[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 2]
Film - Prahaar (1991)
Film - Prahaar (1991)
समीक्षक - राकेश जी
जय जवान जय ईमान
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नाना पाटेकर द्वारा निर्देशित इकलौती हिंदी फिल्म- प्रहार, दर्शक को झिंझोड़ कर रख देती है।
भारतीय सैनिकों पर बनी चंद श्रेष्ठ फिल्मों के समूह में प्रहार भी एक सम्मानित सदस्य बन चुकी है। कम बजट की बाधाओं के बावजूद मिलिट्री ट्रेनिंग वाले भाग आनंद देते हैं और फिल्म के ये हिस्से उतनी ही रोचकता दर्शक के लिये लेकर आते हैं जितनी रोचकता वह Clint Eastwood की 'Heartbreak Ridge', Stanley Kubrick की 'Full Metal Jacket' और Richard Gere अभिनीत 'An Officer and a Gentleman' आदि फिल्मों में पाता है।
नाना पाटेकर न केवल, लेखन और निर्देशन में अपनी प्रतिभा का जौहर दिखाते हैं वरन अभिनय में भी बहुत अच्छे अभिनय का जबरदस्त प्रदर्शन करते हैं। सैनिकों को लेकर बनी फिल्में देखने वाले के लिये प्रहार आवश्यक रुप से देखी जाने वाली फिल्म है।
हिंदी फिल्मों की फॉर्मूला आधारित परिपाटी से अलग प्रहार अत्यंत रोचक एवम प्रभावशाली तरीके से एक सैनिक का टकराव अत्यंत भ्रष्ट, कायर और नाकारा हो चुकी सिविल सोसाइटी से दिखाती है।
अच्छाई के साथ मुसीबत यही है कि इसे बुराई पर प्रहार करना ही होता है। दोनों एक साथ नहीं रह सकते। इसका उलट भी सच है कि बुराई बिना ईमानदारी को पार्श्व में भेजे अपना हित नहीं साध सकती।
ईमानदारी की मजबूरी यही है कि इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होना ही पड़ता है फिर चाहे ईमानदार योद्धा की जान ही क्यों न चली जाये। भ्रष्टाचार का विस्तार तभी होता है जब ईमानदारी पर चहुँ ओर से आक्रमण करके या तो उसे घायल कर दिया जाता है या मार दिया जाता है।

भ्रष्टाचार से पूरी तरह से ग्रसित समाज में ईमानदारी, निडरता और साहस अपने साथ मौत न भी लेकर आयें तो ऐसी प्रवृत्तियाँ रखने वाले मानव के लिये मुसीबतें लेकर जरुर आते हैं क्योंकि भ्रष्ट समाज में ऐसे गुण और इन्हे अपनाने वाला व्यक्त्ति, दोनों ही अल्पसंख्यक होते हैं और बहुसंख्यक उन पर नियंत्रण करना चाहते हैं जो संभव नहीं है इसलिये दोनों ताकतों के बीच संघर्ष अवश्यंभावी हो जाता है।
गुंडे आते हैं, लोगों से उगाही करके आराम से चले जाते हैं, महिलाओं को छेड़ते रहते हैं, कमजोरों पर अत्याचार करते रहते हैं पर आम आदमी हर तरह की ज्यादती सहन करता रहता है। इसका एक कारण पुलिस का नाकारा होना भी है। वह नाकारा ही नहीं रहती बल्कि इन गुंडों की शक्त्ति के सामने सिर झुकाकर इन्ही का साथ देने लगती है। अगर पुलिस में ईमानदार और निडर जवानों की संख्या बढ़ जाये तो शासन जनहित के कानूनों का रहेगा, जनद्रोही गुंडों का शासन नहीं।
समाज में ऐसे कुंठित लोगों की भी कमी नहीं है जैसा कि शर्ली का भाई (मार्कण्ड देशपांडे) है। वह अपने स्वतंत्रता सेनानी पिता (अच्युत पोतदार) को कोसता रहता है कि उनकी ईमानदारी की नीतियों की वजह से उनके पास इतना पैसा इकटठा नहीं हो पाया कि वे उसे दुबई भेज सकते जहाँ वह बहुत सारा धन कमा सकता था। अब वह बेरोजगार और नशेड़ी बन गया है जो अपने पिता से यह कहने में भी नहीं चूकता कि उसके जन्मने में सबसे बड़ी गलती उसके पिता की थी क्योंकि उसने तो प्रार्थनापत्र भेजा नहीं था जन्म लेने के लिये। कुंठा में वह पूछता है अपने पिता से कि क्या कोई अपना घर फूँक कर भी देश सेवा करता है?
ऐसे लोगों से बसे हुये मोहल्ले में लोग ऐसे कायर हो चुके हैं कि उनकी आँखों के सामने शौर्य चक्र विजेता एक फौजी को गुंडे पीटकर मार डालते हैं और लोग अपने अपने घरों में जाकर छिप जाते हैं। हालात ऐसे हो गये हैं कि रोज़मर्रा के स्तर पर आम जन को परेशान करने वाले गुंडों के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले मेजर चौहान (नाना पाटेकर) को समर्थन देना तो दूर, जिन लोगों की अस्मिता के लिये मेजर चौहान लड़ रहे हैं, वही कृतघ्न लोग उन्ही पर आक्रमण कर देते हैं कि मेजर उनके शांतिपूर्ण जीवन की शांति भंग कर रहे हैं और मेजर तो चले जायेंगे उन्हे तो इन्ही गुंडों के साथ उनकी सरपरस्ती में रहना है।

ईमानदार लोग कैसे अपना गुजर बसर करें एक भ्रष्ट तंत्र से प्रभावित समाज में? ईमानदार तो साँस भी नहीं ले पाता अगर उसे भ्रष्ट ताकतों के सामने समर्पण करने को कहा जाता है। ऐसा करने के बाद उसका जीना न जीना एक ही बात बन जाती है।
संयोग से जब मेजर चौहान पहली बार किसी सिविलियन से मिलते हैं तो वह वेश्याओं का दलाल निकलता है। उसी एक मुठभेड़ से ऐसा संकेत मिल जाता है कि आने वाला समय टकराव का है। बुराई को तो विस्तार चाहिये और उसकी राह में खड़े हो जाते हैं मेजर चौहान जैसे विकट ईमानदार लोग।
सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि देश को चलाने वाला राजनीतिक और कानूनी तंत्र खुद तो पहल नहीं करता समाज को बेहतर बनाने के लिये और अगर कोई ऐसा प्रयास करना भी चाहे तो उसे रोका जाता है यह कहकर कि यह उसका काम नहीं है और इसके लिये विधिवत संस्थान बनाये गये हैं। अगर ये संस्थान अपना काम ढ़ंग से कर रहे होते तो ऐसी नौबत ही क्यों आती। अगर तब भी प्रयास करने वाला व्यक्त्ति नहीं मानता और बुराई के खिलाफ युद्ध जारी रखना चाहता है तो उसे प्रताड़ित किया जाता है। उसका मानसिक संतुलन बिगड़ा हुआ बताया जाता है।

नाना पाटेकर के खुद के चरित्र की एक पूरी यात्रा है। बचपन से ही वे शोषण को देखते और झेलते रहे हैं जिसने उनके अंदर बुराई और अत्याचार के प्रति गुस्सा और विद्रोह भर दिया है। बचपन में वे विवश थे, कमजोर थे अतः अत्याचार का प्रतिकार न कर पाये परंतु बड़े होने पर उनके पास शक्ति है, साहस है, और जज़्बा है बुराई से जूझने का।
माधुरी दीक्षित, डिम्पल कपाड़िया, हबीब तनवीर, गौतम जोगलेकर, मार्कण्ड देशपांडे और अच्युत पोतदार के चरित्रों को फिल्म में बखूबी उभारा गया है। बेटे की मृत्यु के लिये उसकी फौजी ट्रेनिंग को जिम्मेदार मानने वाले मि. डिसूजा (हबीब तनवीर) जब मेजर चौहान के गाल पर थप्पड़ लगाते हैं तो इस दृष्य के प्रभाव को नाना पाटेकर बहुत वास्तविक और गहरा बनाते हैं।
नाना पाटेकर की फिल्म दर्शक को सोचने के लिये प्रेरित करती है। मेजर चौहान पर कोर्ट में केस चलते दिखाकर और उनके अंदर एकत्रित हो गये गुस्से, कुंठा और हिंसा जैसे भावों के कारण उन्हे सामान्य मानसिक अवस्था वापिस लाने की बात दिखाकर वे फिल्म को एक नया मोड़ देते हैं और इसे एक जिम्मेदार फिल्म बनाते हैं। फिल्म के अंत में सैंकड़ों बच्चों का नग्नावस्था में दौड़ना एक बेहद प्रभावशाली इमेज है।
नाना पाटेकर ने बेहद अच्छी फिल्म बनायी और यह हिंदी सिनेमा का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि इस फिल्म के बाद नाना पाटेकर को और फिल्में बनाने का सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ है। काश वे और फिल्में बना पाते।
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The End
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