मंगलवार, 10 जुलाई 2012

'गुरुदत्त' (Guru Dutt) - जो अपने समय से बहुत आगे थे !

प्रस्तुति--अल्पना वर्मा

अपने समय से बहुत आगे सोचने वाले कलाकार-
निर्देशक-निर्माता-अभिनेता -गुरदत्त
Tribute On his birth anniversary today
9 जुलाई 1925 में बैंगलोर में पैदा हुए. उनका असली नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था. कलकत्ता में पढ़े -लिखे. नृत्य से उन्हें बेहद लगाव था. 14 साल की उम्र में उन्होंने कलकत्ता में सारस्वत ब्राह्मणों के समारोह में एक बार सर्प नृत्य किया था. जिसके लिए उन्हें 5 रूपये इनाम मिले थे. पंडित उदय शंकर जी की अकेडमी से मोडर्न नृत्य सिखा. कोलकता में टेलीफोन ओपेरटर नौकरी की और फिर 1944 में पुणे स्थित प्रभात स्टूडियो पहुंचे. वे डांस डायरेक्टर [ कोरियोग्राफर] थे. बेरोज़गारी के दिनों में उन्होंने इलस्ट्रेटेड वीकली, एक स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के लिए लघु कथाएँ भी लिखीं.
एक बार प्रेसवाले ने देव आनंद और गुरुदत्त की कमीज़ की अदला-बदली कर दी और इस रोचक घटना के द्वारा प्रभात स्टूडियो में उनकी मुलाकात देव आनंद से हुई और दोनों बहुत अच्छे दोस्त बने. उनके मुम्बई आने पर देव आनंद ने अपने वादे के मुताबिक उन्हें नवकेतन बैनर के तहत बनी अपनी फिल्म बाज़ी में रोल दिया. बाज़ी सुपर हिट हुई और जो लोग उस के साथ जुड़े वे भी सभी हिट हो गए.
बाज़ी में कल्पना कार्तिक से जहाँ उनकी देव आनंद से मुलाक़ात हुई वहीँ गीता दत्त और गुरुदत्त की पहली मुलाकात भी हुई,जो उनके प्रेमिका और फिर पत्नी बनीं.फिल्म -बाज़ में उन्होंने पहली बार मुख्य रोल किया. इसी पहली फिल्म से अपना बेनर भी शुरू किया .वहीदा रहमान को पहला ब्रेक गुरुदत्त ने अपनी अगली फिल्म [बतौर निर्माता] 'सी .आई .डी' में दिया.
1957 में रिलीज हुई प्यासा में समाज से निराश नायक 'विजय' को देखकर सभी हैरान हो गए थे. 20 वर्षीय वहीदा को नृतकी 'गुलाबो' के रूप में बतौर अभिनेत्री उनकी पहली फिल्म दी. गुरुदत्त कहते थे फिल्म को दुखद अंत देना परंतु मित्रों की सलाह पर उन्होंने ऐसा नहीं किया.
'तंग आ चुके हैं हम कश्मकशे जिंदगी से हम'
हम गमजदा है लाएँ कहाँ से खुशी के गीत,
देंगे वही जो पायेंगे इस जिंदगी से हम.
आज़ादी के दस साल भी नहीं हुए और समाज के प्रति इतनी निराशा लिए लीक से हट कर बनी उनकी फिल्म ने कई सवाल खड़े कर दिए. . लगा गुरुदत्त की इस फिल्म के साथ हिंदी सिनेमा भी जाग उठा ! अपने आस पास देखने लगा.

मेकिंग ऑफ प्यासा -
फिल्म में एक संवाद है..
"मुझे शिकायत है उस समाज के उस ढाँचे से जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है' मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बनाता है. दोस्त को दुश्मन बनाता है. बुतों को पूजा जाता है, जिन्दा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है. किसी के दुःख दर्द पर आँसू बहाना बुज़दिली समझा जाता है. छुप कर मिलना कमजोरी समझा जाता है."
'कागज़ के फ़ूल' फिल्म उनकी अपनी बायोग्राफी ही कही जाती है. फिल्म की असफलता पर उन्होंने कहा था 'जिंदगी में और है ही क्या ? सफलता और सफलता ! उसके बीच का कुछ नहीं. व्यवसायिक सफलता न मिलने के कारण उन्होंने अगली फिल्म मनोरंजन के लिए बनाई -प्रेम त्रिकोण पर 'चौदहवीं का चाँद' फिल्म, जो बॉक्स ऑफिस पर कामयाब रही. उस फिल्म की सफलता के बाद भी वह निराश थे कुछ ऐसा था जो उन्हें गुमसुम रखता था .

एक फिल्म के सेट पर उन्होंने कहा था :
देखो न, मुझे डायरेक्टर बनना था बन गया, एक्टर बनना था, बन गया. अच्छी फ़िल्में बनाना चाहता था ,बनाईं. पैसा है, सब कुछ है पर कुछ भी नहीं रहा !

बतौर निर्माता उनकी आखिरी फिल्म एक बंगाली उपन्यास पर आधारित फिल्म- 'साहब बीवी और गुलाम' थी. जिसका हर किरदार यादगार है. कला की उंचाईयों को छूती हुई भावनाओं में लिपटी थी यह फिल्म. और यह उनकी आखिरी फिल्म थी. उनका कहना था -''ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ! कहने वाले गुरुदत्त इस दुनिया से बेजार हो चुके थे. 'कागज़ के फ़ूल जहाँ खिलते हैं बैठ न उन गुलज़ारों में'.. यही कहते -कहते वो महकता हुआ सच्चा फ़ूल 10 अक्टूबर 1964 के दिन 39 वर्ष की अल्पायु में ही हमेशा के लिए मुरझा गया.
"एक हाथ से देती है दुनिया सौ हाथों से ले लेती है यह खेल है कब से जारी!''

I Recommend these videos to fans of Gurudutt sahib , please Watch them-
Part-1
Part-2
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प्रस्तुति--अल्पना वर्मा
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शनिवार, 10 सितंबर 2011

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    बुधवार, 4 मई 2011

    एक गाँव जो मिसाल बन गया


    क वक्त था जब हमारे देश को सोने की चिड़िया कहा जाता था, पर आज हम अपने देश को इस नाम के साथ पुकार पाने में कितना असमर्थ हैं, इसे हर कोई जानता है. क्या हमने इसका कारण कभी सोचा है कि आज हम अपने देश को ऐसा क्यों नहीं कह सकते ? इसका कारण यह है कि भारत जब सोने की चिड़िया थी तो वह अपने गाँवों की संपन्नता के कारण थी. देश पर विदेशी आक्रमण हुए, अंग्रेजों ने इसे गुलाम बनाया जिससे देश की ग्रामीण सम्पन्नता धीरे-धीरे चरमराने लगी. देश आजाद हुआ और जब देश पुनः अपनी सम्पन्नता प्राप्त करने लगा तो कई लालची व खुदगर्ज लोगों के कारण इस देश की स्थिति सुधर ना पाई. इस बीच भारत के बड़े शहरों का विकास जरुर हुआ, बड़े-बड़े कारखाने स्थापित हुए, विज्ञान के बढ़ते आरामदायक अविष्कारों के चलते ग्रामीण व्यक्तियों का रुझान शहरों की और बढ़ा. कई ग्रामवासी अपनी जन्म- भूमी को छोड़ रोजगार की प्राप्ति के लिए शहरों की और रवाना हो गए और वहीं बस गए. और गाँवों की स्थिति दयनीय होती चली गयी.


    आज देश की बिगडती स्थिति और शहरों में बढती जनसंख्या को रोकना परम आवश्यक हो गया है. और इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनें गाँवों का विकास करें. हम अपने गाँव का विकास क्या दूसरों के भरोसे रहकर कर सकते है ........? बिलकुल नहीं ....यदि हमें अपने गाँव का विकास करना है तो हमें खुद ही कुछ सोचना होगा, हमें ही कुछ निर्णय लेने होंगे, हमें ही इस दिशा में कदम आगे बढ़ाना होगा. या हम यूं कहे कि हमें अपने देश के हर गाँव में स्वराज लाना होगा. आखिर हम कब तक दूसरों के भरोसे रहकर हाथ पे हाथ धरे बैठे रहेंगे.....? क्या हमारे देश के नेता ये परिवर्तन ला सकते है .......? बिलकुल भी नहीं. आज आवश्यकता इस बात की है हम ग्रामवासी आगे आये और खुद गाँव के लिए कुछ करें ,उसे विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाएं......................

    क्या आप देश को चलाने वाली सरकार की सहायता के बगैर अपने गाँव में स्वराज ला सकते है...........?
    जी हाँ हम ला सकते है. ऐसे गाँव की कल्पना करना शायद आपको कठिन लगे.. लेकिन हमारे भारत देश में ही एक ऐसा गाँव है जहाँ जहाँ पूर्ण स्वराज है. आइये आपको स्वराज के दर्शन कराते हैं...........

    देश के महाराष्ट्र राज्य में अहमदनगर जिले में एक ऐसा गाँव जिसके गलियों में कदम रखते ही आपको ऐसा लगेगा कि आप किसी गाँव में नहीं अपितु किसी स्वप्नलोक में अपने सपनो के भारत का दर्शन कर रहे हों. और इस गाँव का नाम है हिवरे बाजार. एक ऐसा गाँव जहाँ हर एक व्यक्ति अपने गाँव के विकास के प्रति समर्पित है, एक ऐसा गाँव, जिसे देश को हिला कर रख देने वाली मंदी छू भी ना सकी, एक ऐसा गाँव जहाँ कोई भी व्यक्ति शराब नहीं पीता. ये भारत का ऐसा गाँव है जहाँ से कोई भी व्यक्ति रोजगार की तलाश में अपने गाँव को छोडकर बाहर नहीं जाता , यहाँ हर एक व्यक्ति के पास स्वयं का रोजगार है. ये एक ऐसा गांव है जहां गांव के एकमात्र मुस्लिम परिवार के लिये भी मस्जिद है, यह उस गांव के हाल हैं जहां सत्ता दिल्ली जैसे बड़े शहरो में बैठी किसी सरकार द्वारा नहीं चलाई जाते बल्कि उसी गांव के लोगों द्वारा संचालित होती है. जहाँ गाँव का खुद का संसद है, जहाँ निर्णय भी गाँव के लोग ही लेते हैं.

    एक ऐसा गाँव है जो पूर्ण आत्मनिर्भर है. क्या इस गाँव के साथ कोई चमत्कार हुआ है?... या यहाँ की ये स्थित प्रकृति की देन है ?..... जवाब है- नहीं .

    आज से बीस दशक पहले यह गाँव सूखाग्रस्त था, अत्यल्प वर्षा के कारण यहाँ की फासले बर्बाद हो जाती थी. पूरा गाँव सूखे की चपेट में आ जाने के कारण बंजर सा हो गया था इस स्थिति में यहाँ अनैतिक कार्य होने लगा....गाँव का लगभग हर एक घर शराब की भट्टियों में तब्दील हो चुका था...कोई भी सज्जन व्यक्ति इस गाँव में आना पसंद नहीं करता था ,... लेकिन शराब जैसी स्त्यानाशक इस गाँव की स्थिति भला कैसे सुधार सकती थी. फिर यहाँ के 1989 में पढ़े-लिखे युवाओं ने इस गाँव की दशा को सुधारने के लिए सोचा. इन पढ़े-लिखे नौजवानों के सामूहिक रूप से निर्णय लिया कि हम मिलकर इस गाँव को सुधारेंगे ...हालंकि कुछ बड़े-बुजुर्गों ने इस बात का विरोध किया... लेकिन इस गाँव के उज्जवल भविष्य के लिए उन्होंने इस बात को स्वीकार किया. और उन्होंने इस गाँव की सत्ता एक साल के लिए इन्हें सौप दी. और यही एक साल ने पुरे गाँव को बदलना शुरू कर दिया. इस एक साल की सत्ता में हुए परिवर्तन से इन युवाओं को अगले 5 वर्ष के लिए सत्ता दे दी. पोपटराव पवार को इस समूह का निर्विरोध सरपंच बनाया गया और उनके नेतृत्व में विभिन्न योजनाएं बनायी गय. जो इस प्रकार थी-

    1. गाँव के इन नवयुवको ने शिक्षा को गाँव के विकास के लिए एक आवश्यक अंग समझा इसलिए इन लोगों ने गाँव के बड़े-बुजुर्गो से अपील की, कि वे अपनी बंजर जमीन विद्यालय खोलने क लिए प्रदान करें. उस समय यहाँ के मास्टर छात्रों को पढाने के बजाए शराब पीया करते थे. उस समय स्कूल में पढने के लिए ना तो तो ढंग की चारदीवारी थी और ना ही बच्चो के खेलने के लिए मैदान. गाँव के दो परिवारों ने इस कार्य के लिए अपनी बंजर जमीन दी और वहाँ सामुदायिक प्रयास से दो कमरों का निर्माण किया गया. आज के समय में यह आस-पास के सभी बड़े विद्यालयों से श्रेष्ठ है. यहाँ शिक्षकों की नित्य उपस्थिति अनिवार्य है.

    2. गाँव में कृषि की दशा को सुधारने की दिशा में अनेक नए फैसले लिए गए. यह तय किया गया कि गाँव में उन फसलों के उत्पादन में वृद्धी की जाएगी जिनके लिए कम पानी लगता है. गाँव में भूमिगत जल का स्तर उस समय काफी नीचे था, लेकिन गाँव वालों के सामूहिक प्रयास से 1995 में गाँव में आदर्श गाँव योजना तहत जल संचय के लिए कई बांध बनाये गये | 4 लाख से भी ज्यादा पेड़ लगाये गये| गाँव में ऐसी फसल उअगायी जाती जिसमे पानी कम लगता हो | जिससे ज़मीं का पानी 50 फीट से उठ कर 5-10 फीट तक आ गया |

    3. इस गाँव में सबसे अलग व्यवस्था ये कि गयी कि यहाँ एक ग्राम संसद बनाया गया, जहाँ आयोजित सभा में गाँव के सभी लोग जुटते हैं और गाँव के विकास संबंधी उपाय तथा अपनी समस्या को सामने रखते हैं. इस संसद में ग्राम विकास के लिए प्राप्त धनराशि एवं उनके खर्च का ब्यौरा पारदर्शी रूप से लिखा होता है, जिसे कोई भी देख सकता है, अर्थात ये गाँव किसी भी प्रकार के धन घोटाले से पूर्णतः मुक्त है.

    4. बीस साल पहले इस गाँव से एक-एक करके पूरा परिवार रोजगार के लिए बड़े शहरों की और पलायन कर रहा था, लेकिन आज के समय में आत्मनिर्भता के कारण इस गाँव की प्रति व्यक्ति सालाना औसत आय 1.25 लाख रुपये है.

    5. ये गाँव स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अन्य गाँवों से श्रेष्ठ है, यहाँ सामूहिक अस्पताल में डॉक्टर भी अपना काम पूरी ईमानदारी से करते हैं, यदि ये कोई गलती करते हैं तो उन्हें इसका जवाब ग्राम संसद में देना पडता है, गाँव के सभी लोग परिवार नियोजन को अपनाते है.

    इस गाँव की ऐसी और खूबियाँ हैं जिन्हें आप दिए गए दो वीडियो देखकर समझ सकते हैं.



    अब
    आपकी इच्छा हो रही होगी कि क्यों ना हम इसी गाँव में जाकर जमीन खरीद कर बस जाएँ .........पर जनाब आप यहाँ जमीन नहीं खरीद सकते, क्योकि गाँव की ग्राम संसद द्वारा ये निर्णय लिया गया है कि यहाँ की जमीन किसी को भी नहीं बेची जायेगी. लेकिन यदि हम अपने गाँव को हिवरे बाजार जैसा बना दें तो ......... बस जरूरत है एक पहल की..... क्यों ना हम भी पोपटराव पवार की तरह आगे आयें और अपने गाँव में स्वराज लाएं. हमारी ये छोटी सी पहल पुरे गाँव को उस मुकाम पर पहुंचा देगी जिसकी कल्पना गांधी जी किया करते थे. आइये आप और हम मिलकर अपने गाँवों में स्वराज लाएं

    सधन्यवाद
    क्रियेटिवमंच
    creativemanch@gmail.com
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    गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

    "श्री सिद्धगिरी म्यूजियम कोल्हापुर, महाराष्ट्र"

    श्री सिद्धगिरी म्यूजियम, कोल्हापुर [महाराष्ट्र]
    Siddhagiri Museum , Kolhapur [Maharashtra]
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    एक ऐसा गाँव जहाँ किसान हल और बैल के साथ खड़े मिलेंगे। गाँव की औरतें कुंए में पानी भरने जाती हुयी दिखेंगी। बच्चे पेड़ के नीचे गुरुकुल शैली में पढ़ाई कर रहे हैं, किसान खेत में भोजन कर रहे हैं और आस-पास पशु चारा चर रहे हैं। गाँव के घरों का घर-आँगन और विभिन्न कार्य करते लोग, लेकिन सब कुछ स्थिर ...ठहरा हुआ फिर भी एकदम सजीव,,,जीवंत। जी हाँ यह सब आपको देखना हो तो महाराष्ट्र के कोल्हापुर जाना होगा।
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    महाराष्ट्र में कोल्हापुर को न सिर्फ दक्षिण कीकाशी,’ बल्कि महालक्ष्मी मां के आवास के रूप में भी जाना जाता है। यहां के प्राचीन मंदिर देश-विदेश के पर्यटकों के आकर्षण का विषय हैं। कोल्हापुर से केवल दस किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा-सा शांत गांव है - कनेरी, जहां पर
    Siddhagiri Math
    बना है देश के प्राचीनतम मठों में गिना जाने वाला सिद्धगिरी मठ। सिद्धगिरी मठ के 27वें मठाधिपति श्री काड़सिद्धेश्वर महाराज के शुभ हाथों से ‘श्री सिद्धगिरी म्यूजियम की नींव रखी गई। जुलाई 2007 में इसका उद्घाटन हुआ। आठ एकड़ के खुले क्षेत्र में फैली यह जगह गांव की दुनिया की झलक दिखलाती है। आज पूरे देश में अपने आप में इकलौता और अनूठा म्यूजियम कहलाता है ये सिद्धगिरी म्यूजियम। यहाँ ग्रामीण जिंदगी की छवियों को मूतिर्यो में समेटने की कोशिश की गई है। इस संग्रहालय की स्थापना लन्दन के मैडम तुसॉद मोम संग्रहालय से प्रेरित होकर की गई है।
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    संग्रहालय की स्थापना करने वाले सिद्धगिरि गुरुकुल के प्रमुख काड़सिद्धेश्वरShree S.S. Kadsiddheshwar Maharaj, Siddhagiri Math
    स्वामी का कहना है कि, "यूं तो हमने इसकी प्रेरणा मैडम तुसॉद संग्रहालय से ली है, पर यह संग्रहालय महात्मा गांधी की विचारधारा से प्रभावित है। गांधी जी हर गांव को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे। वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में अहम स्थान दिलाना चाहते थे। यह संग्रहालय भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की महत्ता को दर्शाता है।"
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    संग्रहालय में कई प्राचीन संतों की मूर्तियां हैं। उदाहरण के लिए एक पेड़ के नीचे महर्षि पातंजलि को प्राचीन शैली में कक्षा लेते दिखाया गया है। कुछ ही मीटर की दूरी पर महर्षि कश्यप को एक रोगी का इलाज करते दिखाया गया है। यहां महर्षि कणाद को वैज्ञानिक शोध में लीन देखा जा सकता है, वहीं महर्षि वराहमिहिर ग्रह-नक्षत्रों की दुनिया से अपने शिष्यों को अवगत कराते नजर आते हैं।
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    ईंट, पत्थरों से निर्मित इस संग्रहालय में प्रतिमाओं का निर्माण सीमेंट से किया गया है। इसके लिए करीब 80 कुशल मूर्तिकारों की सेवा ली गई। इसके प्रबंधक इसे खुला प्रदर्शन परिसर कहना पसंद करते हैं, जहां की मूर्तियां बारिश, गर्मी आदि को झेलने के बावजूद अपनी चमक बनाए हुई हैं।
    [समस्त चित्र जानकारी अंतरजाल से साभार]
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    सधन्यवाद
    क्रियेटिवमंच
    creativemanch@gmail.com
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    The End

    मंगलवार, 15 मार्च 2011

    गायक येशुदास और जसपाल सिंह

    क्विज संचालन ---- प्रकाश गोविन्द


    प्रिय साथियों
    नमस्कार !!!
    हम आप सभी का क्रिएटिव मंच पर अभिनन्दन करते हैं।

    ''सी.एम.ऑडियो क्विज़- 12' के आयोजन में भाग लेने वाले
    सभी प्रतिभागियों और विजेताओं को हार्दिक बधाई एवं शुभ कामनाएं ।

    इस बार हमने दो सुमधुर कर्णप्रिय गानों की ऑडियो क्लिप्स सुनवाई थीं और प्रतियोगियों से गायक और फ़िल्म के नाम बताने को कहा था। गाने थोड़े पुराने थे, फिर भी संगीत प्रेमियों ने सही जवाब देने में देर नहीं की। पहली क्लिप में फ़िल्म 'मान-अभिमान' का गाना था, जिसे 'येशुदास जी' ने गाया था। दूसरी क्लिप में फ़िल्म 'सावन को आने दो' का गाना था, जिसे 'जसपाल सिंह' जी ने गाया था।

    पिछली बार हमने शेखर सुमन जी से जरा सा मजाक क्या कर लिया वो तो बिलकुल सीरियस ही हो गए। लगता है इस बार पूरी तैयारी के साथ बैठे थे :)
    'सी.एम.ऑडियो क्विज -12' में सबसे पहले सही जवाब देकर शेखर सुमन जी ने एक बार फिर अपना लोहा मनवाया और प्रथम स्थान पर कब्ज़ा किया। इसके उपरान्त द्वितीय और तृतीय स्थान पर क्रमशः शुभम जैन जी और दर्शन बवेजा जी रहे।

    कई प्रतियोगियों ने आधे-अधूरे जवाब भेजे। किसी ने गायक बताया तो फ़िल्म का नाम नहीं, तो किसी ने फ़िल्म का नाम बताया तो गायक का नाम नहीं। इस कारण उनका नाम विजेता लिस्ट में शामिल नहीं हो सका। राजेन्द्र स्वर्णकार जी इस बार बहुत ही करीब से चूक गए। आशीष जी दुसरे प्रश्न का जवाब देना ही भूल गए। कृतिका जी ने शायद सवाल ही नहीं पढ़ा और गायक का नाम बताने की जगह गाने के बोल लिख दिए। खैर कोई बात ....... इस बार न सही तो अगली बार सही .........

    क्विज संचालन सम्पूर्ण आयोजन में अत्यंत श्रम और समय लगता है। व्यस्तता के कारण हम कुछ समय का अंतराल ले रहे हैं। अगले क्विज आयोजन की सूचना आप सभी को समय-पूर्व दे दी जायेगी। फिलहाल थोड़े दिन क्विज आयोजन स्थगित रहेगा।
    आप सभी अपना स्नेह यूँ ही बनाये रखिये। आप की प्रतिक्रिया और सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।

    समस्त विजेताओं प्रतिभागियों को
    एक बार पुनः बहुत-बहुत बधाई और शुभ कामनाएं।

    **************************************
    अब आईये - -
    ''सी.एम.ऑडियो क्विज-12' के पूरे परिणाम के साथ ही क्विज में पूछे गए दोनों विलक्षण गायकों के बारे में बहुत संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करते हैं :
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    1- यशुदास [Yeshudaas]
    यशुदास केरल की उन विभूतियों मे से हैं जिन्होंने हिन्दी फिल्म संगीत पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। गायक कट्टास्सरी जॊसेफ़ यशुदास का जन्म 10 जनवरी 1940 को कोचिन में पिता आगस्टिन जोजफ और माँ एलिसकुट्टी के घर हुआ था। उनके पिता जो एक रंगमंच कलाकार और उनके पहले गुरु भी थे। येसुदास का बचपन बहुत गरीबी में बीता। ऐसा भी समय था कि वो अपने संगीत अकादमी की फीस भी बमुश्किल भर पाते थे। शुरुआत में तो 'आल इंडिया रेडिओ, त्रिवेन्द्रम' से यह भी सुनना पड़ा कि उनकी आवाज़ प्रसारण के लिए उपयुक्त नहीं है।

    K._J._Yesudas_300 दक्षिण के सुर सम्राट यशुदास ने भारतीय और विदेशी भाषाओं में कुल 40,000 से उपर गानें गाए हैं। उन्हे 7 बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है, जो किसी पार्श्वगायक के लिए सब से अधिक बार है। मलयालम के कई फ़िल्मों में उन्होने बतौर संगीतकार भी काम किया है। 1955 में मलयालम फ़िल्म कालापदुकल से येसुदास ने बतौर गायक अपना कैरियर शुरू किया। 70 के दशक से लेकर 90 के दशक के शुरआती वर्षों तक उन्होने हिंदी फ़िल्म जगत में एक से एक बेहतरीन गानें गाए।

    सलिल दा ने सबसे पहले उनसे सन 1975 में फिल्‍म 'छोटी सी बात' का गीत गवाया था। फ़िर रविन्द्र जैन के निर्देशन में उन्होंने 'चितचोर' के गीत गाये। येसुदास को पहचान फ़िल्म- 'स्वामी' के गीत से ही मिली। बंगला उपन्यास पर बनी यह फ़िल्म और गीत दोनों मशहूर हुए। हिंदी फ़िल्मों के लिए उन्होने जितने भी गानें गाए हैं, उनकी गुणवत्ता सौ फीसदी रही है और उनके गाये सभी गीत अत्यंत सुरीले हैं। यशुदास ने कभी भी कोई सस्ता गीत नहीं गाया, कभी भी व्यावसायिक्ता के होड़ में आकर अपने स्तर को गिरने नहीं दिया। आज जब हम उनके गाए गीतों को याद करते हैं, तो हर गीत लाजवाब, हर गीत बेमिसाल पाते हैं।

    Hits-of-YESUDAS मातृभाषा मलयालम होने के बावज़ूद यशुदास जी का हिन्दी-उच्चारण बहुत लाज़वाब है। उनके गाये गीतों को सुनने के बाद विश्वास करना मुश्किल है कि यशुदास जी को हिन्दी नहीं आती। यशुदास की पवित्र सी लगने वाली आवाज गजब ढाती है…उन्होंने हिन्दी फ़िल्मों में कम ही गाया है। बड़े खेद का विषय है कि हिन्दी फ़िल्म जगत उनकी विलक्षण गायकी और असीमित प्रतिभा का उपयोग नहीं कर सका। शास्त्रीय़ संगीत की गहरी समझ रखने वाले यशुदास को संभवतः हिन्दी फ़िल्मों और गीतों का अधिक लाभ इसलिए नहीं मिल पाया, क्योंकि उनकी विशिष्ट आवाज नायकों की वास्तविक आवाज पर फिट नहीं बैठती थी। कारण जो भी हो यशुदास की अमृत सरीखी आवाज से श्रोताओं को वंचित होना पडा है।

    यशुदास के गाये बेहतरीन गानों में - 'का करूँ सजनी, आए न बालम', eYesudas 'मधुबन खूशबू देता है', 'कहाँ से आए बदरा', 'दिल के टुकड़े-टुकड़े करके', 'सुरमई अंखियों में', 'ए जिन्दगी गले लगा ले', 'चाँद जैसे मुखड़े पे', 'आज से पहले आज से ज्यादा', 'गोरी तेरा गाँव बडा प्यारा', 'माना हो तुम बेहद हसीं', 'जब दीप जले आना', 'इन नज़ारों को तुम देखो', 'खुशियाँ ही खुशियाँ हों दामन में जिसके', 'ए मेरे उदास मन'...ये ऐसे गीत हैं जो संग्रहणीय हैं। यशुदास की मख़मली जैसी आवाज़ अंतरतम की गहराईयों में छा जाती है। एक खुश्‍बू सी बिखर जाती है और हमें मानों किसी और ही दुनिया में खींच ले जाती है।

    येसुदास की पत्नी का नाम प्रभा है और उनके तीन बेटे हैं- विनोद, विजय और विशाल। इनके पुत्र विजय को श्रेष्ठ पार्श्वगायन के लिए 2007 में केरल राज्य फ़िल्म पुरस्कार दिया गया। 1992 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, अंतर्राष्ट्रीय संसद में सदस्यता, कई बार राज्य स्तरीय सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक का पुरस्कार /1999 में यूनेस्को में सम्मानित। उन्होंने 1980 में त्रिवेन्द्रम में 'तरंगिनी स्टूडियो' की स्थापना भी की और 1998 में अमेरिका में भी इसकी शाखा शुरू हुई। यशुदास को 1973 में पद्मश्री एवं वर्ष 2002 में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
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    2- जसपाल सिंह [Jaspal Singh]
    jaspal singh ji
    1975 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'गीत गाता चल' आयी थी। इसमें मुख्य अभिनय किया था सचिन और सारिका ने, संगीत दिया था रविन्द्र जैन ने और उन्होंने ही इस फिल्म के गीत भी लिखे थे। गीत और संगीत दोनों ही मधुर थे। इस फ़िल्म में एक ऐसे गायक को अवसर दिया गया था, जो सचिन के ऊपर काफी हद तक फिट भी बैठता था, उस गायक का नाम था जसपाल सिंह।

    जसपाल सिंह ने बेहतरीन पार्श्वगायक के रूप में हिंदी फिल्मों में बहुत से गाने गाये, जिनमें बहुत से हिट हुए और कई तो आज भी उतने ही मधुर और ताजगी भरे लगते हैं जितने कल थे। जसपाल सिंह ने गीतों के रीमिक्स ही नहीं बल्कि ग़ज़ल,भजन और पारम्परिक शास्त्रीय संगीत आदि भी गाये हैं। देश-विदेश में स्टेज शो के द्वारा प्रसिद्धि भी पायी है। अपने दौर की लोकप्रिय पार्श्व गायिकाओं हेमलता, आरती मुखर्जी आदि गायिकाओं के साथ बहुत ही सुन्दर गाने दिए।

    गायक जसपाल सिंह के गाये अनेकों गीत अविस्मर्णीय हैं। जिन फिल्मों में जसपाल जी ने सदाबहार गाने गाये थे, उनमें प्रमुख हैं - 'नदिया के पार', 'अंखियों के झरोखों से', 'गीत गाता चल', 'सावन को आने दो', 'श्याम तेरे कितने नाम', 'पायल की झंकार', 'जिद' 'दो यारों की यारी' इत्यादि।

    साथियों बहुत आश्चर्य की बात है कि जसपाल जी जैसे सुरीले और मधुर गीत गाने वाले गायक के बारे अंतर्जाल पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। यहाँ तक की उनकी तस्वीर तक उपलब्ध नहीं हैं। वे आजकल कहाँ हैं? उनकी आखिरी फिल्म कौन सी थी जिसमें उन्होंने पार्श्वगायन किया? आजकल क्या कर रहे हैं? इस सम्बन्ध में कोई भी जानकारी नहीं मिल पा रही है। अगर आप संगीत प्रेमियों के पास गायक जसपाल जी के बारे में कुछ नयी जानकारों हो तो कृपया हमें अवगत कराएं। आपकी दी जानकारी आपके नाम से इसी पोस्ट पर अपडेट कर दी जायेगी।
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    क्विज में दिए गए दोनों गायकों के गानों के वीडिओ
    एक बुत से मोहब्बत करके - ' 'येसुदास'
    गगन ये समझे चाँद सुखी है - 'जसपाल सिंह '
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    "सी.एम.ऑडियो क्विज़- 12" के विजेता प्रतियोगियों के नाम
    समय-सीमा पश्चात हमें विवेक रस्तोगी जी का भी पूर्णतयः सही जवाब प्राप्त हुआ
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    जिन प्रतियोगियों ने एक जवाब सही दिया
    applause applause applause applause समस्त विजताओं को बधाईयाँ applause applause applause applause

    आप सभी का हार्दिक धन्यवाद
    यह आयोजन मनोरंजन के साथ साथ ज्ञानवर्धन का एक प्रयास मात्र है !
    अंत में हम सभी प्रतियोगियों और पाठकों का पुनः आभार व्यक्त करते हैं
    जिन्होंने क्रियेटिव मंच की क्विज़ में शामिल होकर हमारा उत्साह बढाया.
    .
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    फिलहाल हम विदा लेते हैं
    आगामी क्विज़ आयोजन की पूर्व-सूचना आप सभी को दे दी जायेगी


    सधन्यवाद
    क्रियेटिव मंच
    The End
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