[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 7]
Film - Satyakam (1969)
Film - Satyakam (1969)
समीक्षक - राकेश जी
फ़िल्म - सत्यकाम (1969)
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सत्यकाम फिल्म बहुत विचलित करती है और अगर कोई व्यक्त्ति ईमानदारी और भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर बेहद संवेदनशील है तो उसे शायद इस सशक्त्त फिल्म को नहीं देखना चाहिये क्योंकि यह फिल्म भ्रष्टाचार, बेईमानी, कमजोरियों और समझौतापरस्ती के जिन्न के विकराल रुप द्वारा प्रताड़ित सत्यप्रिय के शनै: शनै: मौत की तरफ बढ़ते कदमों को दिखाकर दर्शक को अंदर तक हिला जाती है।
ठेकेदार लाडिया (तरुण बोस) का एक मुलाजिम उनसे सिविल इंजीनियर सत्यप्रिय (धर्मेंद्र) के बारे में कहता है -
"ये आदमी बहुत ही बदमाश और पाजी है … रिश्वत वगैरह नहीं खाता"
प्रख्यात लेखक राजिन्दर सिंह बेदी द्वारा रचा गया उपरोक्त्त वचन ब्रिटिश राज से नये नये स्वाधीन हुये भारत की सच्चाई पर कसा गया वह व्यंग्य बाण है जिसे अपने अस्तित्व पर सहन करने के बाद भारत नामक लोकतांत्रिक देश को शर्मिंदा होकर चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिये था परंतु भारत और इसके लोगों ने अपनी चमड़ी गेंडे की खाल से भी मोटी कर ली और भ्रष्टाचार को अपना मुख्य धर्म बना लिया और ऐसे परिवेश में इने-गिने ईमानदार लोगों की हत्यायें होती चली गयीं और यत्र-तत्र-सर्वत्र, भ्रष्टाचार का ही वास हो गया।
भारत की मोटी त्वचा का इससे बेहतर सुबूत नहीं मिलेगा कि कुछ समय पहले तक लोग बड़े फख्र से एक जुमला दोहराते थे - "सौ में से निन्यान्वे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान"
आज की सच्चाई यह है कि भारत में सौ के सौ बेईमान ही बसते हैं, कुछ मूलतः भ्रष्टाचारी ही पैदा होते हैं, कुछ को उनके पारिवारिक परिवेश से ऐसा होने की शिक्षा मिलती है, और बाकी को समाज बना डालता है और वे बन भी जाते हैं क्योंकि अगर वे भ्रष्टाचार की बहती नदी में हाथ धोने से इंकार कर दें तो वे जीवित रह पाने के ऐश्वर्य का लाभ नहीं उठा सकते। वे मार दिये जाते हैं या उनके ईर्द-गिर्द ऐसा माहौल बना दिया जाता है जिससे कि या तो वे खुद ही गरीबी, अभाव और शोषण भरा जीवन सहकर किसी गम्भीर बीमारी का शिकार होकर मर जायें या हालात से हारकर आत्महत्या करके परिदृष्य से हट जायें।
आर्थिक सफलता को ही जीवन में सफल होने का एकमात्र पैमाना बना देने वाले देश- भारत में ईमानदार रह पाना सबसे बड़े जीवट का कार्य है। ऐसा कर पाना कम साहसी कार्य नहीं है। कोई ऐसा ठान भर ले उसके परिवार के लोग ही उसे ईमानदार नहीं रहने देंगे। संताने अपने ईमानदार पिता को कोसने का कोई भी मौका न चूकेंगी क्योंकि जब उनके पिता के भ्रष्ट सहयोगी अपनी काली कमाई के बलबूते अपने बच्चों को हर तरह की सुख सुविधा दे रहे हैं तो वे ही क्यों वंचितों जैसा जीवन जीकर उन भ्रष्ट लोगों के सुविधाभोगी बच्चों से अपना उपहास उड़वायें। जब सभी बेईमान हैं तो उनके पिता ही क्यों ईमानदार रहकर अपने जीवन को जोखिम में डालें और उन्हे अभावों से भरा जीवन जीने के लिये विवश करें?
सत्यकाम एक ऐसे विशुद्ध ईमानदार युवक सत्यप्रिय (धर्मेंद्र) की कहानी है जो कि ईमानदारी से किसी भी किस्म का समझौता नहीं करता है और ईमानदारी को बनाये रखने के लिये उसे अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़ जाती है पर वह ईमानदारी से टस से मस नहीं होता। उसकी ईमानदारी की शुद्धता इतनी खरी है कि वह अपने श्रद्धेय दादाजी आचार्य सत्यदर्शन (अशोक कुमार) के परम्परागत विचारों को चुनौती देने से नहीं चूकता जब वे जन्म के आधार पर मानव-मानव में भेदभाव के विचारों का त्याग नहीं कर पाते। आचार्य सत्यदर्शन बहुत ही पवित्र किस्म का जीवन जीते हैं परंतु सत्यप्रिय के खरे सोने जैसी शुद्धता के सामने वे भी मिलावट वाले दिखायी देते हैं। उनका आध्यात्मिक विकास व्यवहार की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाता और सैद्धांतिक स्तर पर ही रह जाता है। सत्यप्रिय केवल आर्थिक मामलों में ही ईमानदार नहीं हैं बल्कि वे जीवन के हर क्षेत्र में ईमानदारी का सच्चाई और निडरता से पालन करते हैं। ईमानदारी उनका स्वभाव है और उनके लिये यह ऊपर से ओढ़ी गयी भावना मात्र नहीं है।
एक रियासत के अय्याश राजा कुवंर विक्रम सिंह (मनमोहन) के रहमोकरम पर जीने वाली गायिका रंजना (शर्मीला टैगोर) का उनके जीवन में आना उनके मजबूत और ईमानदार व्यक्तित्व को और ज्यादा निखार कर सामने लाता है और जटिल परिस्थितियों में एक लड़खड़ाहट के बाद वे शीघ्र ही संभल जाते हैं और अपने अंदर के सच के साथ जीवन जीते हैं। वे भागते नहीं है बल्कि मुसीबतों का साहस के साथ मुकाबला करते हैं।
उनकी ईमानदारी इतनी खरी है कि अभावग्रस्त जीवन जी रही रंजना सत्यप्रिय के अभिन्न मित्र नरेन (संजीव कुमार) से कहती हैं - "सोने के जेवर बनाने के लिये थोड़ी तो खोट मिलानी पड़ती है"
बेईमान लोग तो सत्यप्रिय के जीवन को कष्टमयी बनाने वाले हैं ही पर उनसे तो इससे इतर अपेक्षा भी नहीं की जा सकती परंतु सत्यप्रिय के जीवन को काँटों भरा बनाने में उनके परम मित्र नरेन जैसे लोग भी कम दोषी नहीं हैं। नरेन का भ्रष्टाचार सूक्ष्म किस्म का है और एकबारगी तो उन्हे कोई दोषी भी न ठहरायेगा परंतु वे भी कम दोषी नहीं है ईमानदार सत्यप्रिय की हत्या में।नरेन जैसे लोग हैं जो हालात से समझौता करते चले जाते हैं और भ्रष्टाचार के सामने सिर झुकाकर खड़े हो जाते हैं क्योंकि उनके पास न तो इतना नैतिक बल है कि वे ईमानदारी की धारदार तलवार पर नंगे पाँव चल सकें और न ही इतना साहस कि कम से कम ईमानदार लोगों के धर्मयुद्ध में उनका साथ ही दे सकें!
सत्यप्रिय तो जहाँ भी कार्य करते हैं वहीं उनकी मुठभेड़ भ्रष्टाचारी ताकतों से होनी ही होनी है और वे डरते भी नहीं हैं इन सब ताकतवार लोगों से। उन्होने बचपन से ही ईमानदारी का पालन करने की शिक्षा ग्रहण की है और ईमानदारी और सत्य का साथ बनाये रखने के विचार और खुद से किये वादे उनके अस्तित्व के सबसे अहम पहलू बन गये हैं। वे चाहे मर जायें पर वे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के सामने सिर नहीं झुकायेंगे। आज के दौर में ऐसे आदमी को पागल करार देकर पागलखाने में भरती कर दिया जायेगा क्योंकि उसकी ईमानदारी लोगों को चुभेगी और उन्हे ऐसा आदमी अपनी राह का सबसे बड़ा रोड़ा नजर आयेगा।
जब तक सत्यप्रिय दूसरी जगहों पर कार्य करते रहते हैं और अपने बारे में सब सूचनायें अपने परम मित्र नरेन को पत्र द्वारा भेजते रहते हैं नरेन उनका सम्मान करते हैं और उन्हे सलाह देते रहते हैं कि थोड़ा बहुत समझौता तो करना ही पड़ता है और सत्यप्रिय को कुछ बातें सहन करके नौकरी करनी चाहिये जिससे कि वह जीवन में स्थायित्व पा सके। उन्होने सत्यप्रिय की ईमानदारी के तेज को सीधे सीधे देखा नहीं है परंतु ऐसी परिस्थितियाँ भी बन जाती हैं जब नरेन तो समझौतापूर्ण व्यवसायिक जीवन जीते हुये बड़े सरकारी अफसर बन जाते हैं और सत्यप्रिय एक ठेकेदार की कम्पनी में इंजीनियर बनकर उनके ही मातहत एक प्रोजेक्ट पर कार्य करने लगते हैं और तब पहली बार नरेन का सामना सत्यप्रिय की बला की ईमानदारी से होता है।
दुष्ट भ्रष्टाचारी लोगों के साथ साथ नरेन जैसे समझौतापरस्त लोगों ने सत्यप्रिय की ईमानदारी पर परोक्ष और अपरोक्ष रुप से आक्रमण कर करके उन्हे इस हद तक ईमानदारी के प्रति सचेत बना दिया है कि वे नीचे ऑफिस से ऊपर स्थिर अपने घर में थोड़ी देर के लिये एक-दो कुर्सियाँ मेहमानों के बैठने के लिये लाने पर आपा खो बैठते हैं। नरेन के बार बार आग्रह करने के बावजूद वे ऑफिस का समय समाप्त होने से पहले ऊपर घर में उनके साथ चाय पीने के लिये जाने के लिये तैयार नहीं होते क्योंकि ऐसा करना उनके उसूलों के खिलाफ होगा। पर ऐसी स्थितियाँ लाने के लिये नरेन जैसे लोग कम जिम्मेदार नहीं हैं।
नरेन, सत्यप्रिय के साथ ही इंजीनियरिंग कालेज में पढ़े हैं, वे सत्यप्रिय की ईमानदारी को जानते हैं, पहचानते हैं, उन्होने भी एक ईमानदार इंजीनियर के रुप में व्यवसायिक जीवन जीने की कसम खायी है।
वे और उनके दूसरे साथी अगर चाहते तो वे भी ईमानदार बने रहकर सत्यप्रिय जैसे ईमानदार लोगों के धर्मयुद्ध को समर्थन दे सकते थे, जिससे कि सब तरफ भ्रष्टाचार का ही बोलबाला न हो जाये। पर वे अपनी और अपने परिवार की आर्थिक भालाई के लिये भ्रष्ट शक्त्तियों के सामने झुक गये और इसका परिणाम यह हुआ कि सत्यप्रिय जैसे ईमानदार लोगों का जीवन भयानक कष्टों में बीतता रहा है। उन पर हर किस्म की जोर आजमाइश भ्रष्ट ताकतों ने की है और उन्हे हर तरीके से प्रताड़ित किया है। न सरकार ने, न जनता ने और न ही कानून ने ईमानदारी और ईमानदार लोगों का साथ दिया है और नतीजा सबके सामने है। आज भारत दुनिया के भ्रष्टतम देशों में सिरमौर है। स्विस बैंको में जमा काले धन में सबसे बड़ी हिस्सेदारी भारतीयों की है। इस भ्रष्टाचार ने भारत को बरसों से विकासशील देश ही बनाकर रखने की साजिश की है। करोड़ों लोग गरीबी के निम्नतम स्तर पर जीने के लिये विवश रहे हैं। इतना बड़ा नुकसान भारत का भ्रष्टाचार से हुआ है पर इस अंधे देश और इसके निवासियों को लाज नहीं आती और वे नींद में जीवन जिये चले जा रहे हैं।
सत्यप्रिय देश, धरा और जीवन छोड़ जाते हैं। अगर लोगों को जरुरत नहीं है ईमानदारी और ईमानदार लोगों की तो लो…
"कज़ा ले चली वे चले"
तुम बैठे रहे भ्रष्टाचार की माला जपते हुये।
विषय, विस्तार और इसकी गहरी विवेचना के आधार पर देखा जाये तो सत्यकाम, हृषिकेश मुखर्जी की सबसे अच्छी फिल्म है। उन्होने बहुत ही अच्छे विषय को लेकर एक बहुत ही प्रभावशाली फिल्म बनायी है। एक बेहद गम्भीर विषय को विस्तार से खंगालती हुयी फिल्म आगे बढ़ती रहती है और दृश्य दर दृष्य, दर्शक हृषिदा के निर्देशन की तारीफ में अपने अंदर भाव उमड़ते हुये महसूस करता चला जाता है। कई बार रोंगटे खड़े हो जाते हैं किसी दृष्य को देखकर और कभी किसी संवाद को सुनकर। इस विषय पर इतनी अच्छी और रोचक फिल्म हिन्दी सिनेमा में बहुत ही कम हैं और निस्संदेह सत्यकाम इस श्रेणी की फिल्मों में सर्वोच्च स्थान रखती है।
भारत के ब्रिटिश राज से स्वाधीनता पाने के समय लोभवश कुछ रियासतों द्वारा रचे गये प्रपंचों को फिल्म बहुत रोचक ढ़ंग से दिखाती है और बाद में हृषिदा एक कुशल शिल्पी की भाँति फिल्म को सत्यप्रिय के व्यक्तिगत जीवन के ईर्द-गिर्द आकार देते हुये भी देश को झझकोरने वाले बड़े सरोकार बनाये रखते हुये सत्यप्रिय की मूर्ति गढ़ते चले जाते हैं। आदर्श की स्थापना तो उनकी बहुत सारी फिल्मों का एक अहम हिस्सा रहा है और यहाँ तो ईमानदारी का आदर्श हर पल दर्शक के दिल के दरवाजे को खटखटाता रहता है।
आसान नहीं था इस चरित्र को निभाना क्योंकि यह ईमानदारी के अतिरंजित रंग से भरा होने के कारण एक आयामी प्रतीत हो सकता था परंतु हृषिदा के कुशल निर्देशन में धर्मेंद्र अपने अभिनय जीवन का सर्वोत्तम अभिनय प्रदर्शन सत्यप्रिय के चरित्र के रुप में करते हैं।
फिल्म के अंत से कुछ समय पहले एक दृष्य है जिसमें अस्पताल में अपने जीवन के अंतिम समय की प्रतीक्षा कर रहे सत्यप्रिय के हाथ से उनका हस्ताक्षरित कागज देखने के बाद रंजना रोती हैं कि परिवार की भलाई की खातिर अंतिम समय में सत्यप्रिय ने ईमानदारी का साथ छोड़कर कागज पर हस्ताक्षर कर दिये और वह कागज को फाड़ देती हैं और जब पलट कर वे सत्यप्रिय की ओर देखती हैं तो उन्हे मुस्कुराते हुये पाती हैं। उनकी आँखों में आँसू और मुस्कुराहट में प्रेम, लाचारी और गर्व के मिश्रित भाव सम्मिलित हैं और एक यही दृष्य इस बात की लिखित गवाही स्वर्ण अक्षरों में देता है कि धर्मेंद्र ने इस चरित्र को बहुत ही ज्यादा गहराई से समझ लिया था।
सत्यप्रिय के चरित्र की फौलादी मजबूती, शील, विशेषताओं और विवशताओं को धर्मेंद्र ने अपने व्यक्तित्व से जीवंत कर दिया है। ऐसे ही चरित्र और ऐसे ही महान अभिनय प्रदर्शन के लिये तो अभिनेता सारी ज़िंदगी तरसते हैं और धर्मेंद्र को उनके अभिनय जीवन के पहले दशक में ही ऐसा अवसर मिल गया और जिसका उन्होने भरपूर लाभ उठाया।
अपने अभिनय जीवन के शुरुआती सालों से ही संजीव कुमार एक परिपक्व अभिनेता की भाँति अभिनय करते थे और इस फिल्म में भी उन्होने नरेन के चरित्र में उल्लेखनीय अभिनय प्रदर्शन कर दिखाया है। पुरुष चरित्र प्रधान फिल्म में भी शर्मीला टैगोर ने अपने अच्छे अभिनय प्रदर्शन के बलबूते अपने को एक उल्लेखनीय अभिनेत्री के रुप में प्रस्तुत किया है। सत्यजीत रे की कई बांग्ला फिल्मों में अभिनय कर चुके रोबी घोष इस हिन्दी फिल्म में भी अपनी उपस्थिति यादगार बना जाते हैं।
ठोस कथा (नारायण सन्याल), प्रभावी कथानक (बिमल दत्ता) और बहुत ही प्रभावशाली संवादों (राजिन्दर सिंह बेदी) से सजी इस फिल्म में जो थोड़ा बहुत खटकता है वह है सत्यप्रिय के बीमार होने के बाद ठेकेदार लाडिया (तरुण बोस) के चरित्र का पलटा खाना। जहाँ पहले वे एक भ्रष्ट ठेकेदार के रुप में सत्यप्रिय को हानि पहुँचाना चाहते हैं बाद में उन्हे अस्पताल में रखते हैं रंजना को अपने घर में पनाह देते हैं और उनकी हर तरह से मदद करना चाहते हैं। ऐसा भलापन विरोधाभासी प्रतीत होता है और फिल्म की गुणवत्ता को कुछ हद तक प्रभावित करता है और ऐसा लगता है कि लाडिया के चरित्र में यह परिवर्तन ऊपर से थोपा गया था।
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने हृषिदा की इस फिल्म में संगीत दिया है।