न सरकार ने, न जनता ने और न ही कानून ने ईमानदारी और ईमानदार लोगों का साथ दिया है और नतीजा सबके सामने है। आज भारत दुनिया के भ्रष्टतम देशों में सिरमौर है। स्विस बैंको में जमा काले धन में सबसे बड़ी हिस्सेदारी भारतीयों की है। इस भ्रष्टाचार ने भारत को बरसों से विकासशील देश ही बनाकर रखने की साजिश की है। करोड़ों लोग गरीबी के निम्नतम स्तर पर जीने के लिये विवश रहे हैं। इतना बड़ा नुकसान भारत का भ्रष्टाचार से हुआ है पर इस अंधे देश और इसके निवासियों को लाज नहीं आती और वे नींद में जीवन जिये चले जा रहे हैं। 

सत्यप्रिय देश, धरा और जीवन छोड़ जाते हैं। अगर लोगों को जरुरत नहीं है ईमानदारी और ईमानदार लोगों की तो लो… 
"कज़ा ले चली वे चले"
 तुम बैठे रहे भ्रष्टाचार की माला जपते हुये।

विषय, विस्तार और इसकी गहरी विवेचना के आधार पर देखा जाये तो सत्यकाम, हृषिकेश मुखर्जी की सबसे अच्छी फिल्म है। उन्होने बहुत ही अच्छे विषय को लेकर एक बहुत ही प्रभावशाली फिल्म बनायी है। एक बेहद गम्भीर विषय को विस्तार से खंगालती हुयी फिल्म आगे बढ़ती रहती है और दृश्य दर दृष्य, दर्शक हृषिदा के निर्देशन की तारीफ में अपने अंदर भाव उमड़ते हुये महसूस करता चला जाता है। कई बार रोंगटे खड़े हो जाते हैं किसी दृष्य को देखकर और कभी किसी संवाद को सुनकर। इस विषय पर इतनी अच्छी और रोचक फिल्म हिन्दी सिनेमा में बहुत ही कम हैं और निस्संदेह सत्यकाम इस श्रेणी की फिल्मों में सर्वोच्च स्थान रखती है। 

भारत के ब्रिटिश राज से स्वाधीनता पाने के समय लोभवश कुछ रियासतों द्वारा रचे गये प्रपंचों को फिल्म बहुत रोचक ढ़ंग से दिखाती है और बाद में हृषिदा एक कुशल शिल्पी की भाँति फिल्म को सत्यप्रिय के व्यक्तिगत जीवन के ईर्द-गिर्द आकार देते हुये भी देश को झझकोरने वाले बड़े सरोकार बनाये रखते हुये सत्यप्रिय की मूर्ति गढ़ते चले जाते हैं। आदर्श की स्थापना तो उनकी बहुत सारी फिल्मों का एक अहम हिस्सा रहा है और यहाँ तो ईमानदारी का आदर्श हर पल दर्शक के दिल के दरवाजे को खटखटाता रहता है। 

आसान नहीं था इस चरित्र को निभाना क्योंकि यह ईमानदारी के अतिरंजित रंग से भरा होने के कारण एक आयामी प्रतीत हो सकता था परंतु हृषिदा के कुशल निर्देशन में धर्मेंद्र अपने अभिनय जीवन का सर्वोत्तम अभिनय प्रदर्शन सत्यप्रिय के चरित्र के रुप में करते हैं।

फिल्म के अंत से कुछ समय पहले एक दृष्य है जिसमें अस्पताल में अपने जीवन के अंतिम समय की प्रतीक्षा कर रहे सत्यप्रिय के हाथ से उनका हस्ताक्षरित कागज देखने के बाद रंजना रोती हैं कि परिवार की भलाई की खातिर अंतिम समय में सत्यप्रिय ने ईमानदारी का साथ छोड़कर कागज पर हस्ताक्षर कर दिये और वह कागज को फाड़ देती हैं और जब पलट कर वे सत्यप्रिय की ओर देखती हैं तो उन्हे मुस्कुराते हुये पाती हैं। उनकी आँखों में आँसू और मुस्कुराहट में प्रेम, लाचारी और गर्व के मिश्रित भाव सम्मिलित हैं और एक यही दृष्य इस बात की लिखित गवाही स्वर्ण अक्षरों में देता है कि धर्मेंद्र ने इस चरित्र को बहुत ही ज्यादा गहराई से समझ लिया था। 

सत्यप्रिय के चरित्र की फौलादी मजबूती, शील, विशेषताओं और विवशताओं को धर्मेंद्र ने अपने व्यक्तित्व से जीवंत कर दिया है। ऐसे ही चरित्र और ऐसे ही महान अभिनय प्रदर्शन के लिये तो अभिनेता सारी ज़िंदगी तरसते हैं और धर्मेंद्र को उनके अभिनय जीवन के पहले दशक में ही ऐसा अवसर मिल गया और जिसका उन्होने भरपूर लाभ उठाया। 

अपने अभिनय जीवन के शुरुआती सालों से ही संजीव कुमार एक परिपक्व अभिनेता की भाँति अभिनय करते थे और इस फिल्म में भी उन्होने नरेन के चरित्र में उल्लेखनीय अभिनय प्रदर्शन कर दिखाया है। पुरुष चरित्र प्रधान फिल्म में भी शर्मीला टैगोर ने अपने अच्छे अभिनय प्रदर्शन के बलबूते अपने को एक उल्लेखनीय अभिनेत्री के रुप में प्रस्तुत किया है। सत्यजीत रे की कई बांग्ला फिल्मों में अभिनय कर चुके रोबी घोष इस हिन्दी फिल्म में भी अपनी उपस्थिति यादगार बना जाते हैं। 

ठोस कथा (नारायण सन्याल), प्रभावी कथानक (बिमल दत्ता) और बहुत ही प्रभावशाली संवादों (राजिन्दर सिंह बेदी) से सजी इस फिल्म में जो थोड़ा बहुत खटकता है वह है सत्यप्रिय के बीमार होने के बाद ठेकेदार लाडिया (तरुण बोस) के चरित्र का पलटा खाना। जहाँ पहले वे एक भ्रष्ट ठेकेदार के रुप में सत्यप्रिय को हानि पहुँचाना चाहते हैं बाद में उन्हे अस्पताल में रखते हैं रंजना को अपने घर में पनाह देते हैं और उनकी हर तरह से मदद करना चाहते हैं। ऐसा भलापन विरोधाभासी प्रतीत होता है और फिल्म की गुणवत्ता को कुछ हद तक प्रभावित करता है और ऐसा लगता है कि लाडिया के चरित्र में यह परिवर्तन ऊपर से थोपा गया था। 

लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने हृषिदा की इस फिल्म में संगीत दिया है।
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The End 
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समीक्षक : राकेश जी