संसार में जहाँ ढेरों समस्याएँ मनुष्य ने अपने लिए पैदा कर ली हैं, वहीं प्रकृति ने हमें सुकून देने के लिए पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी, सरोवर, झरने दिए हैं ताकि हम उन्हें देखकर कुछ सीख सकें। ये सुंदर-सुंदर पक्षी हमारे मन को असीम खुशियाँ देते हैं, वहीं यह सीख भी देते हैं कि हम इसे पत्थरों की दुनिया न बनाएँ ... इसे इंसानों के रहने लायक दुनिया बनाएँ ... और इस खुले आसमान को हम परिंदों के लिए छोड़ दो ... ज़मीं के ऊपर यह नीला आसमां हमारा है ....
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स्वाधीनता दिवस के पावन अवसर पर क्रिएटिव मंच की तरफ से आप सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं
जय हिंद जय भारत
साहस और मानव सेवा की मिसाल :
कैप्टेन डा० लक्ष्मी सहगल (Captain Dr. Laxmi Sehgal)
(जन्म: 24 अक्टूबर, 1914 - मृत्यु: 23 जुलाई 2012)
देश, समाज, बेसहारा और गरीबों के लिए अपना जीवन बिता देने वाली कैप्टेन लक्ष्मी सहगल के जाने के साथ ही एक युग समाप्त हो गया है ! लक्ष्मी सहगल भारत की उन महान महिलाओं में से थीं, जो बहादुरी और सेवा भावना के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के लिए जीवन पर्यंत याद की जायेंगी !
जंग-ए-आजादी की सिपाही, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की सहयोगी और आजाद हिंद फ़ौज की कैप्टेन डा० लक्ष्मी सहगल जीवन की आखिरी वक़्त तक सक्रिय रहीं ! बीमार होने से एक दिन पहले तक भी आर्यनगर स्थित अपने क्लीनिक में उन्होंने मरीजों का इलाज किया था ! 98 वर्ष की उम्र का हर पल सेवा के लिए ही समर्पित रहा !
परिचय
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मां अम्मुकुट्टी, पिता एस.स्वामीनाथन, बड़े भाई गोविन्द स्वामी नाथन तमिलनाडु के एडवोकेट जनरल के पद पर रहे ! छोटा भाई एस.के.स्वामीनाथन महिंद्रा एंड महिंदा के डायरेक्टर थे ! छोटी बहन भरतनाट्यम व कत्थककली की मशहूर नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई ! 1948 में उन्होंने बेटी सुभाषिनी को जन्म दिया !
साहस और मानव सेवा की मिसाल
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कैप्टेन डा० लक्ष्मी सहगल भारत की उन महान महिलाओं में से एक थीं, जो बहादुरी और सेवा भावना के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के लिए जीवन पर्यंत याद की जायेंगी ! डा० सहगल अदभुत मिसाल थीं, जिसे देश कई मामलों में भारत के इतिहास की प्रथम महिला के रूप में कभी नहीं भूल पायेगा ! 98 साल की उम्र में भी डा० सहगल ने मरीजों की सेवा करने की नई इबारत लिखी ! समाज सेवा और देश के लिए कुछ करने का ज़ज्बा इन्हें अपने परिवार से विरासत में मिला था ! पिता डाक्टर एस.स्वामीनाथन मद्रास हाईकोर्ट में मशहूर वकील थे और मां एवी अम्माकुट्टी समाज सेवा के कारण पूरे मद्रास में अम्मुकुट्टी के नाम से जानी जाती थीं !
डा० सहगल के संघर्ष की शुरुआत 1940 से हुई ! मद्रास मेडिकल कालेज से 1938 में डाक्टरी की पढाई करने के दो वर्ष बाद वह सिंगापुर चली गयीं ! गरीबों का इलाज करने के लिए वहां एक क्लीनिक खोली ! द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था ! सिंगापुर में उन्हें ब्रिटिश सेना से बचने के लिए जंगलों तक में रहना पड़ा ! तब वे सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज की कमांडर बन गई थीं ! सिंगापुर में हर वक़्त पकडे जाने का डर लगा रहता था, लेकिन डा० सहगल की कोशिश होती कि अपने वतन से आये लोगों की सेवा करती रहें ! मरीजों का इलाज करना और देश को आजाद कराना उनका लक्ष्य बन गया था ! मलायां पर हमले के बाद उन्हें जंगलों तक में भटकना पड़ा ! एक बार तो दो दिन तक जंगलों में पानी तक नसीब नसीब नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने हौसला नहीं खोया ! ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सेनानियों की धरपकड़ में उन्हें भी 4 मार्च 1946 को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया !
कम लोग जानते हैं कि डा० लक्ष्मी सहगल का पहला विवाह 1936 में बी.के.राव के साथ हुआ था, लेकिन यह सम्बन्ध सिर्फ 6 माह ही चल सका और दोनों अलग हो गए ! राव चाहते थे कि डा० लक्ष्मी सहगल एक गृहणी बने, पर वे इसके लिए तैयार नहीं थीं ! 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह करने के बाद वह कानपुर आकर बस गयीं, आर्यनगर की पतली सी गली में अपनी क्लीनिक जरिये पांच दशकों तक मरीजों की सेवा की ! डा० सहगल 1984 के दंगों से बहुत आहत रहीं ! इस दंगे ने कई दिन तक उन्हें क्लीनिक से घर तक आने-जाने में मुश्किल खड़ी की थीं ! पर उन्हें इस बात की संतुष्टि थी कि उस दौरान हर मरीज की सेवा करने का मौका मिला !
पदम् विभूषण से सम्मानित डा० सहगल जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्य रहीं ! सार्वजनिक मंचों और क्लीनिक पर डा० लक्ष्मी सहगल महिलाओं को नसीहत देती रहती थीं कि संघर्ष महिलाओं का गहना है, उसे तो बेटी, बहन, पत्नी और मां बन कर जीने और लड़ने की आदत हो जाती है ! यही उसकी ताकत है, जो सदियों से समाज को संस्कार और जिंदगी जीने का फलसफा बता रही है !
डा० सहगल ने नेता जी से कहा था, हम बनायेंगे महिला वाहिनी
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि आजाद हिंद फ़ौज में महिला वाहिनी भी होनी चाहिए ! जब तक महिला व पुरुष मिलकर नहीं लड़ेंगे, तब तक काम नहीं चलेगा ! यह बात डा० लक्ष्मी सहगल को पता चली जो उस समय सिंगापुर में डाक्टरी कर रही थीं तो उन्होंने नेता जी से मुलाक़ात की और कहा, 'अगर आपको मेरे ऊपर विश्वास है तो जिम्मेदारी दीजिये ! हम महिला वाहिनी बनायेंगे !' डा० सहगल ने रानी झांसी रेजिमेंट की सेनानायक की जिम्मेदारी संभाली थी !
निभाये कई किरदार
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98 वर्ष की यात्रा में डा० सहगल ने कई तरह के वास्तविक किरदार निभाये ! वह कभी बेटी बनी तो कभी मां ! सिंगापुर के रणक्षेत्र में सैनिक का किरदार निभाया तो डाक्टर बन गरीबों और जरुरतमंदों की सेवा भी आगे बढ़कर की ! वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होकर राजनीति के मैदान में सक्रिय पारी खेली, लेकिन उन्हें सबसे अच्छा किरदार मरीजों की निःस्वार्थ सेवा का लगा ! अपनी जिंदगी के अंतिम पड़ाव में भी उन्होंने क्लीनिक पर दो-तीन घंटे जाने और मरीजों की सेवा करने का सिलसिला जारी रखा !
यूँ तो जिंदगी की यात्रा भले ही डा० सहगल ने चेन्नै से शुरू की हो, पर वैभव उन्हें कभी रास नहीं आया ! वह हमेशा लोगों के लिए लड़ती रहीं ! उनकी शिक्षा-दीक्षा भले ही पश्चिमी परिवेश में हुयी, पर भारतीयता उनमें कूट-कूटकर भरी हुयी थी ! अंग्रेजी स्कूलों में अपने दो भाईयों के साथ शिक्षा ली ! मद्रास मेडिकल कालेज से एमबीबीएस करने के बाद सिंगापूर चली गयीं ! सिंगापूर में आजाद हिंद फ़ौज में शामिल होकर द्वितीय विश्व युद्ध में भागीदारी की ! हर बार उन्हें मरीजों की सेवा करना ज्यादा भाता था ! पैथोलाजी जांचों की अपेक्षा उन्होंने डायग्नोसिस को ज्यादा महत्व दिया ! इसीलिए कानपुर में स्त्री रोग के क्षेत्र में उन्हें कोई पकड़ नहीं पाया !
डा० सहगल का 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अहम योगदान रहा है ! इस युद्ध में वह 'जन सहायता समिति' के बुलावे पर बांग्लादेश सीमा के बोनगांव गई थीं ! शरणार्थी शिविरों में बीमार लोगों का इलाज किया ! यहाँ उन्हें जानकारी मिली कि मुक्तिवाहिनी के सदस्यों को पाक सेना परेशान कर रही है ! डा० सहगल ने बोनगांव की हालत पर एक रिपोर्ट भी सेना को सौंपी थी, उसी के बाद वहां के खराब हालात ठीक हुए !
जीवटता
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आर्य नगर में बना डा० लक्ष्मी सहगल क्लीनिक एंड मेटरनिटी सेंटर गवाह है, उस ज़ज्बे का जिसे सभी डाक्टरों को अपनाना चाहिए ! इस हास्पिटल में प्रतिमाह 30 से 35 डिलीवरी होती हैं ! वह भी सामान्य और बहुत कम खर्च में ! अगर बीमार महिला पैसे देने में असमर्थ है तो भी उसका इलाज होता है और दवाएं मुफ्त दी जाती हैं ! डा० सहगल की मौत के बाद उस हास्पिटल में सन्नाटा छा गया और पूरा स्टाफ व मरीज गम में डूब गए ! करीब 54 वर्ष पूर्व किराए की जगह लेकर डा० सहगल ने चार कमरों का हास्पिटल खोला था ! इसमें महिलाओं के सभी रोगों का इलाज होता है !
देहदान--नेत्रदान किया
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डा० सहगल ने नेत्र व देहदान की इच्छा जताई थी ! निधन के तत्काल बाद डा० महमूद एच रहमानी की टीम ने उनका कार्निया निकालकर सरंक्षित कर लिया ! अगले ही दिन डाक्टरों की इसी टीम ने डा० सहगल के दोनों कार्निया के सहारे दो नेत्रहीनों को रोशनी प्रदान की !
लक्ष्मी सहगल जी का जीवन उच्चतम मूल्यों और आदर्शों से परिपूर्ण रहा .... ऐसी महान व्यक्तित्व की धनी 'कैप्टेन लक्ष्मी सहगल जी' की स्मृति को हम शत-शत नमन करते हैं !
9 जुलाई 1925 में बैंगलोर में पैदा हुए. उनका असली नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था. कलकत्ता में पढ़े -लिखे. नृत्य से उन्हें बेहद लगाव था. 14 साल की उम्र में उन्होंने कलकत्ता में सारस्वत ब्राह्मणों के समारोह में एक बार सर्प नृत्य किया था. जिसके लिए उन्हें 5 रूपये इनाम मिले थे. पंडित उदय शंकर जी की अकेडमी से मोडर्न नृत्य सिखा. कोलकता में टेलीफोन ओपेरटर नौकरी की और फिर 1944 में पुणे स्थित प्रभात स्टूडियो पहुंचे. वे डांस डायरेक्टर [ कोरियोग्राफर] थे. बेरोज़गारी के दिनों में उन्होंने इलस्ट्रेटेड वीकली, एक स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के लिए लघु कथाएँ भी लिखीं.
एक बार प्रेसवाले ने देव आनंद और गुरुदत्त की कमीज़ की अदला-बदली कर दी और इस रोचक घटना के द्वारा प्रभात स्टूडियो में उनकी मुलाकात देव आनंद से हुई और दोनों बहुत अच्छे दोस्त बने. उनके मुम्बई आने पर देव आनंद ने अपने वादे के मुताबिक उन्हें नवकेतन बैनर के तहत बनी अपनी फिल्म बाज़ी में रोल दिया. बाज़ी सुपर हिट हुई और जो लोग उस के साथ जुड़े वे भी सभी हिट हो गए.
बाज़ी में कल्पना कार्तिक से जहाँ उनकी देव आनंद से मुलाक़ात हुई वहीँ गीता दत्त और गुरुदत्त की पहली मुलाकात भी हुई,जो उनके प्रेमिका और फिर पत्नी बनीं.फिल्म -बाज़ में उन्होंने पहली बार मुख्य रोल किया. इसी पहली फिल्म से अपना बेनर भी शुरू किया .वहीदा रहमान को पहला ब्रेक गुरुदत्त ने अपनी अगली फिल्म [बतौर निर्माता] 'सी .आई .डी' में दिया.
1957 में रिलीज हुई प्यासा में समाज से निराश नायक 'विजय' को देखकर सभी हैरान हो गए थे. 20 वर्षीय वहीदा को नृतकी 'गुलाबो' के रूप में बतौर अभिनेत्री उनकी पहली फिल्म दी. गुरुदत्त कहते थे फिल्म को दुखद अंत देना परंतु मित्रों की सलाह पर उन्होंने ऐसा नहीं किया.
'तंग आ चुके हैं हम कश्मकशे जिंदगी से हम'
हम गमजदा है लाएँ कहाँ से खुशी के गीत,
देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम.
आज़ादी के दस साल भी नहीं हुए और समाज के प्रति इतनी निराशा लिए लीक से हट कर बनी उनकी फिल्म ने कई सवाल खड़े कर दिए. . लगा गुरुदत्त की इस फिल्म के साथ हिंदी सिनेमा भी जाग उठा ! अपने आस पास देखने लगा.
मेकिंग ऑफ प्यासा -
फिल्म में एक संवाद है..
"मुझे शिकायत है उस समाज के उस ढाँचे से जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है' मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बनाता है. दोस्त को दुश्मन बनाता है. बुतों को पूजा जाता है, जिन्दा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है. किसी के दुःख दर्द पर आँसू बहाना बुज़दिली समझा जाता है. छुप कर मिलना कमजोरी समझा जाता है."
'कागज़ के फ़ूल' फिल्म उनकी अपनी बायोग्राफी ही कही जाती है. फिल्म की असफलता पर उन्होंने कहा था 'जिंदगी में और है ही क्या ? सफलता और सफलता ! उसके बीच का कुछ नहीं. व्यवसायिक सफलता न मिलने के कारण उन्होंने अगली फिल्म मनोरंजन के लिए बनाई -प्रेम त्रिकोण पर 'चौदहवीं का चाँद' फिल्म, जो बॉक्स ऑफिस पर कामयाब रही. उस फिल्म की सफलता के बाद भी वह निराश थे कुछ ऐसा था जो उन्हें गुमसुम रखता था .
एक फिल्म के सेट पर उन्होंने कहा था :
देखो न, मुझे डायरेक्टर बनना था बन गया, एक्टर बनना था, बन गया. अच्छी फ़िल्में बनाना चाहता था ,बनाईं. पैसा है, सब कुछ है पर कुछ भी नहीं रहा !
बतौर निर्माता उनकी आखिरी फिल्म एक बंगाली उपन्यास पर आधारित फिल्म- 'साहब बीवी और गुलाम' थी. जिसका हर किरदार यादगार है. कला की उंचाईयों को छूती हुई भावनाओं में लिपटी थी यह फिल्म. और यह उनकी आखिरी फिल्म थी. उनका कहना था -''ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ! कहने वाले गुरुदत्त इस दुनिया से बेजार हो चुके थे. 'कागज़ के फ़ूल जहाँ खिलते हैं बैठ न उन गुलज़ारों में'.. यही कहते -कहते वो महकता हुआ सच्चा फ़ूल 10 अक्टूबर 1964 के दिन 39 वर्ष की अल्पायु में ही हमेशा के लिए मुरझा गया.
"एक हाथ से देती है दुनिया सौ हाथों से ले लेती है यह खेल है कब से जारी!''
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एक वक्त था जब हमारे देश को सोने की चिड़िया कहा जाता था, पर आज हम अपने देश को इस नाम के साथ पुकार पाने में कितना असमर्थ हैं, इसे हर कोई जानता है. क्या हमने इसका कारण कभी सोचा है कि आज हम अपने देश को ऐसा क्यों नहीं कह सकते ? इसका कारण यह है कि भारत जब सोने की चिड़िया थी तो वह अपने गाँवों की संपन्नता के कारण थी. देश पर विदेशी आक्रमण हुए, अंग्रेजों ने इसे गुलाम बनाया जिससे देश की ग्रामीण सम्पन्नता धीरे-धीरे चरमराने लगी. देश आजाद हुआ और जब देश पुनः अपनी सम्पन्नता प्राप्त करने लगा तो कई लालची व खुदगर्ज लोगों के कारण इस देश की स्थिति सुधर ना पाई. इस बीच भारत के बड़े शहरों का विकास जरुर हुआ, बड़े-बड़े कारखाने स्थापित हुए, विज्ञान के बढ़ते आरामदायक अविष्कारों के चलते ग्रामीण व्यक्तियों का रुझान शहरों की और बढ़ा. कई ग्रामवासी अपनी जन्म- भूमी को छोड़ रोजगार की प्राप्ति के लिए शहरों की और रवाना हो गए और वहीं बस गए. और गाँवों की स्थिति दयनीय होती चली गयी.
आज देश की बिगडती स्थिति और शहरों में बढती जनसंख्या को रोकना परम आवश्यक हो गया है. और इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनें गाँवों का विकास करें. हम अपने गाँव का विकास क्या दूसरों के भरोसे रहकर कर सकते है ........? बिलकुल नहीं ....यदि हमेंअपनेगाँवकाविकासकरनाहैतोहमेंखुदहीकुछसोचनाहोगा, हमेंहीकुछनिर्णयलेनेहोंगे, हमेंहीइसदिशामेंकदमआगेबढ़ानाहोगा. या हम यूं कहे कि हमें अपने देश के हर गाँव में स्वराज लाना होगा. आखिर हम कब तक दूसरों के भरोसे रहकर हाथ पे हाथ धरे बैठे रहेंगे.....? क्या हमारे देश के नेता ये परिवर्तन ला सकते है .......? बिलकुल भी नहीं. आज आवश्यकता इस बात की है हम ग्रामवासी आगे आये और खुद गाँव के लिए कुछ करें ,उसे विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाएं......................
क्या आप देश को चलाने वाली सरकार की सहायता के बगैर अपने गाँव में स्वराज ला सकते है...........? जी हाँ हम ला सकते है. ऐसे गाँव की कल्पना करना शायद आपको कठिन लगे.. लेकिन हमारे भारत देश में ही एक ऐसा गाँव है जहाँ जहाँ पूर्ण स्वराज है. आइये आपको स्वराज के दर्शन कराते हैं...........
देश के महाराष्ट्र राज्य में अहमदनगर जिले में एक ऐसा गाँव जिसके गलियों में कदम रखते ही आपको ऐसा लगेगा कि आप किसी गाँव में नहीं अपितु किसी स्वप्नलोक में अपने सपनो के भारत का दर्शन कर रहे हों. और इस गाँव का नाम है हिवरे बाजार. एक ऐसा गाँव जहाँ हर एक व्यक्ति अपने गाँव के विकास के प्रति समर्पित है, एक ऐसा गाँव, जिसे देश को हिला कर रख देने वाली मंदी छू भी ना सकी, एक ऐसा गाँव जहाँ कोई भी व्यक्ति शराब नहीं पीता. ये भारत का ऐसा गाँव है जहाँ से कोई भी व्यक्ति रोजगार की तलाश में अपने गाँव को छोडकर बाहर नहीं जाता , यहाँ हर एक व्यक्ति के पास स्वयं का रोजगार है. ये एक ऐसा गांव है जहां गांव के एकमात्र मुस्लिम परिवार के लिये भी मस्जिद है, यह उस गांव के हाल हैं जहां सत्ता दिल्ली जैसे बड़े शहरो में बैठी किसी सरकार द्वारा नहीं चलाई जाते बल्कि उसी गांव के लोगों द्वारा संचालित होती है. जहाँ गाँव का खुद का संसद है, जहाँ निर्णय भी गाँव के लोग ही लेते हैं.
एक ऐसा गाँव है जो पूर्ण आत्मनिर्भर है.क्या इस गाँव के साथ कोई चमत्कार हुआ है?... या यहाँ की ये स्थित प्रकृति की देन है ?.....जवाब है- नहीं . आज से बीस दशक पहले यह गाँव सूखाग्रस्त था, अत्यल्प वर्षा के कारण यहाँ की फासले बर्बाद हो जाती थी. पूरा गाँव सूखे की चपेट में आ जाने के कारण बंजर सा हो गया था इस स्थिति में यहाँ अनैतिक कार्य होने लगा....गाँव का लगभग हर एक घर शराब की भट्टियों में तब्दील हो चुका था...कोई भी सज्जन व्यक्ति इस गाँव में आना पसंद नहीं करता था ,... लेकिन शराब जैसी स्त्यानाशक इस गाँव की स्थिति भला कैसे सुधार सकती थी. फिर यहाँ के 1989 में पढ़े-लिखे युवाओं ने इस गाँव की दशा को सुधारने के लिए सोचा. इन पढ़े-लिखे नौजवानों के सामूहिक रूप से निर्णय लिया कि हम मिलकर इस गाँव को सुधारेंगे ...हालंकि कुछ बड़े-बुजुर्गों ने इस बात का विरोध किया... लेकिन इस गाँव के उज्जवल भविष्य के लिए उन्होंने इस बात को स्वीकार किया. और उन्होंने इस गाँव की सत्ता एक साल के लिए इन्हें सौप दी. और यही एक साल ने पुरे गाँव को बदलना शुरू कर दिया. इस एक साल की सत्ता में हुए परिवर्तन से इन युवाओं को अगले 5 वर्ष के लिए सत्ता दे दी. पोपटराव पवार को इस समूह का निर्विरोध सरपंच बनाया गया और उनके नेतृत्व में विभिन्न योजनाएं बनायी गय. जो इस प्रकार थी-
1. गाँव के इन नवयुवको ने शिक्षा को गाँव के विकास के लिए एक आवश्यक अंग समझा इसलिए इन लोगों ने गाँव के बड़े-बुजुर्गो से अपील की, कि वे अपनी बंजर जमीन विद्यालय खोलने क लिए प्रदान करें. उस समय यहाँ के मास्टर छात्रों को पढाने के बजाए शराब पीया करते थे. उस समय स्कूल में पढने के लिए ना तो तो ढंग की चारदीवारी थी और ना ही बच्चो केखेलने के लिए मैदान. गाँव के दो परिवारों ने इस कार्य के लिए अपनी बंजर जमीन दी और वहाँ सामुदायिक प्रयास से दो कमरों का निर्माण किया गया. आज के समय में यह आस-पास के सभी बड़े विद्यालयों से श्रेष्ठ है. यहाँ शिक्षकों की नित्य उपस्थिति अनिवार्य है.
2. गाँव में कृषि की दशा को सुधारने की दिशा में अनेक नए फैसले लिए गए. यह तय किया गया कि गाँव में उन फसलों के उत्पादन में वृद्धी की जाएगी जिनके लिए कम पानी लगता है. गाँव में भूमिगत जल का स्तर उस समय काफी नीचे था, लेकिन गाँव वालों के सामूहिक प्रयास से 1995 में गाँव में आदर्श गाँव योजना तहत जल संचय के लिए कई बांध बनाये गये | 4 लाख से भी ज्यादा पेड़ लगाये गये| गाँव में ऐसी फसल उअगायी जाती जिसमे पानी कम लगता हो | जिससे ज़मीं का पानी 50 फीट से उठ कर 5-10 फीट तक आ गया | 3. इस गाँव में सबसे अलग व्यवस्था ये कि गयी कि यहाँ एक ग्राम संसद बनाया गया, जहाँ आयोजित सभा में गाँव के सभी लोग जुटते हैं और गाँव के विकास संबंधी उपाय तथा अपनी समस्या को सामने रखते हैं. इस संसद में ग्राम विकास के लिए प्राप्त धनराशि एवं उनके खर्च का ब्यौरा पारदर्शी रूप से लिखा होता है, जिसे कोई भी देख सकता है, अर्थात ये गाँव किसी भी प्रकार के धन घोटाले से पूर्णतः मुक्त है. 4. बीस साल पहले इस गाँव से एक-एक करके पूरा परिवार रोजगार के लिए बड़े शहरों की और पलायन कर रहा था, लेकिन आज के समय में आत्मनिर्भता के कारण इस गाँव की प्रति व्यक्ति सालाना औसत आय 1.25 लाख रुपये है. 5. ये गाँव स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अन्य गाँवों से श्रेष्ठ है, यहाँ सामूहिक अस्पताल में डॉक्टर भी अपना काम पूरी ईमानदारी से करते हैं, यदि ये कोई गलती करते हैं तो उन्हें इसका जवाब ग्राम संसद में देना पडता है, गाँव के सभी लोग परिवार नियोजन को अपनाते है. इस गाँव की ऐसी और खूबियाँ हैं जिन्हें आप दिए गए दो वीडियो देखकर समझ सकते हैं.
अब आपकी इच्छा हो रही होगी कि क्यों ना हम इसी गाँव में जाकर जमीन खरीद कर बस जाएँ .........पर जनाब आप यहाँ जमीन नहीं खरीद सकते, क्योकि गाँव की ग्राम संसद द्वारा ये निर्णय लिया गया है कि यहाँ की जमीन किसी को भी नहीं बेची जायेगी. लेकिन यदि हम अपने गाँव को हिवरे बाजार जैसा बना दें तो ......... बस जरूरत है एक पहल की..... क्यों ना हम भी पोपटराव पवार की तरह आगे आयें और अपने गाँव में स्वराज लाएं. हमारी ये छोटी सी पहल पुरे गाँव को उस मुकाम पर पहुंचा देगी जिसकी कल्पना गांधी जी किया करते थे. आइये आप और हम मिलकर अपने गाँवों में स्वराज लाएं