बुधवार, 15 अगस्त 2012

बेमिसाल व्यक्तित्व की मिसाल - कैप्टन [डा०] लक्ष्मी सहगल



स्वाधीनता दिवस के पावन अवसर पर क्रिएटिव मंच की तरफ से
आप सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं

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जय हिंद
जय भारत
साहस और मानव सेवा की मिसाल :
कैप्टेन डा० लक्ष्मी सहगल (Captain Dr. Laxmi Sehgal)
(जन्म: 24 अक्टूबर, 1914 - मृत्यु: 23 जुलाई 2012)
देश, समाज, बेसहारा और गरीबों के लिए अपना जीवन बिता देने वाली कैप्टेन लक्ष्मी सहगल के जाने के साथ ही एक युग समाप्त हो गया है ! लक्ष्मी सहगल भारत की उन महान महिलाओं में से थीं, जो बहादुरी और सेवा भावना के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के लिए जीवन पर्यंत याद की जायेंगी !

जंग-ए-आजादी की सिपाही, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की सहयोगी और आजाद हिंद फ़ौज की कैप्टेन डा० लक्ष्मी सहगल जीवन की आखिरी वक़्त तक सक्रिय रहीं ! बीमार होने से एक दिन पहले तक भी आर्यनगर स्थित अपने क्लीनिक में उन्होंने मरीजों का इलाज किया था ! 98 वर्ष की उम्र का हर पल सेवा के लिए ही समर्पित रहा !
परिचय
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मां अम्मुकुट्टी, पिता एस.स्वामीनाथन, बड़े भाई गोविन्द स्वामी नाथन तमिलनाडु के एडवोकेट जनरल के पद पर रहे ! छोटा भाई एस.के.स्वामीनाथन महिंद्रा एंड महिंदा के डायरेक्टर थे ! छोटी बहन भरतनाट्यम व कत्थककली की मशहूर नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई ! 1948 में उन्होंने बेटी सुभाषिनी को जन्म दिया !
साहस और मानव सेवा की मिसाल
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कैप्टेन डा० लक्ष्मी सहगल भारत की उन महान महिलाओं में से एक थीं, जो बहादुरी और सेवा भावना के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के लिए जीवन पर्यंत याद की जायेंगी ! डा० सहगल अदभुत मिसाल थीं, जिसे देश कई मामलों में भारत के इतिहास की प्रथम महिला के रूप में कभी नहीं भूल पायेगा ! 98 साल की उम्र में भी डा० सहगल ने मरीजों की सेवा करने की नई इबारत लिखी ! समाज सेवा और देश के लिए कुछ करने का ज़ज्बा इन्हें अपने परिवार से विरासत में मिला था ! पिता डाक्टर एस.स्वामीनाथन मद्रास हाईकोर्ट में मशहूर वकील थे और मां एवी अम्माकुट्टी समाज सेवा के कारण पूरे मद्रास में अम्मुकुट्टी के नाम से जानी जाती थीं !

डा० सहगल के संघर्ष की शुरुआत 1940 से हुई ! मद्रास मेडिकल कालेज से 1938 में डाक्टरी की पढाई करने के दो वर्ष बाद वह सिंगापुर चली गयीं ! गरीबों का इलाज करने के लिए वहां एक क्लीनिक खोली ! द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था ! सिंगापुर में उन्हें ब्रिटिश सेना से बचने के लिए जंगलों तक में रहना पड़ा ! तब वे सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज की कमांडर बन गई थीं ! सिंगापुर में हर वक़्त पकडे जाने का डर लगा रहता था, लेकिन डा० सहगल की कोशिश होती कि अपने वतन से आये लोगों की सेवा करती रहें ! मरीजों का इलाज करना और देश को आजाद कराना उनका लक्ष्य बन गया था ! मलायां पर हमले के बाद उन्हें जंगलों तक में भटकना पड़ा ! एक बार तो दो दिन तक जंगलों में पानी तक नसीब नसीब नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने हौसला नहीं खोया ! ब्रिटिश सेनाओं ने स्वतंत्रता सेनानियों की धरपकड़ में उन्हें भी 4 मार्च 1946 को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया !

कम लोग जानते हैं कि डा० लक्ष्मी सहगल का पहला विवाह 1936 में बी.के.राव के साथ हुआ था, लेकिन यह सम्बन्ध सिर्फ 6 माह ही चल सका और दोनों अलग हो गए ! राव चाहते थे कि डा० लक्ष्मी सहगल एक गृहणी बने, पर वे इसके लिए तैयार नहीं थीं ! 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह करने के बाद वह कानपुर आकर बस गयीं, आर्यनगर की पतली सी गली में अपनी क्लीनिक जरिये पांच दशकों तक मरीजों की सेवा की ! डा० सहगल 1984 के दंगों से बहुत आहत रहीं ! इस दंगे ने कई दिन तक उन्हें क्लीनिक से घर तक आने-जाने में मुश्किल खड़ी की थीं ! पर उन्हें इस बात की संतुष्टि थी कि उस दौरान हर मरीज की सेवा करने का मौका मिला !

पदम् विभूषण से सम्मानित डा० सहगल जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्य रहीं ! सार्वजनिक मंचों और क्लीनिक पर डा० लक्ष्मी सहगल महिलाओं को नसीहत देती रहती थीं कि संघर्ष महिलाओं का गहना है, उसे तो बेटी, बहन, पत्नी और मां बन कर जीने और लड़ने की आदत हो जाती है ! यही उसकी ताकत है, जो सदियों से समाज को संस्कार और जिंदगी जीने का फलसफा बता रही है !
डा० सहगल ने नेता जी से कहा था, हम बनायेंगे महिला वाहिनी
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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि आजाद हिंद फ़ौज में महिला वाहिनी भी होनी चाहिए ! जब तक महिला व पुरुष मिलकर नहीं लड़ेंगे, तब तक काम नहीं चलेगा ! यह बात डा० लक्ष्मी सहगल को पता चली जो उस समय सिंगापुर में डाक्टरी कर रही थीं तो उन्होंने नेता जी से मुलाक़ात की और कहा, 'अगर आपको मेरे ऊपर विश्वास है तो जिम्मेदारी दीजिये ! हम महिला वाहिनी बनायेंगे !' डा० सहगल ने रानी झांसी रेजिमेंट की सेनानायक की जिम्मेदारी संभाली थी !
निभाये कई किरदार
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98 वर्ष की यात्रा में डा० सहगल ने कई तरह के वास्तविक किरदार निभाये ! वह कभी बेटी बनी तो कभी मां ! सिंगापुर के रणक्षेत्र में सैनिक का किरदार निभाया तो डाक्टर बन गरीबों और जरुरतमंदों की सेवा भी आगे बढ़कर की ! वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होकर राजनीति के मैदान में सक्रिय पारी खेली, लेकिन उन्हें सबसे अच्छा किरदार मरीजों की निःस्वार्थ सेवा का लगा ! अपनी जिंदगी के अंतिम पड़ाव में भी उन्होंने क्लीनिक पर दो-तीन घंटे जाने और मरीजों की सेवा करने का सिलसिला जारी रखा !

यूँ तो जिंदगी की यात्रा भले ही डा० सहगल ने चेन्नै से शुरू की हो, पर वैभव उन्हें कभी रास नहीं आया ! वह हमेशा लोगों के लिए लड़ती रहीं ! उनकी शिक्षा-दीक्षा भले ही पश्चिमी परिवेश में हुयी, पर भारतीयता उनमें कूट-कूटकर भरी हुयी थी ! अंग्रेजी स्कूलों में अपने दो भाईयों के साथ शिक्षा ली ! मद्रास मेडिकल कालेज से एमबीबीएस करने के बाद सिंगापूर चली गयीं ! सिंगापूर में आजाद हिंद फ़ौज में शामिल होकर द्वितीय विश्व युद्ध में भागीदारी की ! हर बार उन्हें मरीजों की सेवा करना ज्यादा भाता था ! पैथोलाजी जांचों की अपेक्षा उन्होंने डायग्नोसिस को ज्यादा महत्व दिया ! इसीलिए कानपुर में स्त्री रोग के क्षेत्र में उन्हें कोई पकड़ नहीं पाया !

1971 के युद्ध में भी निभाया अहम रोल
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डा० सहगल का 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अहम योगदान रहा है ! इस युद्ध में वह 'जन सहायता समिति' के बुलावे पर बांग्लादेश सीमा के बोनगांव गई थीं ! शरणार्थी शिविरों में बीमार लोगों का इलाज किया ! यहाँ उन्हें जानकारी मिली कि मुक्तिवाहिनी के सदस्यों को पाक सेना परेशान कर रही है ! डा० सहगल ने बोनगांव की हालत पर एक रिपोर्ट भी सेना को सौंपी थी, उसी के बाद वहां के खराब हालात ठीक हुए !
जीवटता
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आर्य नगर में बना डा० लक्ष्मी सहगल क्लीनिक एंड मेटरनिटी सेंटर गवाह है, उस ज़ज्बे का जिसे सभी डाक्टरों को अपनाना चाहिए ! इस हास्पिटल में प्रतिमाह 30 से 35 डिलीवरी होती हैं ! वह भी सामान्य और बहुत कम खर्च में ! अगर बीमार महिला पैसे देने में असमर्थ है तो भी उसका इलाज होता है और दवाएं मुफ्त दी जाती हैं ! डा० सहगल की मौत के बाद उस हास्पिटल में सन्नाटा छा गया और पूरा स्टाफ व मरीज गम में डूब गए ! करीब 54 वर्ष पूर्व किराए की जगह लेकर डा० सहगल ने चार कमरों का हास्पिटल खोला था ! इसमें महिलाओं के सभी रोगों का इलाज होता है !
देहदान--नेत्रदान किया
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डा० सहगल ने नेत्र व देहदान की इच्छा जताई थी ! निधन के तत्काल बाद डा० महमूद एच रहमानी की टीम ने उनका कार्निया निकालकर सरंक्षित कर लिया ! अगले ही दिन डाक्टरों की इसी टीम ने डा० सहगल के दोनों कार्निया के सहारे दो नेत्रहीनों को रोशनी प्रदान की !
लक्ष्‍मी सहगल जी का जीवन उच्‍चतम मूल्‍यों और आदर्शों से परिपूर्ण रहा .... ऐसी महान व्यक्तित्व की धनी 'कैप्टेन लक्ष्मी सहगल जी' की स्मृति को हम शत-शत नमन करते हैं !
वन्दे मातरम् !!


क्रियेटिव मंच
creativemanch@gmail.com
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The End

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

'गुरुदत्त' (Guru Dutt) - जो अपने समय से बहुत आगे थे !

प्रस्तुति--अल्पना वर्मा

अपने समय से बहुत आगे सोचने वाले कलाकार-
निर्देशक-निर्माता-अभिनेता -गुरदत्त
Tribute On his birth anniversary today
9 जुलाई 1925 में बैंगलोर में पैदा हुए. उनका असली नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था. कलकत्ता में पढ़े -लिखे. नृत्य से उन्हें बेहद लगाव था. 14 साल की उम्र में उन्होंने कलकत्ता में सारस्वत ब्राह्मणों के समारोह में एक बार सर्प नृत्य किया था. जिसके लिए उन्हें 5 रूपये इनाम मिले थे. पंडित उदय शंकर जी की अकेडमी से मोडर्न नृत्य सिखा. कोलकता में टेलीफोन ओपेरटर नौकरी की और फिर 1944 में पुणे स्थित प्रभात स्टूडियो पहुंचे. वे डांस डायरेक्टर [ कोरियोग्राफर] थे. बेरोज़गारी के दिनों में उन्होंने इलस्ट्रेटेड वीकली, एक स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के लिए लघु कथाएँ भी लिखीं.
एक बार प्रेसवाले ने देव आनंद और गुरुदत्त की कमीज़ की अदला-बदली कर दी और इस रोचक घटना के द्वारा प्रभात स्टूडियो में उनकी मुलाकात देव आनंद से हुई और दोनों बहुत अच्छे दोस्त बने. उनके मुम्बई आने पर देव आनंद ने अपने वादे के मुताबिक उन्हें नवकेतन बैनर के तहत बनी अपनी फिल्म बाज़ी में रोल दिया. बाज़ी सुपर हिट हुई और जो लोग उस के साथ जुड़े वे भी सभी हिट हो गए.
बाज़ी में कल्पना कार्तिक से जहाँ उनकी देव आनंद से मुलाक़ात हुई वहीँ गीता दत्त और गुरुदत्त की पहली मुलाकात भी हुई,जो उनके प्रेमिका और फिर पत्नी बनीं.फिल्म -बाज़ में उन्होंने पहली बार मुख्य रोल किया. इसी पहली फिल्म से अपना बेनर भी शुरू किया .वहीदा रहमान को पहला ब्रेक गुरुदत्त ने अपनी अगली फिल्म [बतौर निर्माता] 'सी .आई .डी' में दिया.
1957 में रिलीज हुई प्यासा में समाज से निराश नायक 'विजय' को देखकर सभी हैरान हो गए थे. 20 वर्षीय वहीदा को नृतकी 'गुलाबो' के रूप में बतौर अभिनेत्री उनकी पहली फिल्म दी. गुरुदत्त कहते थे फिल्म को दुखद अंत देना परंतु मित्रों की सलाह पर उन्होंने ऐसा नहीं किया.
'तंग आ चुके हैं हम कश्मकशे जिंदगी से हम'
हम गमजदा है लाएँ कहाँ से खुशी के गीत,
देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम.
आज़ादी के दस साल भी नहीं हुए और समाज के प्रति इतनी निराशा लिए लीक से हट कर बनी उनकी फिल्म ने कई सवाल खड़े कर दिए. . लगा गुरुदत्त की इस फिल्म के साथ हिंदी सिनेमा भी जाग उठा ! अपने आस पास देखने लगा.

मेकिंग ऑफ प्यासा -
फिल्म में एक संवाद है..
"मुझे शिकायत है उस समाज के उस ढाँचे से जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है' मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बनाता है. दोस्त को दुश्मन बनाता है. बुतों को पूजा जाता है, जिन्दा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है. किसी के दुःख दर्द पर आँसू बहाना बुज़दिली समझा जाता है. छुप कर मिलना कमजोरी समझा जाता है."
'कागज़ के फ़ूल' फिल्म उनकी अपनी बायोग्राफी ही कही जाती है. फिल्म की असफलता पर उन्होंने कहा था 'जिंदगी में और है ही क्या ? सफलता और सफलता ! उसके बीच का कुछ नहीं. व्यवसायिक सफलता न मिलने के कारण उन्होंने अगली फिल्म मनोरंजन के लिए बनाई -प्रेम त्रिकोण पर 'चौदहवीं का चाँद' फिल्म, जो बॉक्स ऑफिस पर कामयाब रही. उस फिल्म की सफलता के बाद भी वह निराश थे कुछ ऐसा था जो उन्हें गुमसुम रखता था .

एक फिल्म के सेट पर उन्होंने कहा था :
देखो न, मुझे डायरेक्टर बनना था बन गया, एक्टर बनना था, बन गया. अच्छी फ़िल्में बनाना चाहता था ,बनाईं. पैसा है, सब कुछ है पर कुछ भी नहीं रहा !

बतौर निर्माता उनकी आखिरी फिल्म एक बंगाली उपन्यास पर आधारित फिल्म- 'साहब बीवी और गुलाम' थी. जिसका हर किरदार यादगार है. कला की उंचाईयों को छूती हुई भावनाओं में लिपटी थी यह फिल्म. और यह उनकी आखिरी फिल्म थी. उनका कहना था -''ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ! कहने वाले गुरुदत्त इस दुनिया से बेजार हो चुके थे. 'कागज़ के फ़ूल जहाँ खिलते हैं बैठ न उन गुलज़ारों में'.. यही कहते -कहते वो महकता हुआ सच्चा फ़ूल 10 अक्टूबर 1964 के दिन 39 वर्ष की अल्पायु में ही हमेशा के लिए मुरझा गया.
"एक हाथ से देती है दुनिया सौ हाथों से ले लेती है यह खेल है कब से जारी!''

I Recommend these videos to fans of Gurudutt sahib , please Watch them-
Part-1
Part-2
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प्रस्तुति--अल्पना वर्मा
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