डा० दीप्ति भारद्वाज | परिचय जन्म : 25 जून 1973_/_जन्म स्थान : बरेलीवर्तमान निवास : 'चित्रकूट, 43, सिन्धु नगर, बरेली -243005 शिक्षा- एम. ए. हिंदी ; applied एम. ए. हिंदी ; applied एम.एड.; पीएच. डी. [हिंदीगुरु भक्त सिंह भक्त के काव्य में संवेदना और शिल्प] कार्यक्षेत्र - प्रकाशन अधिकारी, इन्वरटिज ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशंस बरेली 2007 - रूहेलखंड विश्वविद्यालय, बी०एड० कालेज में अध्यापन 2006-हिंदी अधिकारी-भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, इलाहाबाद अभिरुचि- आध्यात्मिक व राष्ट्रीय चेतना से जुड़े हर पहलू में. |
प्रस्तुति : प्रकाश गोविन्द
फूंक दी जब से दिल में बसी बस्तियां हर तरफ हैं मेरे मस्तियाँ - मस्तियाँ .. अब रहे न रहे मुझको कोई डर नहीं शौक से फूंक दे घर मेरा बिजलियाँ .. गम न कर मान ले इसमें उसकी रज़ा तट पे आके जो डूबें तेरी कश्तियाँ आएँगी अब यकीनन नयी कोपलें पेड़ से झर गयी हैं सभी पत्तियाँ जो भी दीखता है सब कुछ है फानी यहाँ देखते -देखते मिट गयीं हस्तियाँ .. |
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जीवन नाम हुआ करता है...
जीवन नाम हुआ करता है मर्यादित प्रतिबंधों का .. जिनकी केवल सुधियाँ करती मन मरुथल को भी चन्दन वन जग के हस्ताक्षर से वंचित पर जिन से अनुप्राणित तन मन
जीवन नाम हुआ करता है कुछ ऐसे संबंधों का .. माना श्रम उद्यम रंग लाते फिर भी रेखा खिची कहीं पर जहाँ आकडे असफल होते हारे सभी अनेक जतन कर
जीवन नाम हुआ करता है विधि के लिखे निबंधों का .. पिंजरा तो पिंजरा होता है चाहें रत्नजटित हो जाए मस्ती में स्वछन्द घूमता राह राह बंजारा गए जीवन नाम हुआ करता है उड़ते हुए परिंदों का ... |
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दीप में रोशनी है......
टूट ही तो गया है सितारों का मन रेशमी इन इशारों को फ़िर मत बुनो ।
एक सपना संजोया था मैंने कभी पंखुडी पंखुडी हो बिखरता गया देख कर उनके बदले हुए रूप को रंग चेहरे का मेरे उतरता गया ... धुप के हर पसीने की अपनी कथा छाव में बैठ कर इस तरह मत सुनो ।
दीप में रोशनी है जलन भी तो है मोम के इस बदन में गलन भी तो है कि जीने की लगन है बहुत प्यार में कि मरने का अनूठा चलन भी तो है ... इन अंधेरों में मिलता बहुत चैन है इन उजालों को तुम इस तरह मत चुनो । |
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अनुनय
मैं उन्ही की हूँ , उन्ही की थी , सदा उनकी रहूंगी ॥
गूँथ कर माना कि माला मैं उन्हें पहना न पाई और जो प्रिय ने सुनाया गीत वो दोहरा न पाई पर चरण पर चढ़ गईं चुपचाप जो कलियाँ प्रणय की बन्धु! मैं उनको किसी को बीन ले जाने न दूंगी ॥
बन घटा सुधि की सलोनी प्रिय ह्रदय पर छा गए हैं दूर तन से हों भले पर.... पास मन के आ गए हैं पास भी कितने की पल भर को विलग होने न पायें पीर के सब सिन्धु... आँचल में प्रणय के बाँध लुंगी॥
मैं उन्ही की हूँ , उन्ही की थी , सदा उनकी रहूंगी॥ |
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जाना अकेला है...
जाना अकेला है, फिर क्यों झमेला है . मोह की कटीली इन झाड़ियों को काट दे खुद को न जोड़ तू थोडा - थोडा बाँट दे मस्ती में डूबते जीवन तो मेला है.. आदमी को नाचना है साँसों की ताल पर काल का तमाचा लगे हर किसी के गाल पर चेत्य के बिना ये तन माटी का ढेला है ..
कामना की डोर तो आई कभी न हाथ डाल- डाल हम रहे और चाह पात - पात यही खेल भैय्या रे बार - बार खेला है .. देखते ही देखते उम्र तो निकल गयी सोन मछरिया जैसी हाथ से फिसल गयी खोया रुपैय्या तूने पाया न ढेला है.. |
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