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बुधवार, 2 मार्च 2011

फूंक दी जब से दिल में बसी बस्तियां .... -- 'डा० दीप्ति भारद्वाज'

डा० दीप्ति भारद्वाजdeepti ji
परिचय
जन्म : 25 जून 1973_/_जन्म स्थान : बरेली
वर्तमान निवास : 'चित्रकूट, 43, सिन्धु नगर, बरेली -243005
शिक्षा- एम. ए. हिंदी ; applied एम. ए. हिंदी ; applied एम.एड.; पीएच. डी. [हिंदीगुरु भक्त सिंह भक्त के काव्य में संवेदना और शिल्प]
कार्यक्षेत्र - प्रकाशन अधिकारी, इन्वरटिज ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशंस बरेली
2007 - रूहेलखंड विश्वविद्यालय, बी०एड० कालेज में अध्यापन
2006-हिंदी अधिकारी-भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद
अभिरुचि- आध्यात्मिक व राष्ट्रीय चेतना से जुड़े हर पहलू में.
प्रस्तुति : प्रकाश गोविन्द
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फूंक दी जब से दिल में बसी बस्तियां
हर तरफ हैं मेरे मस्तियाँ - मस्तियाँ ..
lady_galadriel
अब रहे न रहे मुझको कोई डर नहीं
शौक से फूंक दे घर मेरा बिजलियाँ ..
गम न कर मान ले इसमें उसकी रज़ा
तट पे आके जो डूबें तेरी कश्तियाँ
आएँगी अब यकीनन नयी कोपलें
पेड़ से झर गयी हैं सभी पत्तियाँ
जो भी दीखता है सब कुछ है फानी यहाँ
देखते -देखते मिट गयीं हस्तियाँ ..
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जीवन नाम हुआ करता है...
जीवन नाम हुआ करता है
मर्यादित प्रतिबंधों का ..
जिनकी केवल सुधियाँ करती
मन मरुथल को भी चन्दन वनGiacomo_Balla-Mercury_Passing_Before_the_Sun-Tempera_on_Canvas_Board-1914
जग के हस्ताक्षर से वंचित
पर जिन से अनुप्राणित तन मन

जीवन नाम हुआ करता है
कुछ ऐसे संबंधों का ..
माना श्रम उद्यम रंग लाते
फिर भी रेखा खिची कहीं पर
जहाँ आकडे असफल होते
हारे सभी अनेक जतन कर

जीवन नाम हुआ करता है
विधि के लिखे निबंधों का ..
पिंजरा तो पिंजरा होता है
चाहें रत्नजटित हो जाए
मस्ती में स्वछन्द घूमता
राह राह बंजारा गए
जीवन नाम हुआ करता है
उड़ते हुए परिंदों का ...
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दीप में रोशनी है......
टूट ही तो गया है सितारों का मन
रेशमी इन इशारों को फ़िर मत बुनो

एक सपना संजोया था मैंने कभीArcadia-#-1
पंखुडी पंखुडी हो बिखरता गया
देख कर उनके बदले हुए रूप को
रंग चेहरे का मेरे उतरता गया ...
धुप के हर पसीने की अपनी कथा
छाव में बैठ कर इस तरह मत सुनो ।

दीप में रोशनी है जलन भी तो है
मोम के इस बदन में गलन भी तो है
कि जीने की लगन है बहुत प्यार में
कि मरने का अनूठा चलन भी तो है ...
इन अंधेरों में मिलता बहुत चैन है
इन उजालों को तुम इस तरह मत चुनो ।
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अनुनय
मैं उन्ही की हूँ , उन्ही की थी , सदा उनकी रहूंगी ॥

गूँथ कर माना कि माला मैं उन्हें पहना न पाई
और जो प्रिय ने सुनाया गीत वो दोहरा न पाई
enchanted_flute
पर चरण पर चढ़ गईं चुपचाप जो कलियाँ प्रणय की
बन्धु! मैं उनको किसी को बीन ले जाने न दूंगी ॥

बन घटा सुधि की सलोनी प्रिय ह्रदय पर छा गए हैं
दूर तन से हों भले पर.... पास मन के आ गए हैं
पास भी कितने की पल भर को विलग होने न पायें
पीर के सब सिन्धु... आँचल में प्रणय के बाँध लुंगी॥

मैं उन्ही की हूँ , उन्ही की थी , सदा उनकी रहूंगी॥
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जाना अकेला है...
जाना अकेला है, फिर क्यों झमेला है .
मोह की कटीली इन झाड़ियों को काट देmoonbeams
खुद को न जोड़ तू थोडा - थोडा बाँट दे
मस्ती में डूबते जीवन तो मेला है..
आदमी को नाचना है साँसों की ताल पर
काल का तमाचा लगे हर किसी के गाल पर
चेत्य के बिना ये तन माटी का ढेला है ..

कामना की डोर तो आई कभी न हाथ
डाल- डाल हम रहे और चाह पात - पात
यही खेल भैय्या रे बार - बार खेला है ..
देखते ही देखते उम्र तो निकल गयी
सोन मछरिया जैसी हाथ से फिसल गयी
खोया रुपैय्या तूने पाया न ढेला है..
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The End
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बुधवार, 19 मई 2010

हे परमपुरूषों बख्शो..., अब मुझे बख्शो... -- सुश्री अरूणा राय

क्रिएटिव मंच पर आपका स्वागत है !

इस मंच के शुरआती दौर से ही हमने हिंदी व् अन्य भाषाओँ के चर्चित लेखक / लेखिका की चुनिन्दा रचनाएँ आप के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं ! इसी श्रृंखला के अंतर्गत आज प्रस्तुत हैं -'सुश्री अरुणा राय की छह बेहतरीन कवितायें'

आशा है आप का सहयोग एवं सराहना हमें पूर्ववत मिलता रहेगा और प्रस्तुत रचनाओं पर आप के विचारों की प्रतीक्षा रहेगी !
प्रस्तुति :- -प्रकाश गोविन्द


सुश्री अरूणा राय

aruna rai

परिचय

उपनाम : रोज
जन्‍म : इलाहाबाद
तिथि : 18 नवंबर 1986


प्रकाशन : छोटी उम्र से सक्रिय लेखन,
शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन !


fantasy
कितना छोटा है जीवन
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जीने के लिए
कितनी छोटी है दुनिया
चलने के लिए
कि आदमी पांवों से कम
हवाओं पे चलता है ज्‍यादाIMG_0015
भावों में कम
अभावों में पलता है ज्‍यादा
और बाकी रह जाते हैं सपने
बाकी रह जाता है जीना

एक एक सपने को
सच करने में लग जाते हैं
कई कई युग
पर सपने हैं कि दम नहीं तोडते कभी
अभाव के व्‍यंग्‍य से
जूते चबाता आदमी
देखता रहता है सपने
जीता रहता है सपने
और सच क्‍या है
उस स्‍वप्‍न के सिवा
जो आदमी की नींद में पलता है
जिसके लिए जगकर वह
मीलो मील चलता है
फिर थककर उसी सपने का हो रहता है !
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कुछ तो है हमारे बीच
===============
कुछ तो है हमारे बीच
कि हमारी निगाहें मिलती हैं
और दिशाओं में आग लग जाती है

कुछ तो है
कि हमारे संवादों पर
निगाह रखते हैं रंगे लोग
और समवेत स्‍वर में
करने लगते हैं विरोध

कुछ तो है कि रूखों पर पोती गयी कालिख
जलकर राख हो जाती है banner-artemis-detail2-DS-BA-024_t

कुछ तो है हमारे मध्‍य
कि हर बार निकल आते हैं हम
निर्दोष, अवध्‍य

कुछ तो है
जिसे गगन में घटता-बढता चांद
फैलाता-समेटता है
जिसे तारे गुनगुनाते हैं मद्धिम लय में
कुछ तो है कि जिसकी आहट पा
झरने लगते हैं हरसिंगार
कुछ है कि मासूमियत को
हमपे आता है प्‍यार...
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अदृश्य परदे के पीछे से
================
अदृश्य परदे के पीछे से
दर्ज़ कराती जाती हूँ मै
अपनी शामतें
जो आती रहती हैं बारहा

अक्सर
उन शामतों की शक्लें होती हैं
अंतिरंजित मिठास से सनी
इन शक्लों की शुरूआत
अक्सर कवित्वपूर्ण होती है
और अभिभूत हो जाती हूँ मै3801_symposium_200_tn
कि अभी भी करूणा,स्नेह,वात्सल्य से
खाली नहीं हुई है दुनिया

खाली नहीं हुई है वह
सो हुलसकर गले मिलती हूँ मै
पर मिलते ही बोध होता है
कि गले पड़ना चाहती हैं वे शक्लें
कि यही रिवाज है परंपरा है

कि जिसने मेरे शौर्य और साहस को
सलाम भेजा था
वह कॉपीराइट चाहता है
अपनी सहृदयता का, न्यायप्रियता का
उस उल्लास का
जिससे मुझे हुलसाया था

और ठमक जाती हूँ मै
सोचती हुई-
क्या चेहरे की चमक
मेरे निगाहों की निर्दोषिता
काफ़ी नहीं जीने के लिए

सोच ही रही होती हूँ कि
फ़ैसला आ जाता है परमपिताओं का
और चीख़ उठती हूँ -
हे परमपुरूषों बख्शो..., अब मुझे बख्शो!
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अभी तूने वह कविता कहाँ लिखी है, जानेमन
============================
अभी तूने वह कविता कहाँ लिखी है, जानेमन
मैंने कहाँ पढ़ी है वह कविता
अभी तो तूने मेरी आँखें लिखीं हैं, होंठ लिखे हैं
कंधे लिखे हैं उठान लिए
और मेरी सुरीली आवाज लिखी है

पर मेरी रूह फ़ना करते
उस शोर की बाबत कहाँ लिखा कुछ तूने
जो मेरे सरकारी जिरह-बख़्तर के बावजूद
मुझे अंधेरे बंद कमरे में
एक झूठी तस्सलीबख़्श नींद में ग़र्क रखता है Giacomo_Balla-Mercury_Passing_Before_the_Sun-Tempera_on_Canvas_Board-1914

अभी तो बस सुरमयी आँखें लिखीं हैं तूने
उनमें थक्कों में जमते दिन-ब-दिन
जिबह किए जाते मेरे ख़ाबों का रक्त
कहाँ लिखा है तूने

अभी तो बस तारीफ़ की है
मेरे तुकों की लय पर प्रकट किया है विस्मय
पर वह क्षय कहाँ लिखा है
जो मेरी निग़ाहों से उठती स्वर-लहरियों को
बारहा जज़्ब किए जा रहा है

अभी तो बस कमनीयता लिखी है तूने मेरी
नाज़ुकी लिखी है लबों की
वह बाँकपन कहाँ लिखा है तूने
जिसने हज़ारों को पीछे छोड़ा है
और फिर भी जिसके नाख़ून और सींग
नहीं उगे हैं

अभी तो बस
रंगीन परदों, तकिए के गिलाफ़ और क्रोशिए की
कढ़ाई का ज़िक्र किया है तूने
मेरे जीवन की लड़ाई और चढ़ाई का ज़िक्र
तो बाक़ी है अभी...

अभी तुझे वह कविता लिखनी है, जानेमन...
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आखिर हम आदमी थे
==============
इक्कीसवीं सदी के
आरंभ में भी
प्यार था
वैसा ही आदिम
शबरी के जमाने सा
तन्मयता वैसी ही थी
मद्धिम था स्पर्श
गुनगुना...
आखिर हम आदमी थे
इक्कीसवीं सदी में भी..
कि अपना ख़ुदा होना
=============
ग़ुलामों की
ज़ुबान नही होती
सपने नही होते
इश्क तो दूर
जीने की
बात नही होती
मैं कैसे भूल जाऊँ
अपनी ग़ुलामी
कि अपना ख़ुदा होना
कभी भूलता नहीं तू...
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The End
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बुधवार, 12 मई 2010

मत बांधिए उसके अन्दर की आग को -- 'ऋतु पल्लवी'

क्रिएटिव मंच पर आप का स्वागत है !

इस मंच के शुरआती दौर से ही हमने हिंदी व् अन्य भाषाओँ के चर्चित लेखक / लेखिका की चुनिन्दा रचनाएँ आप के समक्ष प्रस्तुत करते रहे हैं ! इसी श्रृंखला के अंतर्गत आज प्रस्तुत हैं -'डा० ऋतु पल्लवी की पांच बेहतरीन कवितायें'

आशा है आप का सहयोग एवं सराहना हमें पूर्ववत मिलता रहेगा और प्रस्तुत रचनाओं पर आप के विचारों की प्रतीक्षा रहेगी !
प्रस्तुति :- -प्रकाश गोविन्द


डॉ. ऋतु पल्लवी
Ritu Pallavi
परिचय

जन्म : 16 अक्तूबर 1978
जन्म स्थान : सीतामढी (बिहार)
शिक्षा- 'निर्मल वर्मा के उपन्यासों में चरित्र एवं परिवेश' पर शोध कार्य।
व्यवसाय- केंद्रीय विद्यालय में स्नातकोत्तर शिक्षिका हिंदी।
प्रकाशन- 'कादम्बिनी' में कविता, पूर्वग्रह (भारत भवन प्र.) में लेख, के.वि. त्रैमासिक पत्रिका में समय-समय पर लेख, कविता आदि। नेट पत्रिका 'अनुभूति' पर कविताएँ और 'अभिव्यक्ति' पर पुस्तक समीक्षा प्रकाशित।
रुचि- साहित्यिक पठन-पाठन एवं लेखन।

fire-storm-peter-shor
औरत
=====
पेचीदा, उलझी हुई राहों का सफ़र है
कहीं बेवज़ह सहारा तो कहीं खौफ़नाक अकेलापन है
कभी सख्त रूढि़यों की दीवार से बाहर की लड़ाई है...
..तो कभी घर की ही छत तले अस्तित्व की खोज है
समझौतों की बुनियाद पर खड़ा ये सारा जीवन
जैसे-जैसे अपने होने को घटाता है...
दुनिया की नज़रों में बड़ा होता जाता है
...कहीं मरियम तो कहीं देवी की महिमा का स्वरूप पाता है!
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जीने भी दो
==========
महानगर में ऊँचे पद की नौकरी
अच्छा-सा जीवन साथी और हवादार घर
यही रूपरेखा है-
युवा वर्ग की समस्याओं का और यही निदान भी। Fan-Death-II-500

इस समस्या को कभी आप तितली,
फूल और गंध से जोड़ते हैं,
रूमानी खाका खींचते हैं,
उसके सपनों, उम्मीदों-महत्वाकांक्षाओं का।

कभी प्रगतिवाद, मार्क्सवाद, सर्ववाद से जोड़कर
मीमांसा करते हैं उसके अन्तर्द्वन्द्व
साहस और संघर्ष की।
छात्र आन्दोलनों, युवा रैलियों, राजनीति से जोड़ते हैं
कभी उसके अन्दर के
विद्रोह, क्रान्ति और सृजन को।

मत बांधिए उसके अन्दर की आग को इन परिभाषाओं में
जिन से जुड़कर वह केवल
वाद, डंडों और मोर्चों का होकर रह जाता है।


जीने दीजिये उसे अपना नितांत निजी जीवन
अपने सपने, अपना संघर्ष
अपनी समस्याएँ, अपना निदान!
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वेश्या
=====
मैं पवित्रता की कसौटी पर पवित्रतम हूँpainting 001
क्योंकि मैं तुम्हारे समाज को
अपवित्र होने से बचाती हूँ।

सारे बनैले-खूंखार भावों को भरती हूँ
कोमलतम भावनाओं को पुख्ता करती हूँ।

मानव के भीतर की उस गाँठ को खोलती हूँ
जो इस सामाजिक तंत्र को उलझा देता
जो घर को, घर नहीं
द्रौपदी के चीरहरण का सभालय बना देता।

मैं अपने अस्तित्व को तुम्हारे कल्याण के लिए खोती हूँ
स्वयं टूटकर भी, समाज को टूटने से बचाती हूँ
और तुम मेरे लिए नित्य नयी
दीवार खड़ी करते हो।
'बियर बार' और ' क्लब' जैसे शब्दों के प्रश्न
संसद मैं बरी करते हो।

अगर सचमुच तुम्हे मेरे काम पर शर्म आती है
तो रोको उस दीवार पार करते व्यक्ति को
जो तुम्हारा ही अभिन्न साथी है।
मैं तो यहाँ स्वाभिमान के साथ
तलवार की नोंक पर रहकर भी,
तन बेचकर, मन की पवित्रता को बचा लेती हूँ

पर क्या कहोगे अपने उस मित्र को
जो माँ-बहन, पत्नी, पड़ोसियों से नज़रें बचाकर
सारे तंत्र की मर्यादा को ताक पर रखकर
रोज़ यहाँ मन बेचने चला आता है।
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क्यों नहीं
=========
नीला आकाश, सुनहरी धूप, हरे खेत
पीले पत्ते ही क्यों उपमान बनते हैं !

कभी बेरंग रेगिस्तान में क्यों
गुलाबी फूलों की बात नहीं होती ? Painting_P3_04.246162826

रूप की रोशनी ,तारों की रिमझिम,
फूलों की शबनमी को ही क्यों सराहते हैं लोग!

कभी अनमनी अमावस की रात में क्यों
चाँद की चांदनी नहीं सजती ?

नेताओं के नारे ,पत्रकारों के व्यक्तव्य
कवि के भवितव्य ही क्यों सजते हैं अखबारों में!

कभी आम आदमी की संवेदना का सम्पादन
क्यों नहीं छपता इन प्रसारों में ?

मैं तुम्हें प्रेम भरी पाती ,संवेदनशील कविता,सन्देश,आवेश
या आक्रोश कुछ भी न भेजूं!

फिर भी मुखरित हो जाए मेरी हर बात
कभी क्यों नहीं होता ऐसा शब्दों पर,मौन का आघात..?
***********************************************************
मृत्यु
======

जब विकृत हो जाता है,हाड़-मांस का शरीर
निचुड़ा हुआ निस्सार489
खाली हो जाता है
संवेदना का हर आधार..
सोख लेता है वक्त भावनाओं को,
सिखा देते हैं रिश्ते अकेले रहना (परिवार में)
अनुराग,ऊष्मा,उल्लास,ऊर्जा,गति
सबका एक-एक करके हिस्सा बाँट लेते हैं हम
और आँख बंद कर लेते हैं.
पूरे कर लेते हैं-अपने सारे सरोकार
और निरर्थकता के बोझ तले
दबा देते हैं उसके अस्तित्व को
तब वह व्यक्ति मर जाता है,अपने सारे प्रतिदान देकर
और हमारे केवल कुछ अश्रु लेकर..

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The End

गुरुवार, 28 जनवरी 2010

'लिखो तो प्यार पर लिखना' -- 'मधु मोहिनी'



madhu mohini ji
परिचय :

नाम : मधु ‘मोहिनी’ उपाध्याय
पति का नाम : श्री बृज मोहन उपाध्याय
शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी – संस्कृत), बी. एड.
सम्प्रति : केन्द्रीय विद्यालय, नोएडा में अध्यापिका
विशेष उपलब्धियाँ :
1- 1996 में राष्ट्रपति भवन में काव्यपाठ तथा अभिनंदन
2- 2001 में लाल-किले पर आयोजित राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन में काव्य पाठ
3- 2003 में संसद-भवन में आयोजित कवि सम्मेलन में काव्य पाठ व अभिनंदन
4. 2006 में सहारा सिटी में अमिताभ बच्चन जी के सान्निध्य में काव्य पाठ
पुरस्कार : केन्द्रीय विद्यालय संगठन, नई दिल्ली द्वारा वर्ष 1998 का प्रोत्साहन पुरस्कार संस्कार भारती हापुड़ द्वारा 2006 में सम्मान
प्रसारण : सभी विशिष्ट चैनलों पर पिछले पद्रह वर्षों से काव्य – पाठ
प्रकाशन : 1. ‘मधुमास हो तुम’ काव्य–पाठ संग्रह प्रकाशित 2. विभिन्न पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन एवं साक्षात्कार
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मधुमोहिनी सहज कवयित्री हैं...वे गुनगुना रही हैं इसका मतलब कि गीत में हैं। कोई-न- कोई रस का झरना अंदर झर रहा है। शब्द बूँद-बूँद बनकर जहाँ थिरकते हैं। स्वर अपनी मिठास बढ़ाते हुए हृदय की ओर महायात्रा करने लगते हैं।
:: डा॰ अशोक चक्रधर ::
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मधु जी के व्यवहार व काव्य में मधुरता है प्रेम उनकी कविता है स्वर में मिठास है ईश्वर में विश्वास है कुल मिलाकर मधु जी मोहिनी हैं.
:: राजेश चेतन ::
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मधुमोहिनी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। इनकी रचनाएँ एक सिद्धहस्त लेखनी का जादू बिखेरती हैं। मुझे विश्वास है कि इनकी रचनाएँ काव्य के क्षेत्र में बड़े आदर और सम्मान के साथ ग्रहण की जायेंगी।
:: गोपालदास नीरज ::
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- राखियों के तार, तार-तार हो गए -
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युद्ध-भूमि में जो वीर पुत्र सो गए
राष्ट्र-प्रेम के अमूल्य बीज बो गए
प्रेम का है अर्थ क्या हमें पढ़ा गए
ज़िन्दगी को नाम देश के चढ़ा गए
चोटियों पे रक्त की जो धार बही है
आग वही, राग वही, त्याग वही है
उनकी वीरता का गान कौन करेगा
शब्द हैं समर्थ नहीं मौन करेगा
हँसते-हँसते दुश्मनों के वार सह गए
वीर की न होती कभी हार कह गए
ऐसे धीर पुत्रों को नमन सभी करें
उनके पंथ का ही अनुगमन सभी करें

हम भी गाते-गाते जाएँ वंदेमातरम्
दम भी गाते-गाते जाए वंदेमातरम्

कितने ही स्वतन्त्रता की भेंट चढ़ गए
वक़्त के मुकुट में मोतियों से जड़ गए
जाने कितनी मांगों का सिंदूर धुल गया
मर गए तो क्या अमर्त्य मार्ग खुल गया
माँ की गोद हाय ! कितने सूनी कर गए
किन्तु राष्ट्रध्वज की शान दूनी कर गए
राखियों के तार, तार-तार हो गए
किन्तु वीर देश पर निसार हो गए
शोक वेदना की धुन विदाई दे गई
बस शरीर मात्र से जुदाई दे गई
ऐसे धीर पुत्रों को नमन सभी करें
उनके पंथ का ही अनुगमन सभी करें

हम भी गाते-गाते जाएँ वंदेमातरम्
दम भी गाते-गाते जाए वंदेमातरम्


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- लिखो तो प्यार पर लिखना -
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ये कहते हैं सभी मुझसे, लिखो तो प्यार पर लिखना
रँगी है ज़िंदगी जिसने, उसी श्रृंगार पर लिखना

न जब थे तुम, न थी वो धुन, न वो कविता, न वो गुनगुन
सजे जो साज़ पर सुर में, उसी झंकार पर लिखना

मेरा मन बावरा कहता है तुम पर ग्रन्थ रच जाऊँ
कलम कहती है लिक्खो तो दुःखी संसार पर लिखना

जिन्होंने वक़्त के रहते सँवारी ज़िंदगी अपनी
सँवारा वक़्त ने उनको समय की धार पर लिखना

लिखो उस पेड़ पर जो धूप में तपकर भी फल देता
झुकी फूलों से, ख़ुशबू से महकती डार पर लिखना

जो कुर्सी पर सजे हैं आज, कल क्या तों ख़ुदा जाने
तुम्हें उनसे है क्या लेना बस उनकी हार पर लिखना

जो लिखना है तो सूरज, चाँद-तारों पर भी लिख जाना
धरा को धारिणी शक्ति अटल आधार पर
लिखना

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- ये हमें हुआ तो हुआ है क्या? -
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मेरा मन ये चाहे लिखूँ नया, मगर आज कुछ भी नया है क्या?
वही दर्द है, वही आह है, अभी ख़ौफ़ दिल से मिटा है क्या?

न वो प्रीत है, न वो प्यार है, वही नफ़रतों की बयार है
वो जो घूमता था बहेलिया, यहाँ जाल उसका बिछा है क्या?

कहीं रास्ते नहीं सूझते, कहीं ज़िन्दगी से हैं जूझते
मिले जन्म फिर से मनुष्य का, भला हमने ऐसा किया है क्या?

कई रूप हैं, कई रंग़ हैं, यहाँ सबके अपने ही ढंग हैं
सभी गुम हैं अपने आप में, ये हमें हुआ तो हुआ है क्या?

मेरे साथ वे भी हैं चल रहे, जो क़दम-क़दम पे हैं छल रहे
अब उन्हें कहूँ भी तो क्या कहूँ, कभी यूँ किसी ने कहा है क्या?


********************************************************
- प्यार -
[लम्बे गीत का छोटा सा अंश]

===================
रूप को सिंगार दे तो जानिए वो प्यार है
रंग को निखार दे तो जानिए वो प्यार है
जीने की जो चाह दे तो जानिए वो प्यार है
ज़िंदगी को राह दे तो जानिए वो प्यार है
मोम-सा पिघल गया तो जानिए वो प्यार है
दर्द को निगल गया तो जानिए वो प्यार है
भावना को ज्वार दे तो जानिए वो प्यार है
रूप को सिंगार दे तो जानिए वो प्यार है
----------------------------------------------------
आँख बोलने लगे तो जानिए वो प्यार है
भेद खोलने लगे तो जानिए वो प्यार है
बिन कहे सुनाई दे तो जानिए वो प्यार है
हो न हो दिखाई दे तो जानिए वो प्यार है
हो के दूर पास हो तो जानिए वो प्यार है
मन युँ ही उदास हो तो जानिए वो प्यार है
दर्द से उबार दे तो जानिए वो प्यार है
रूप को सिंगार दे तो जानिए वो प्यार है
--------------------------------------------------------
गीत छन्द बोल द्दे तो जानिए वो प्यार है
माधुरी सी घोल दे तो जानिए वो प्यार है
बोल बिन ही बात हो तो जानिए वो प्यार है
औ जगाती रात हो तो जानिए वो प्यार है
मन में ज्वार सा उठे तो जानिए वो प्यार है
रोम – रोम गा उठे तो जानिए वो प्यार है
मधुर झंकार हो तो जानिए वो प्यार है
रूप को सिंगार दे तो जानिए वो प्यार है
------------------------------------------------

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- क्या बतलायें दिल की बातें -
===================
ना सोने से दिन लगते अब, ना चाँदी-सी रातें हैं
क्या बतलाएँ, किसे सुनाएँ, दिल में कितनी बातें हैं

तेज़ भागती रेल ज़िंदगी, पीछे सब कुछ छूट गया
ऐसा झटका दिया वक़्त ने, दर्पण-सा दिल टूट गया
आँसू अक्षर-अक्षर बनकर, छन्द-गीत लिखवाते हैं

होठों ने हाथों पर मेरे, जिस दिन अक्षर प्यार लिखा
लाज से फिर रँग गई हथेली, स्वर्ग-सा ये संसार दिखा
भीगी पलकें, सूखी अलकें, मिली चन्द सौग़ातें हैं

जाने कब वे दिन आएँगे, दूर करेंगे तनहाई
बस सपने में ही बज उठती, मेरे मन की शहनाई
जग सूना है, दुःख दूना है, यादों की बारातें हैं

युगों-युगों का साथ हमारा, ये दूरी क्या दूरी है
बरसों पहले भरी थी तुमने, मांग मेरी सिंदूरी है
मौत जुदा ना कर पाएगी, जनम-जनम के नाते हैं

रविवार, 29 नवंबर 2009

अनीता वर्मा की बेहतरीन कवितायें

प्रस्तुति :- प्रकाश गोविन्द

सुश्री अनीता वर्मा

Anita Verma


परिचय

अनीता जी रांची में रहती हैं । बेहद संवेदनशील और सचेत यह लेखिका हमेशा अपनी अथक जिजीविषा से बहुत प्रभावित और आकर्षित करती रही हैं। पिछले कई सालों से दुर्भाग्यवश उनका स्वास्थ्य बहुत ज़्यादा खराब रहा है और पता नहीं कितने आपरेशन उनके हुए हैं। उसके बावजूद समय निकाल कर वे लिखती रहती हैं और चुनिन्दा पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं देखने को मिलती रहती हैं।

अनीता की कविताएँ बाउंडरीलेस हैं और ये समाज की व्याधियों की शिनाख्त करती हैं।
-- लीलाधर जगूड़ी
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अनीता वर्मा जी की कविताएँ सारतात्विक हैं तथा इनमें अपूर्व दार्शनिक संयम है।
--मंगलेश डबराल
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अनीता वर्मा का काव्य संग्रह जन्म-जन्मांतर की अवधारणा का निषेध करता है।
-- अष्टभुजा शुक्ल
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अनीता वर्मा की कविताओं की गंध, रूप, रस और छुअन औरों से अलग है तथा इनका शिल्प ऐसा है जैसे सांगीतिक बंदिशों में उपनिबद्ध हो।
--ओम निश्चल

अनीता वर्मा का नाम आज सर्वाधिक चर्चित है। अनीता वर्मा की कवि दृष्टि किसी छद्म को रचने की जगह सत्य के विभिन्न रंगो को दिखा रही है। इस बार क्रिएटिव मंच पर अनीता वर्मा जी की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं :
प्रभु मेरी दिव्यता में
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प्रभु मेरी दिव्यता में
सुबह-सबेरे ठंड में कांपते
रिक्शेवाले की फटी कमीज़ ख़लल डालती है

मुझे दुख होता है यह लिखते हुए
क्योंकि यह कहीं से नहीं हो सकती कविता
उसकी कमीज़ मेरी नींद में सिहरती है
बन जाती है टेबल साफ़ करने का कपड़ा
या घर का पोछा
मैं तब उस महंगी शॉल के बारे में सोचती हूं
जो मैं उसे नहीं दे पाई

प्रभु मुझे मुक्त करो
एक प्रसन्न संसार के लिए
उस ग्लानि से कि मैं महंगी शॉल ओढ़ सकूं
और मेरी नींद रिक्शे पर पड़ी रहे.

पुरानी हंसी

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मुझे अच्छी लगती है पुरानी कलम
पुरानी कापी पर उल्टी तरफ़ से लिखना
शायद मेरा दिमाग पुराना है
या मैं हूं आदिम
मैं खोजती हूं पुरानापन
तुरत आयी एक पुरानी हंसी
मुझे हल्का कर देती है
मुझे अच्छे लगते हैं
नए बने हुए पुराने संबंध
पुरानी हंसी और दुख और चप्पलों के फ़ीते
नयी परिभाषाओं की भीड़ में
संभाले जाने चाहिए पुराने संबंध
नदी और जंगल के
रेत और आकाश के
प्यार और प्रकाश के ।

मेरे दोस्त
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मेरे दोस्त जब पहनने के लिए
मिले रेशमी वस्त्र
खाने के लिए मिले लजीज गोश्त
नहाने के लिए मिले खुशबुदार साबुन
सोने के लिए मिले आरामदेह बिस्तर
तो तय है कि साथ मिलेगा एक
खूबसूरत पट्टा जंजीर के साथ

बुजुर्गों से
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हम चलते रहे अपनी चाल
आपको पीछे
कर चुप्पी को अनसुनी कर
हम गिरते रहे अपने हाल
दरवेश किस्से सुनाते रहे
नौजवान पैंचे लड़ाते रहे
इसी बीच बाजार में
बिकने लगे नाती पोते।
गिरना

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रहस्यों को समझने से ज़्यादा ज़रूरी है
चीज़ों के होने को समझना
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मज़बूती से खड़े हैं पहाड़
समुद्र में आता है ज्वार
पृथ्वी घूमती है लट्टू की तरह
मनुष्य गिरता जाता है गर्त्त में
इनके कुछ कारण और जवाब हैं हमारे पास
हमें रहना और होना होता है इनके बीच

पृथ्वी की घूमती चक्की में कोई रुकावट नहीं है
समुद्र उछाल ही लेता है अपना पानी
पहाड़ गंजे होने के बावजूद खड़े हैं अपने
आदिम पत्थरों के साथ
लेकिन मनुष्य
वह लेटा है पेट के बल पैसे बटोरता हुआ
भागता खोया हुआ बाज़ारों में
एक साथ खुश और डरा हुआ
जैसे कोई बीमार अपनी ही तीमारदारी करता हुआ
वह पहचानता है दुश्मन को
उसके हज़ार हाथों के साथ
अपने घरों में बैठ उससे दोस्ती करता है
मिलाता है हाथ
आओ रहो हमारे घर
अभी हम और गिरने को तैयार हैं ।


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The End
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शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2009

निर्मला कपिला जी की श्रेष्ठ रचनाएं

प्रस्तुति :- प्रकाश गोविन्द



परिचय


स्वास्थ कल्यान विभाग मे चीफ फार्मासिस्ट के पद से सेवानिवृ्त् होने के बाद लेखन कार्य के लिये समर्पित हैं ! 'कला साहित्य प्रचार मंच’ की अध्य़क्ष हैं !

2004 से विधिवत लेखन प्रारंभ ! अनेक पत्र पत्रिकायों मे प्रकाशन, विविध-भारती जालंधर से कहानी का प्रसारण !
तीन पुस्तकें प्रकाशित व अन्य दो पुस्तकें प्रकाशन की दिशा में अग्रसर
1. सुबह से पहले---कविता संग्रह
2. वीरबहुटी---कहानी संग्रह
3. प्रेम सेतु---कहानी संग्रह

सम्मान : पँजाब सहित्य कला अकादमी जालन्धर से सम्मान, ग्वालियर सहित्य अकादमी ग्वालियर की से ‘शब्द-माधुरी’ सम्मान, ‘शब्द भारती सम्मान व विशिष्ठ सम्मान, इसके अतिरिक्त कई कवि सम्मेलनो़ मे सम्मानित ! अंतरजाल पर निरंतर सक्रिय हैं और ब्लॉग संचालन भी करती हैं !

मेरी तलाश

मुझे तलाश थी एक प्यास थी
तुम मे आत्मसात हो जाने की
डूबते सूरज की एक किरण को
आत्मा मे संजोये निकली थी
तुम्हें ढूँढने / मैने देखा
कई बडे बडे देवों मुनियों को
किन्हीं अपसराओं मेनकाओं पर
आसक्त होते
तेरे नाम पर लडते झगडते
लूटते और लुटते तेरे नाम पर
खून की नदियाँ बहाते
अब कई साधु सँतों की दुकानों पर
तेरा नाम भी बिकने लगा है
फिर मन मे सवाल उठते
कैसे तुम भरमाते हो जानती हूँ
मेरी प्यास के लिये भी
तुम नित नये कूयेँ दिखा देते हो
डूबती नित मगर प्यास
फिर भी शेष रहती
तुम्हें पाने की तुम मे
आत्मसात हो जाने की
इसलिये तुम्हारी सब तस्वीरों को
राम-कृ्ष्ण-खुदा-गाड
सब को एक फ्रेम मे
बँद कर दिया है
ताकि तुम आपस मे
सुलझ लो और खुद लौट आयी हूँ
अपने अन्तस मे
और यहाँ आ कर मैने जाना की
तेरे किसी रूप को चेतना नहीं है
बल्कि तुम सब की सी
चेतना को चेतना है
तुझे पूजना नहीं है
तुम सा जूझना है
त्तुम्हें जपना नहीं
तुम सा तपना है
तुम्हारी साधना नहीं
खुद को साधना है
कितना सुन्दर है
धर्म से अध्यात्म का पथ
जहाँ तू मैं सब एक है
और अब मेरी प्यास शाँत हो गयी है !!
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क्या पाया

ये कैसा शँख नाद, कैसा निनाद
नारी मुक्ति का
उसे पाना है अपना स्वाभिमान
उसे मुक्त होना है
पुरुष की वर्जनाओ़ से
पर मुक्ति मिली क्या?
स्वाभिमान पाया क्या?
हाँ मुक्ति मिली बँधनों से
मर्यादायों से कर्तव्य से...
सहनशीलता..सहिष्णुता से...
सृ्ष्टि सृ्जन के कर्तव्यबोध से..
स्नेहिल भावनाँओं से
मगर पाया क्या
स्वाभिमान या अभिमान
गर्व या दर्प
जीत या हार
सम्मान या अपमान
इस पर हो विचार क्यों कि
कुछ गुमराह बेटियाँ
भावोतिरेक मे
अपने आवेश मे
दुर्योधनो की भीड मे
खुद नँगा नाच दिखा रही हैँ
मदिरोन्मुक्त जीवन को
धूयें मे उडा रही हैं
पारिवारिक मर्यादा भुला रही हैं
देवालय से मदिरालय का सफर
क्या यही है तेरी उडान
डृ्ग्स देह व्यापार
अभद्रता खलनायिका
क्या यही है तेरी पह्चान
क्या तेरी संपदायें
पुरुष पर लुटाने को हैँ
क्या तेरा लक्ष्य
केवल उसे लुभाने मे है
उठ उन षडयँत्रकारियों को पहचान
जो नहीं चाहते
समाज मे हो तेरा सम्मान
बस अब अपनी गरिमा को पहचान
और पा ले अपना स्वाभिमान
बँद कर ये शँखनाद
बँद कर ये निनाद् !!
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अमर कवितायें

कुछ कवितायें कहीं लिखी नहीं जाती
कही नहीं जाती
बस महसूस की जाती हैं
किसी कोख मे
वो कवियत्री सीख् लेती है
कुछ शब्द उकेरने
भाई की कापी किताब से
जमीन पर उंगलियों से
खींच कर कुछ लकीरें
लिखना चाह्ती है कविता
बिठा दी जाती है डोली मे
दहेज मे नहीं मिलती कलम
मिलता है सिर्फ फर्ज़ो का संदूक
फिर जब कुलबुलाते हैं
कुछ शब्द उसके ज़ेहन मे
ढुढती है कलम
दिख जाता है घर मे
बिखरा कचरा,कुछ धूल
और कविता कर्तव्य बन समा जाती है
झाडू मे और सजा देती है
घर के कोने कोने को
उन शब्दों से फिर आते हैं कुछ शब्द
कलम ढूढती है पर दिख जाती हैं
दो बूढी बीमार आँखें
दवा के इंतजार मे
बन जाती है कविता करुणा
समा जाते हैं शब्द
दवा की बोतल मे
जीवनदाता बन कर
शब्द तो हर पल कुलबुलाते
कसमसाते रहते हैं
पर बनाना है खाना
काटने लगती है प्याज़
बह जाते हैं शब्द
प्याज की कडुवाहट मे
ऐसे ही कुछ शब्द बर्तनों की
टकराहत मे हो जाते है घायल
बाकी धूँए की परत से धुंधला जाते हैं
सुबह से शाम तक चलता रहता है
ये शब्दों का सफर्
रात में थकचूर कर
कुछ शब्द बिस्तर की सलवटों
मे पडे कराहते तोड देते हैं दम
पर नहीं मिलती कलम
नही मिलता वक्त
बरसों तक चलता रहता है
ये शब्दों का सफर
बेटे को सरहद पर भेज
फुरसत मे लिखना चाहती है
वीर रस मे
दहकती सी कोई कविता
पर तभी आ जाती है
सरहद पर शहीद बेटे की लाश
मूक हो जाते हैं शब्द
मर जाती है कविता एक माँ की
अंतस मे समेटे शहादत
की गरिमा ऐसे ही
कितनी ही कवियत्रियों को
नहीं मिलती कलम
नहीं मिलता वक्त
नहीं मिलता नसीब
हाथ की लकीरों पर ही
तोड देती हैं दम जन्म से पहले
जो ना लिखी जाती हैं, ना पढी जाती हैं
बस महसूस की जाती हैं
शायद यही हैं वो अमर कवितायें !!
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शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009

इला जी की उत्कृष्ट कवितायें

प्रस्तुति :- प्रकाश गोविन्द


सुश्री इला कुमार


परिचय


1
मार्च 1956 को मुज़फ्फरपुर - बिहार में जन्म. एम्. एससी. (फिजिक्स), बी.एड. तथा एल.एल.बी. कुछ वर्षो तक अध्यापन. तीन वर्ष सिंहभूम के आदिवासी जन-जीवन का विशेष अध्ययन. कविताओं और कहानियों के अलावा शैक्षिक, सामाजिक तथा वेदान्तिक विषयों पर सक्रिय लेखन. शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन. कुछ कविताएँ बंगला, पंजाबी, अंग्रेज़ी में अनुदित

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तुम्हारा नाम


लिखा, मिटाया
फिर लिखा, फिर मिटाया,
पता नहीं कितनी बार
नंगी चट्टान की इस रुखी कठोर छाती पर
तुम्हारा नाम
वही नाम
जो हमारे बीच के स्वप्निल पलों के बीच पला,
संबंधों के गुलाबी दायरों के बीच दौड़ा
आंखो के जादू में समाया समाया,
आखिर एक दिन
किसी नाजुक से समय में
मेरे होठों से फिसल पड़ा था,
और तुमने सदा-सदा के लिए
उसे अपने लिए सहेज लिया था
वही नाम
जो आज तुम्हारे लिए है,

शायद इसलिए ही इतना प्यारा है

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फूल, चाँद और रात

अब कोई नहीं लिखता
कविता फूलों की सुगन्ध भरी
रात नहाई हो निमिष भर भी
चांदनी में
फूलों के संग
पर कोई नहीं कहता
उस निर्विद्ध निमिष की बात
जो अब भी टिका है
पावस की चम्पई भोर के किनारे
चांदनी की बात
झरते हुए हारसिंगार तले
बैठकर रचे गए विश्वरूप
श्रंगार की बात
अभी अभी साथ की सड़क पर गुजरा है
मां के साथ
मृग के छौने सरीखा
रह रहकर किलकता हुआ बालक
चलता है वह नन्हे पग भरता
बीच बीच में फुदकना
उसकी प्रकृति है
कोई नहीं करता प्रकृति की बात
फूल चांद और रात की बात।
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माँ की तस्वीर

मम्मी माँ मम्मा अम्मा, मइया माई
जब जैसे पुकारा, माँ अवश्य आई
कहा सब ने माँ ऐसी होती है माँ वैसी होती है
पर सच में, माँ कैसी होती है
सुबह सवेरे, नहा धोकर, ठाकुर को दिया जलातीं
हमारी शरारतों पर भी थोड़ा मुस्काती
फिर से झुक कर पाठ के श्लोक उच्चारती
माँ की यह तस्वीर कितनी पवित्र होती है
शाम ढले, चूल्हा की लपकती कौंध से जगमगाता मुखड़ा
सने हाथों से अगली रोटी के, आटे का टुकड़ा
गीली हथेली की पीठ से,
उलझे बालों की लट को सरकाती
माँ की यह भंगिमा क्या ग़रीब होती है ?
रोज-रोज, पहले मिनिट में पराँठा सेंकती
दूसरे क्षण, नाश्ते की तश्तरी भरती
तेज क़दमों से, सारे घर में,
फिरकनी सी घूमती
साथ-साथ, अधखाई रोटी,
जल्दी-जल्दी अपने मुँह में ठूसती
माँ की यह तस्वीर क्या इतनी व्यस्त होती है ?
इन सब से परे, हमारे मानस में रची बसी
सभी संवेदनाओं के कण-कण में घुली मिली
हमारे व्यक्तित्व के रेशे से हर पल झाँकती

हम सब की माँ, कुछ कुछ ऐसी ही होती है।

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तुम कहो

तुम कहो
एक बार
वही बात
जो मैंने कही नहीं है
तुमने सुनी है
बार बार
वही बात
तुम कहो !!!

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शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

अग्निशेखर जी की मर्मस्पर्शीय कवितायें

प्रस्तुति :- प्रकाश गोविन्द


अग्निशेखर

agni shekhar

परिचय
कश्मीर के विस्थापित कवि, जो अलग रहते हुए भी कश्मीर को अपने दिल से कभी जुदा ना कर सके, अतः कश्मीरी साहित्य को विश्व के सम्मुख लाने मे संल्लग्न हैं ।

हिन्दी में तीन कविता संग्रह हैं : किसी भी समय , मुझसे छीन ली गई मेरी नदी , कालवृक्ष की छाया में आतंक और आक्रमण के साये में कविता की छाँव फैलाने वाले इन कवि का कवित्व समकालीन सन्दर्भ में विशेष सार्थक है !

New

दस्तकें

बन्द दरवाज़ों ने
बुलाया दस्तकों को
अपने पास
घबराया समय
और दस्तकों को
हुआ कारावास
इस तरह हर युग में
बन्द दरवाज़े रहे उदास

जोख़िम

एक लड़की करती है
किसी से प्यार
सड़कों पर दौड़ने लगती हैं दमकलें
साइरन बजाते
कवि चढ़ता है अपनी छत पर
और मुस्कुराता है कुछ पल
वह बदल देता है
अपनी कविता का शीर्षक
बच निकलती है लड़की

कश्मीरी मुसलमान –1

कितना भीग जाता है मेरा मन
खुली-खुली पलकों से आकर
टकराता है घर
मेरा देश
पूरा परिवेश
खुलती हैं घुमावदार गलियाँ
उनमें खेलने लग पड़ता है बचपन
बतियाती हैं पड़ोस की अधेड़ महिलाएँ
मज़हब से परे होकर
एक बूंद आँसू से धुल जाती हैं
शिकायतें
जलावतनी में जब देखता हूँ


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कश्मीरी मुसलमान – 2

हमारी एक-दूसरे को सीधे
देखने से कतराती हैं आँखें
हम एक-दूसरे को नहीं चाहते हैं
पहचान पाना इस शहर में

दोनों हैं लहुलुहान
और पसीने से तर

फिर भी
ठिठक जाते हैं पाँव
कि पूछें, कैसे हो भाई
किसी भी कश्मीरी मुसलमान को

तमस

तमस हर तरफ़ खिंचा-पसरा था
जैसे खड़ा था सामने एक भयानक रीछ
और हम सहमे हुए थे
खो गया था सबका दिशाबोध
घड़ियों में बज रहा था कुछ
पता नहीं कहाँ पर थे उस वक़्त खड़े हम
ख़त्म हो जाने के खिलाफ़ मूक
किसी छोर से सूरज उगने तक
हमने बचाई किसी तरह
जीवन की लौ

हम ही

अनुमान लगा सकते हैं हम
किसका शव मिला होगा वितस्ता नदी से
किसको दी गई होगी फाँसी
सेबों के बाग़ में
किसको ले गए होंगे घर से उठाकर
आँसू किसके गिरे होंगे
ओस की तरह
घास पर
अनुमान लगा सकते हैं हम
यहाँ जलावतनी में



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The End
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