परिचय जन्म स्थान : ऊना, हिमाचल प्रदेश वर्तमान निवास : नई दिल्ली विशेष अभिरुचियाँ : कार्टून, कुछ हिन्दी पत्रिकाएं, इन्टरनेट सर्फिंग, आउटडोर खेल, लॉन्ग ड्राइव सैर, ढेर सारा विविध संगीत, खूब सोना.....
कार्टून झलकियाँ
| सवाल : आप कार्टून कब से बना रहे हैं ? उ0- कार्टून बनाना मैंने कालेज के ज़माने में शुरू किया. हालांकि चित्रकला में रूचि बचपन से ही थी पर कार्टून बनाने के बारे में कभी नहीं सोचा था.
सवाल : आपके कार्टूनिस्ट बनने की कहानी क्या है ? उ0- हा हा हा… इसके पीछे कोई कहानी नहीं है. वास्तव में ही कोई कहानी नहीं है. सिवा इसके कि ‘विचार’ बिजली की सी मार करने वाला होता है अब आप इसे चाहे कविता/ग़ज़ल में कह लें, या फिर इसके ठीक उलट, चाहे गाली में. ठीक यही इन्टेंसिटी कार्टून बनाने के पीछे होती है. इसके बाद, कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचनी भर आनी चाहिये….बस्स.
सवाल : अब तक आप लगभग कितने कार्टून बना चुके होंगे ? उ0 - आह ! कुछ पता नहीं … शायद हज़ारों.
सवाल : वैसे तो आपके बनाए बेशुमार कार्टून हैं जिनकी तारीफ़ की गई, फिर भी जहन में अपना बनाया कोई ख़ास कार्टून जिसे ख़ास सराहना मिली हो, कोई याद आता है ? उ0- नहीं ऐसा कुछ विशेष तो याद नहीं आता…पर हां, समय-समय पर अलग-अलग कार्टून अपनी महत्ता रखते आए हैं. (मैं यूं भी याददाश्त को ज़्यादा कष्ट देने में खास भरोसा नहीं रखता :-)).
सवाल : क्या आप हमें बताएँगे कि आपके कार्टून कहाँ-कहाँ प्रकाशित हो चुके हैं ? उ0- ये सबसे कठिन सवालों में से एक है. कहां से शुरू करूं …लगभग 25 साल तक तो हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका ‘लोटपोट’ के लिए ही दो फ़ीचर ‘चिंप्पू’ और ‘मिन्नी’ लगातार बनाए. साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, नवनीत, सत्यकथा, मेला, बाल भारती, Children’s World…. और भी न जाने कहां-कहां बल्कि सच तो यह है कि जिस भी पत्र-पत्रिका को फ़्रीलांसरों से परहेज़ नहीं होता था वहां-वहां कार्टून छपते ही रहते थे. वह भी एक समय था जब कार्टून बनाना एक नशे की तरह था :-)
सवाल : आप किसी कार्टून का सृजन कैसे करते हैं .. मतलब प्रोसीजर क्या है ? क्या कोई ख्याल आते ही कुछ नोट्स वगैरह लिख लेते हैं या तुरंत ही निर्माण में जुट जाते हैं ? उ0- आमतौर से विचार को नोट करके रख लेना और फिर बाद में आराम से, जब भी मूड हो, कार्टून बनाना ही मेरी रचना प्रक्रिया का पर्याय है. लेकिन हां, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आप उसी वक्त कार्टून बनाना चाहते हैं.
सवाल : कई बार कोई कार्टून विवाद का मुद्दा भी बन जाता है ! यह अनायास ही हो जाता है या लाईम लाईट में आने अथवा सनसनी बनाने के लिए क्रियेट किया जाता है ? उ0- लाईम लाईट में आने का सही तरीक़ा केवल ईमानदारी से मेहनत करना ही है पर हां, आज के बदल रहे परिवेश में सनसनी टाइप काम करने से भी लोगों को परहेज़ नहीं होता है, भले ही व्यक्तिगत रूप से मैं इसे दु:खद मानता हूं.
सवाल : हर कलाकार का कोई न कोई आईडियल होता है. आप किससे प्रभावित रहे ? उ0- हम्म्म… शायद मैं इस मामले में कुछ स्वतंत्र सा रहा हूं पर हां मारियो मिरांडा व अजीत नैनन का काम मुझे नि:संदेह बहुत पसंद आता है. मैं इनके काम का फ़ैन हूं. केवल रेखाचित्र ही नहीं, उनका pun भी बीहड़ रहता आया है. लेकिन यह तय है कि मैं इनकी जितनी मेहनत नहीं कर सकता :-)
सवाल : क्या किसी पुराने कार्टूनिस्ट का कोई ऐसा कार्टून है जो आपके दिलो दिमाग में आज भी बसा हो ? उ0- मुझे तो कई बार अपने ही बनाए कार्टून देख कर हैरानी होती है… अरे ! ये कब बनाया ! कुछ मुश्किल सा है इस समय याद करना. वास्तव में, एक समय के बाद आप किसी की भी कला-शैली के अभ्यस्त हो जाते हैं, ऐसे में किसी चित्र-विशेष का कोई बहुत अधिक महत्व नहीं रह जाता.
सवाल : कार्टूनिस्ट के रूप में लम्बी और सशक्त पारी खेलने का मूल-मंत्र क्या है ? उ0- आपके भीतर एक ग़ज़ब का गुस्सैल लेकिन शरारती और एकदम मस्त बच्चा हमेशा खेलता रहना चाहिये …बस्सस. साथ ही साथ, हर रोज़ सीखते रहने से भी कार्टूनिंग में मज़ा बना रहता है.
सवाल : एक अच्छे कार्टूनिस्ट की परिभाषा आपके दृष्टिकोण से क्या है ? उ0- जो piercing धारदार बात कहता हो, उठा कर धड़ाम से पटक देता हो चारों-खाने चित.
सवाल : हमने सुना है कि आप आवाज़ की दुनिया से भी जुड़े हैं .क्या यह सच है ? उ0- :-) अब मैं स्वयं को कई बातों के संदर्भ में भूतपूर्व मानता हूं व नए लोगों के नए-नए प्रयोगों में खूब आनंद लेता हूं. प्रसारण भी एक ऐसी ही विधा रही जिससे जुड़ कर, एक समय मैंने पर्याप्त आनंद पाया. आजकल मैं एक अच्छा श्रोता हूं.
सवाल : भारत में आज भी इस कला को वह पहचान नहीं मिली जो विदेशों में इस कला को मिली है,ऐसा क्यूँ ? उदाहरण के लिए दुबई में ग्लोबल विलेज में हमारा एक रंगीन कार्टून ओन स्पोट बना कर देने वाले कलाकार प्रति व्यक्ति साठ दिरहम चार्ज करते हैं. उ0- शायद खुद पर हंसना, हमें अभी भी सीखना है. हमारे यहां लोग कार्टूनिस्ट से अपना कार्टून बनवाने की ज़िद तो कर लेते हैं पर अधिकांशत: मन में पोर्टेट देखने की इच्छा रखते हैं. इसके अलावा भी बहुत से कारण हैं जैसे, हमारे यहां किसी भी चीज़ की मार्केटिंग का रिवाज नहीं रहा है. मसलन प्रकाशकों को ही ले लीजिए, वे बस कुछ भी छाप देना भर ही इतिश्री मान लेते हैं जबकि विकसित देशों में प्रकाशन से कहीं ज़्यदा पैसा, नीति के अंतर्गत, किताब के प्रचार-प्रसार में लगाया जाता है यही हाल कार्टूनिंग का है. कार्टून-प्रदर्शनी से कार्टून ख़रीद कर कोई अपने दफ़्तर/ड्राईंगरूम में लगाएगा, सोचना मुश्किल लगता है, कई सीमाएं भी हैं इस कला की.
कार्टून चरित्र को प्रचारित करने में भी अथाह मेहनत की उम्मीद की जाती है. मुझे याद नहीं कि किसी पत्रिका की डमी में कार्टून भी रखा जाता हो. संपादकीय लिखने वालों का स्थान समाचार-पत्र में खासा अच्छा होता है पर एक कार्टून में पूरा संपादकीय कह देने वाले कार्टूनिस्ट को वही स्थान देने की सोच स्वीकार करने में ही बहुत समय लग जाता है. प्रकाशन-प्रसारण के धंधे वाले लोगों में कार्टूनिंग के प्रति समुचित रूचि नहीं दिखती. इस क्षेत्र में सिंडीकेशन के बारे में लोग सोचते तो हैं पर कोई समुचित प्रयास नहीं किया जाता कि पूरे देश के विभिन्न प्रकाशनों में इन्हें समुचित रूप से वितरित भी किया जाए. सिंडीकेशन भी आधा-अधूरा प्रयास होता है, न कि व्यवसायिक उपक्रम. लोग उम्मीद करते हैं कि कार्टूनिस्ट ख़ुद ही सिंडीकेशन भी चलाए. कामिक्स तक को प्रचारित करने का कोई समुचित प्रयास नहीं किया जाता. हैरी पाटर को आज पूरी दुनिया जानती है, चंद्रकांता संतति को हिन्दी भाषी ही जान लें तो भी बहुत…दोनों ही कल्पना की उड़ान हैं, बस मार्केटिंग का आंतर है.
सवाल : एक रोचक बात ओब्सेर्व की गयी है कि अधिकतर कार्टूनिस्ट पुरुष ही हैं महिलाएं नहीं ,ऐसा क्यूँ ? उ0- मैंने तो कभी ध्यान ही नहीं दिया था इस बात पर. लेकिन आपकी बात है सही. उंहु… पर कुछ नहीं कह सकता कि ऐसा क्यों है. पेंटिंग में तो एक से एक बढ़िया महिला कलाकार हैं. नि:संदेह महिलाओं को इस क्षेत्र में भी अवश्य आना चाहिये.
सवाल : नई तकनीक आने के बाद अब एक कार्टूनिस्ट का काम कितना आसान हुआ है ? उ0- जी एकदम. कार्टूनिंग में कुछ काम ऐसे हैं जिन्हे करना मैंने कभी पसंद नहीं किया जैसे चित्र के चारों ओर की लाइनें खींचना, कार्टूनों में संवाद लिखना व संवादों के चारों ओर balloon बनाना. तकनीक ने इस नीरस काम से मुझे उबार लिया है. इसी तरह, चित्रों को रंगीन करना भी कहीं अधिक सुगम हो गया है. मुझ जैसे आरामपसंद आदमी के लिए तो यह तकनीक एक वरदान है. आज चित्रों को स्कैन कर ई-मेल से भेजना कहीं अधिक आसान रास्ता है, मूल कार्टून भी आपके पास ही रहता है, वर्ना पहले डाक में ही कार्टून की भद पिट जाती थी. कंप्यूटर व इनके साफ़्टवेयर बनाने वालों को बहुत बहुत धन्यवाद. भगवान इन्हें हर सुख दे :-)
सवाल : आज के दौर में 'एज ए प्रोफेशन' कार्टूनिस्ट का क्या स्कोप है ? उ0- भारत में आज भी इसका स्कोप कोई बहुत बेहतर तो नहीं ही है हां, नए नए प्रयोग होते रहने के चलते openings पहले से ज़्यादा हैं. लेकिन, लोगों को अभी भी समझने में समय लगेगा कि चुटकुला और कार्टून, दो एकदम अलग चीजें हैं. यह एक बहुत stressful काम है इसलिए संयत बने रहने के प्रति जागरूकता बहुत ज़रूरी है.
नीचे आप काजल जी द्वारा बनाए गए कुछ और बेहतरीन कार्टून स्लाईड शो के माध्यम से देख सकते हैं :>
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