मंगलवार, 18 मार्च 2014

होली से मिलते जुलते विदेशी त्योहार

जर्मनी में  'ईस्टर' के दिन घास का पुतला बनाकर जलाया जाता है। लोग एक दूसरे पर रंग डालते हैं। हंगरी का 'ईस्टर' होली के अनुरूप ही है।
तेरह अप्रैल को  थाईलैंड में नव वर्ष 'सौंगक्रान' प्रारंभ होता है, इसमें वृद्धजनों के हाथों इत्र मिश्रित जल होली  की तरह  डलवाकर आशीर्वाद लिया जाता है।
लाओस में  होली जैसा  पर्व नववर्ष की खुशी के रूप में मनाया जाता है। लोग एक दूसरे पर पानी डालते हैं। म्यांमर में इसे 'जल पर्व' के नाम से जाना जाता है।
अफ्रीका में 'ओमेना वोंगा' मनाया जाता है। इस अन्यायी राजा को लोगों ने ज़िंदा जला डाला था। अब उसका पुतला जलाकर नाच गाने से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं।  अफ्रीका के कुछ देशों में सोलह मार्च को सूर्य का जन्म दिन मनाया जाता है। लोगों का विश्वास है कि सूर्य को रंग-बिरंगे रंग दिखाने से उसकी सतरंगी किरणों की आयु बढ़ती है।
पोलैंड में 'आर्सिना' पर लोग एक दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। यह रंग फूलों से निर्मित होने के कारण काफ़ी सुगंधित होता है। लोग परस्पर गले मिलते हैं।
अमरीका में 'मेडफो' नामक पर्व मनाने के लिए लोग नदी के किनारे एकत्र होते हैं और गोबर तथा कीचड़ से बने गोलों से एक दूसरे पर आक्रमण करते हैं। 31 अक्तूबर को अमरीका में सूर्य पूजा की जाती है। इसे  'होबो' कहते हैं। इसे होली की तरह मनाया जाता है। इस अवसर पर लोग फूहड वेशभूषा धारण करते हैं। 
चेक और स्लोवाक क्षेत्र में 'बोलिया कोनेन्से' त्योहार पर युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे पर पानी एवं इत्र डालते हैं। हालैंड का 'कार्निवल' होली सी मस्ती का पर्व है।
बेल्जियम की होली भारत सरीखी होती है और लोग इसे मूर्ख दिवस के रूप में मनाते हैं। यहाँ पुराने जूतों की होली जलाई जाती है।

इटली में  'रेडिका' त्योहार फरवरी के महीने में एक सप्ताह तक हर्षोल्लास से मनाया जाता है। लकड़ियों के ढेर चौराहों पर जलाए जाते हैं। लोग अग्नि की परिक्रमा करके आतिशबाजी करते हैं। एक दूसरे को गुलाल भी लगाते हैं।
रोम में इसे 'सेंटरनेविया' कहते हैं तो यूनान में 'मेपोल'ग्रीस का 'लव ऐपल' होली भी प्रसिद्ध है। स्पेन में भी लाखों टन टमाटर एक दूसरे को मार कर होली खेली जाती है।
जापान में 16 अगस्त रात्रि को 'टेमोंजी ओकुरिबी' नामक पर्व पर कई स्थानों पर तेज़ आग जला कर यह त्योहार मनाया जाता है।
चीन में होली की शैली का त्योहार 'च्वेजे' कहलाता है। यह पंद्रह दिन तक मनाया जाता है। लोग आग से खेलते हैं और अच्छे परिधानों में सज धज कर परस्पर गले मिलते हैं।
साईबेरिया में घास फूस और लकड़ी से होलिका दहन जैसी परिपाटी देखने में आती है।

नार्वे और स्वीडन में सेंट जान का पवित्र दिन होली की तरह से मनाया जाता है। शाम को किसी पहाड़ी पर होलिका दहन की भाँति लकड़ी जलाई जाती है और लोग आग के चारों ओर नाचते गाते परिक्रमा करते हैं।
इंग्लैंड में मार्च के अंतिम दिनों में लोग अपने मित्रों और संबंधियों को रंग भेंट करते हैं ताकि उनके जीवन में रंगों की बहार आए।

============
End
============

रविवार, 10 नवंबर 2013

फिल्म - नमकीन (1982) : चौरंगी में झांकी चली

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 6]
Film - Namkeen (1982) 
समीक्षक - राकेश जी
फिल्म नमकीन (1982)
-----------------------------------------------
नमकीन में कहानी के क्षेत्र में गुलज़ार को एक उम्दा कहानी समरेश बसु की तरफ से मिल गयी थी और उस कहानी को उन्होने बड़े ही मोहक, रोचक और प्रभावी अंदाज में दृष्यात्मक बनाकर दर्शकों के सामने एक संवेदनशील फिल्म प्रस्तुत कर दी।

नमकीन सिर्फ नमकीन ही नहीं है बल्कि इसमें अन्य स्वाद भी हैं, बहुत सारे रंग हैं। इसका तासीर भी विभिन्न असर छोड़ता जाता है। कभी यह गर्माहट लाता है तो कभी इसका नर्म गुनगुनापन गुदगुदाता है, कभी बसंत की छटा आँखों के सामने तैरती है तो कभी ठण्डी सफेद बर्फ एक चादर बनकर हर तरफ हर चीज को अपने सर्द अस्तित्व के तले दबा देती है। कभी तो दुख इतना गहन हो जाता है कि इससे पार पाना कठिन जान पड़ता है और कभी छोटी छोटी खुशियाँ चमन को खिला देती हैं।

नमकीन में बहुत कुछ ऐसा है जो एक बार इसे देख चुके दर्शक के साथ ताउम्र चलता रहता है। कोई संजीव कुमार की असाधारण अभिनय क्षमता की गहराई और विस्तार क्षेत्र पर मुग्ध हो सकता है। कोई वहीदा रहमान की अभिनय प्रतिभा के साक्षात दर्शन करके दाँतो तले ऊँगली दबा सकता है और अपनी सोच को विस्तार दे सकता है कि गुलज़ार अभी तक उनके साथ काम क्यों न कर पाये?

कोई शर्मीला टैगोर के संवेदनशील अभिनय को देख कह सकता है कि विवाह के पश्चात जब उन्होने ढर्रे पर चलने वाले नियमित किस्म के हिन्दी फिल्मों की नायिका के चरित्रों, जिनमें खूबसूरत दिखना और नाच-गाने में पारंगता दिखाना, से हटकर अच्छी भूमिकायें कीं तभी उन्होने अपनी अभिनय क्षमता का भरपूर दोहन और प्रदर्शन किया और गुलज़ार की मौसम, खुशबू और नमकीन उनकी उल्लेखनीय हिन्दी फिल्मों में हैं। शबाना आज़मी तो हर उस फिल्म में अच्छा काम करती ही हैं जहाँ उन्हे अच्छा चरित्र निभाने के लिये मिले और अच्छा निर्देशक मिले जो एक अच्छी फिल्म बनाने का सपना लिये फिल्म बना रहा हो न कि केवल व्यवसायिक कारणों से एक फॉर्मूला फिल्म बना रहा हो।

आम तौर पर घर की एक चुलबुली सदस्य या नायिका की चहकने वाली सहेली के चरित्रों में नजर आने वाली किरण वैराले खूबसूरत ढ़ंग से गुलज़ार की फिल्म में काम करने का फायदा उठाते हुये अपने फिल्मी जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करती हैं और बाकी तीनों अभिनेत्रियों के मुकाबले कहीं भी हल्की नहीं दिखायी देतीं।

कोई दर्शक आर.डी.बर्मन के संगीत में खोया रह सकता है। किसी को किशोर कुमार “राह पे रहते हैं” गाते हुये अपने साथ यात्रा पर ले जा सकते हैं तो कोई "फिर से आइयो बदरा बिदेसी ” गीत की अलंकृत भाषा को मधुर वाणी से संजोती हुयी आशा भोसले के साथ हरियाली से भरे पहाड़ों में सूरज और बादलों के बीच चल रहे आँख मिचोली के खेल में रमा हुआ ऐसी ही स्मृतियों या कल्पनाओं में खोया रह सकता है।

कोई “आँकी चली बाँकी चली चौरंगी में झाँकी चली” गीत में बसी कर्णप्रिय जिबरिश की भूलभूलैया में खोकर भी मस्ती से झूम सकता है तो कोई अन्य याद करने की कोशिश कर सकता है कि किरण वैराले पर फिल्माया गया नृत्य गीत, "ऐसा लगा सूरमा नजर मा आये नजर तू ही तू” तो अच्छा था ही पर उसने वहीदा जी पर फिल्माये गये मुजरे “बड़ी देर से मेघा बरसा हो रामा जली कितनी रतियाँ ” पर पहले कभी इतना ध्यान क्यों नहीं दिया?

हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों में कहीं दूरदराज बसे एक छोटे से गाँव में खंडहर बनते घर में एक कमरा किराये पर लेने आये ट्रक ड्राइवर गेरुलाल (संजीव कुमार) का चेहरा देखकर जब ज्योति/जुगनी अम्मा (वहीदा रहमान) ढ़ाबे वाले धनीराम (टी.पी.जैन) से कहती हैं, "शक्ल से तो मक्कार लगता है…” वहीदा जी का एक लापरवाह अंदाज से इस बात को कहना, संजीव कुमार का भौचक्का रह जाना और टी.पी. जैन का असंजस में पड़ जाना, इन सभी बातों के एक साथ घटित होने से जो हास्य उत्पन्न होता है उसे श्रेष्ठ प्राकृतिक हास्य के उदाहरण के रुप में प्रस्तुत किया जा सकता है। और इस हल्के गुनगुने स्तर के हास्य का सिलसिला लगभग सारी फिल्म में कायम रहता है। चाहे वह धनीराम द्वारा गेरुलाल को तीनों बहनों के परिचय देते समय भ्रम में डालने के दृष्य हों या बाद में तीनों बहनों और अम्मा के साथ गेरुलाल के सम्पर्क के कारण उत्पन्न हास्य हो, या मिटठू (शबाना आज़मी) और चिनकी (किरण वैराले) द्वारा गेरुलाल द्वारा छिपकली को छत से हटाने का प्रयास और कमरे में मौजूद इकलौते बल्ब और स्विच की जाँच-पड़ताल करने का प्रयास चुपचाप देखने और सब चीजें, जो भी गेरुलाल माँगते हैं, लाकर उन्हे गेरुलाल को देने के बाद पुनः उनके क्रिया कलापों को बड़े गौर से देखने के दृष्य हों, सब कुछ बड़े ही स्वाभाविक अंदाज में दर्शकों के सामने आता है और दृष्य दर्शकों को मुस्कुराने के लिये विवश करके उस एक क्षण की तरफ ले जाते हैं जहाँ चिनकी हैरत से गेरुलाल से पूछती हैं, "ये तुम क्या कर रहे हो?”

गेरुलाल द्वारा बताने पर कि वह बिजली की जाँच कर रहा है, चिनकी मासूमियत से कहती हैं, "पर बिजली तो यहाँ है ही नहीं।"

जैसे एक लैंस के माध्यम से किसी कागज़ या सूखी घास पर सूरज की किरणों को केंद्रित करके डाला जाये तो कुछ क्षण पश्चात सूखी वस्तु आग पकड़ लेती है और भभक कर जल उठती हैं उसी तरह नमकीन के हास्य दृष्य हैं। वे पहले तो कुछ क्षणों तक गुनगुनी धूप की भाँति दर्शक को मुस्कुराहट की गरमी देते रहते हैं और फिर सहसा ही ऐसा कुछ होता है जिससे हँसी भभक कर उमड़ पड़ती है। काश बहुत सारे लेखकों एवम निर्देशकों में ऐसी क्षमता होती तो हिन्दी फिल्मों में हास्य फूड़हता से हट कर श्रेष्ठता की ओर कदम बढ़ा पाता।

मुकम्मल तरीके से फिल्म बढ़ती है आगे की ओर, मसलन जब पहली बार गेरुलाल कमरे से बाहर नीचे झाँकते हैं तो कैमरा उनके देखने के माध्यम से धूप में सूखते मसाले, धुँआ छोड़ता चूल्हा आदि सब दिखाता है दर्शकों को। एक नया आदमी जैसे जगह को देखेगा वैसे ही कैमरा चीजों को दिखाता है।

छोटी सी पहाड़ी जगह है जहाँ छोटी से छोटी बात भी कुछ ही देर में सब लोगों को पता चल जाती है। गेरुलाल को महिलाओं से बात करते हुये हिचक होती है और निमकी (शर्मीला टैगोर) की स्पष्टवादिता के सामने तो उन्हे भय भी लगता है। निमकी एवम छोटी दोनों बहने, मिट्ठु (शबाना आज़मी) और चिनकी (किरण वैराले), किसी ऐसे पुरुष के सम्पर्क में नहीं आयी हैं जो संवेदनशील हो और उन लोगों से व्यक्तिगत रुप से पारिवारिक स्तर पर बातचीत कर सके और सुख दुख बाँट सके। गेरुलाल पहले ऐसे पुरुष हैं जो उस महिलाप्रधान परिवार में परिवार के एक सदस्य बन जाते हैं। वे शीघ्र ही चारों महिलाओं से एक गहरा नाता जोड़ लेते हैं। उनका उस परिवार में आगमन एक शांत पानी की झील में ऐसी तरंगे उत्पन्न कर देता है जो सभी दिशाओं में हलचल करने लगती हैं।

ज्योति का परिवार दुख को जीवन का आवश्यक अंग मानकर जी रहा है। कुछ दुख हैं जो उनके पीछे बीत चुके जीवन से सम्बंधित हैं और बाकी रोजमर्रा के जीवन में आने वाली परेशानियाँ हैं पर तब भी मौका मिलते ही तीनों बहने हँसी ठिठोली कर लेती हैं और ऐसे कितने ही क्षण हैं जो संदेश दे जाते हैं कि खुशी धन-सम्पदा और ऎशो-आराम की मोहताज नहीं होती। मन में संतोष हो तो हँसी कहीं भी खिल उठती है और चम्पा चमेली की सुगंध सरीखी चारों तरफ फैल जाती है।

महिलाओं के इस परिवार में बरसों से कुछ भी ऐसा अच्छा नहीं हुआ है जिससे उन्हे ऐसी आशा जगे कि आगे के जीवन में प्रगति और विकास आ सकता है। इन्ही सब निराशाओं के कारण निमकी गेरुलाल से स्पष्ट तौर पर उस तरह नजदीकी नहीं बढ़ा पातीं जैसा कि उनका अंतर्मन कहता है। वे एक तरह से घर की प्रबंधक हैं, रीढ़ हैं। वे घर के बाकी तीनों सदस्यों से गहराई के स्तर पर जुड़ी हुयी हैं और उनके पल-पल की खबर रखती हैं। वे खुद कितनी ही बड़ी हानि सहन कर लें पर अपनी माँ और छोटी बहनों पर आँच नहीं आने देना चाहतीं। उनकी तड़पन देखने लायक है जब गलती से गेरुलाल मिटठु के दिल को ठेस पँहुचा देते हैं।

निमकी चाहती हैं कि गेरुलाल मिट्ठु से शादी कर ले ताकी वह अम्मा और चिनकी की देखभाल करती रहे, पर गेरुलाल ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि उनके अंदर निमकी को लेकर ही प्रेम की भावनायें जगी हैं और जो गेरुलाल चाहते हैं कि निमकी उनसे विवाह कर ले उसके लिये निमकी तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हे भय है कि उनके घर से जाते ही यह घरोंदा बिखर जायेगा।

गुलज़ार निर्देशक के तौर पर अपनी फिल्मों में गजब का नियंत्रण रखते हैं। एक दृष्य है जिसमें गेरुलाल गाँव छोड़ कर जा रहे हैं। रोती हुयी मिट्ठु और चिनकी उन्हे ट्रक की ओर जाते हुये देख रही हैं पर निमकी एक स्तम्भ की ओट में खड़ी हुयी गेरुलाल और ट्रक की ओर पीठ करके रो रही हैं। दुखी गेरुलाल ट्रक में चढ़ते हैं, उसे स्टार्ट करते हैं, चिनकी और मिट्ठु का रुदन बढ़ जाता है, सभी को इंतजार है निमकी की प्रतिक्रिया का। वे भी मुड़कर जाते हुये ट्रक की ओर देखती हैं पर उनके मुड़ने और देखने का समय नियत है। उनकी प्रतिक्रिया और उस प्रतिक्रिया के होने का समय दृष्य में मौजूद भावनाओं की तीव्रता को एकदम से बढ़ा देते हैं। यही गुलज़ार साब की खूबी है, वे मानवीय भावों को बेहद सटीक ढ़ंग से प्रस्तुत करते हैं।

गेरुलाल के घर में किरायेदार बन कर आने से दुखों के पहाड़ पर बैठ कर जीवन काट रहे परिवार में कुछ उमंगें जन्मने लगी थीं और गेरुलाल के अनायास ही चले जाने से उन सब नय जन्मे सपनों की असमय ही मौत होती देख कर सारे सम्बंधित व्यक्ति हतप्रभ हैं। मजबूरियों के सामने अपने अपने सपनों को कुचलता देखकर व्यक्तियों को जीना है और जीवन को आगे चलना है। दिल में दुख तो रह ही जाते हैं, दिल में खारिश तो रह ही जाती है।

परिवार के दुखों में साझा करके परिवार से बिछुड़ने का एक नया दुख लेकर गेरुलाल नये शहर आ जाते हैं। तीन बरस बीत जाते हैं, न कोई चिट्ठी इधर से उधर जाती है, न ही किसी तरह के संदेश का आदान प्रदान हो पाता है।

नमकीन के एक संस्करण में फिल्म “राह पे रहते हैं” गीत पर खत्म हो जाती है और एक ऐसा अंत छोड़ जाती है जिसमें दर्शक इस खुली आशा के साथ रह जाता है कि कभी गेरुलाल वापिस गाँव में जरुर आयेंगे जैसा कि उन्होने चिनकी से कहा है और शायद निमकी उन्हे खत लिखेंगी जैसा कि गेरुलाल ने उनसे गुजारिश की है। दुख है उनके इस तरह चले जाने से, क्योंकि सब बातें उसी जगह अटकी रह गयी हैं जहाँ उनके गाँव में आगमन से पहले थीं पर तब भी एक आशा है।

दूसरे संस्करण में फिल्म आगे की कहानी दिखाती है। राह पर ही चलते रहने वाले ट्रक ड्राइवर गेरुलाल के अंदर बसे दुख ने उनकी जीवनचर्या काफी हद तक बदल डाली है। अंदर समा गये दुख ने तीन बरस बढ़ी हुयी उम्र से कहीं ज्यादा उनके शरीर को पुराना और कमजोर कर दिया है। गेरुलाल अब शराब पीने लगे हैं। नौटंकी न देखने की स्व:पोषित कसम भी वे साथियों के थोड़ा सा जोर देने पर तोड़ डालते हैं।

गेरुलाल नौटंकी में नर्तकी को पहचान कर वे स्तब्ध रह जाते हैं और उनके जीवन में तीन साल पहले बीती घटनाऐं जिंदा होकर उन्हे झिंझोड़ने लगती हैं। तीन साल पहले एक रात उन्होने केवल महिलाओं वाले उस घर को एक शराबी बूढ़े से बचाते हुये शराबी को यह कहकर वहाँ से भगा दिया था कि अब यहाँ गेरुलाल रहता है। बाद में ज्योति अम्मा से ही उन्हे पता चलता है कि शराबी बूढ़ा दरअसल में किशनलाल था, ज्योति/जुगनी का पति और तीनों लड़कियों का पिता जो अपनी किसी भी लड़की को नौटंकी में नाचने के लिये तैयार करने के लिये वहाँ कुछ अंतराल के बाद आता रहता है ताकि उसके जीवनयापन के साधन और शराब पीने जैसी आदतों के पूरे होने के लिये धन का प्रबंध हो सके।

जीवन और शतरंज की बिसात में बहुत अंतर नहीं है। बस जीवन में हार जीत के फैसलों या परिणामों से ज्यादा जीने का खेल ज्यादा महत्वपूर्ण है।

गेरुलाल को यह शिक्षा देती है सब चरित्रों में सबसे कम आयु की चिनकी। वह कोसती है गेरुलाल को कि वक्त्त पर उसने निर्णय न लेकर कितनी बड़ी गलती की। ऐसी गलती जिसका खामियाजा सारे घर को भुगतना पड़ा। अगर गेरुलाल उस समय निमकी से विवाह कर लेते तो ठहराव के जंजाल में अटके पड़े उस घर और वहाँ रहने वाले व्यक्तियों के जीवन में एक प्रवाह आ जाता।

चिनकी कहती है कि वहाँ कोई जी नहीं रहा था बस एक दूसरे के लिये कुरबानी का जज्बा लिये हुये जीवन को दबोचे हुये एक जगह पड़े हुये थे। गेरुलाल से कुछ आशा बँधी थी कि वे कोरी हमदर्दी न दिखाकर कुछ ठोस कदम उठायेंगे पर वे निमकी के हठ के आगे झुक गये और चुपचाप चले आये सब कुछ वैसा ही छोड़ कर, इस आशा के साथ कि शायद बाद में सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा।

नौटंकी में सारंगीवादक, अपने जिस शराबी पति के चंगुल से अपनी पुत्रियों को बचाने के लिये ज्योति ने गरीबी में सारी ज़िंदगी गुजार दी वही किशनलाल (राम मोहन), गेरुलाल से कहते हैं कि अगर कभी जुगनी से मुलाकात हो तो कहना, "तुम अगर दुखी रहीं तो सुखी मैं भी नहीं रहा।"

ज़िंदगी किसी के रोके से नहीं रुकती। जिन बातों को होने से रोकने के लिये निमकी ने गेरुलाल के बेहतरीन प्रस्ताव को स्वीकार करने से इंकार कर दिया था वे सारी बातें उनके जीवन में होकर रहीं। अपने खुद के जीवन को खाद बनाकर उन्होने अपने प्रियजनों के जीवन में अनदेखे दुख न आयें ऐसा प्रयास किया पर उनके प्रयास विफल रहे। उनके त्याग काम नहीं आये और घर बिखर ही गया।

टूटे फूटे खंडहर नुमा उस घर में तीन बरस पहले घोर गरीबी के बावजूद समय समय पर बहनों की खिलखिलाहट गूँज जाया करती थी पर आज वहाँ सन्नाटा घर किये बैठा रहता है। घर की सबसे बड़ी बेटी निमकी अकेली इधर से उधर घूमा करती है। शायद इस आशा में वह वहाँ टिकी है कि हो सकता है जीवन के दूर चले गये सिरे शायद कभी वापस आ मिलें। निमकी के पास यादें हैं और एक अंतहीन सा दीखता इंतजार और शायद होंगे कुछ पछतावे।

सूने और अकेलेपन से भरे ठहरे जीवन के ताल में तरंग उत्पन्न होती हैं एक रात जब सहसा वे गेरुलाल को वहाँ खड़ा पाती हैं। आज उनमें साहस नहीं बचा है। आज किसी बात को सम्भालने की इच्छा से भरी ऊर्जा उनमें नहीं है। आज उनमें इतना धीरज नहीं है कि वे फिर से गेरुलाल को वहाँ से जाते हुये देख सकें और इसलिये उनके संयम का बाँध टूट जाता है और वे कहती हैं गेरुलाल से, "आज मैं तुम्हे वापस नहीं जाने दूँगी।"

गेरुलाल के आश्वासन देने के बाद भी कि वे वहाँ उसी से मिलने आये हैं और जाने के लिये नहीं आये हैं, वे शक्ति नहीं जुटा पातीं और बरसों से साधे स्व:अनुशासन की ऊर्जा बिखर जाती है और वे भावनाओं के वशीभूत हो जमीन पर गिर पड़ती हैं। सूकून यही है कि इस गहन अंधकार का अंत करने उजाले के रुप में गेरुलाल का साथ आ गया है जिसके सहारे निमकी फिर से उठ खड़ी होंगी, बाकी के जीवन को साझा रुप से जीने के लिये।
============
The End 
============
समीक्षक : राकेश जी

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

साहित्यिक कृतियों पर आधारित हिंदी फ़िल्में

Films Based on Indian Novels & Literature
-------------------------------------------------------------------------------------------

मारे अधिकाँश फिल्मकारों का यह मानना रहा है कि चूँकि सिनेमा का मूल उद्देश्य जनता का मनोरंजन करना है अतैव साहित्यिक कृतियों के जरिये दर्शकों की अपेक्षाओं को पूरा करना कठिन हो जाता है ! इसके बावजूद भी अनेक प्रबुद्ध और सजग फिल्मकारों ने समय-समय पर नामी लेखकों की साहित्यिक कृतियों व रचनाओं को आधार बनाकर सफल फिल्मों का निर्माण किया !

यहाँ हम हिंदी सिनेमा की ऐसी फिल्मों की सूची दे रहे हैं जो साहित्यिक कृतियों पर आधारित हैं :

=======================================================
'देवदास' - मूलरूप से बांग्ला में लिखित शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास  को आधार बनाकर हिंदी में प्रमथेश बरुआ (1936), विमल राय (1955) और बाद में संजय लीला भंसाली (2002) द्वारा फ़िल्म का निर्माण हुआ !
=======================================================
'परिणीता' - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा 1914 में रचित चर्चित बांग्ला उपन्यास पर इसी नाम से 1942 में पशुपति चटर्जी ने, 1953 में बिमल राय ने, 1969 में अजॉय कार ने और 2005 में प्रदीप सरकार ने फ़िल्म का निर्देशन किया !
=======================================================
'ज़िद्दी' (1948) - इस्मत चुगतई की कहानी पर केंद्रित फ़िल्म का निर्देशन शाहिद लतीफ़ ने किया !
=======================================================
'बिराज बहू' (1954) - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की कृति पर आधारित फ़िल्म का निर्माण हितेन चौधरी ने और निर्देशन बिमल राय ने किया !
=======================================================
'सुजाता' (1959) - सुबोध घोष की बांग्ला कहानी पर आधारित फ़िल्म का निर्देशन बिमल राय ने किया !
=======================================================
'धर्मपुत्र' (1961) - आचार्य चतुरसेन के उपन्यास को आधार बनाकर यश चोपड़ा ने इसी नाम से फ़िल्म बनायी
=======================================================
'साहब बीबी और गुलाम' (1962) - बांग्ला उपन्यासकार विमल मित्र के उपन्यास पर इसी नाम से गुरुदत्त ने फ़िल्म बनायी, जिसको अबरार अल्वी ने निर्देशित किया !
=======================================================
'गोदान' (1963) - उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की अमर कृति पर आधारित फ़िल्म का निर्देशन त्रिलोक जेटली ने किया !
=======================================================
बंदिनी (1963) - चारुचंद्र चक्रबर्ती 'जरासंध' के बांग्ला उपन्यास 'तामसी' पर केंद्रित फ़िल्म का निर्माण बिमल राय ने किया !
=======================================================
'काबुलीवाला' (1965) - रबींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित कहानी पर केंद्रित फ़िल्म का निर्माण बिमल राय ने और निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया !
=======================================================
'गाइड' (1965) - मूलरूप से अंग्रेजी में लिखे गए आर.के.नारायण के उपन्यास 'दि गाइड' पर देव आनंद ने हिंदी में फ़िल्म का निर्माण किया, जिसे विजय आनंद ने निर्देशित किया ! 
=======================================================
'गबन' (1966) - मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर केंद्रित फ़िल्म का निर्माण ऋषिकेश मुखर्जी ने किया !
=======================================================
'तीसरी कसम' (1966) - उपन्यासकार-कहानीकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' की चर्चित कहानी 'तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम' को आधार बनाकर बासु भट्टाचार्य ने  फ़िल्म बनायी !
=======================================================
'सरस्वतीचन्द्र (1968) - गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी के गुजराती उपन्यास पर उसी नाम से फ़िल्म का निर्माण गोविन्द सरैया ने किया !
=======================================================
'भुवन सोम' (1969) - बलाई चन्द्र मुखोपाध्याय द्वारा रचित बाँग्ला कहानी पर आधारित फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन मृणाल सेन ने किया ! 
=======================================================
'सारा आकाश' (1969) - हाल में ही दिवंदत कथाकार 'राजेन्द्र यादव' के उपन्यास 'प्रेत बोलते हैं' को आधार बनाकर निर्देशक बासु चटर्जी ने फ़िल्म बनायी !
=======================================================
'सफ़र' (1970) - आशुतोष मुखर्जी के बांग्ला उपन्यास पर आधारित फ़िल्म का निर्माण असित सेन ने किया ! 
=======================================================
'छोटी बहू' (1971) - निर्देशक के.बी.तिलक ने शरतचन्द्र चटर्जी के बांग्ला उपन्यास 'बिन्दुर छेले' पर केंद्रित फ़िल्म बनायी !
=======================================================
'रजनीगंधा' (1974) - निर्माता-निर्देशक बासु चटर्जी ने कथा लेखिका मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच है' को आधार बनाकर फ़िल्म बनायी !
=======================================================
'मौसम' (1975) - साहित्यकार 'कमलेश्वर' की लम्बी कहानी 'आगामी अतीत' पर निर्देशक 'गुलज़ार' ने फ़िल्म का निर्माण किया !
=======================================================
'आंधी' (1975) - 'कमलेश्वर' के ही एक अन्य उपन्यास 'काली आंधी' को केंद्र में रखकर गुलज़ार ने फ़िल्म बनायी !
=======================================================
'बालिका बधू' (1976) - तरुण मजूमदार के निर्देशन में बनी ये फ़िल्म 'बिमल कार' के बांग्ला उपन्यास पर आधारित थी !
=======================================================
'शतरंज के खिलाड़ी' (1977) - प्रेमचंद की कहानी पर सत्यजीत रे ने इसी नाम से फ़िल्म बनायी !
=======================================================
'भूमिका' (1977) - मराठी रंगमंच-सिनेमा की अभिनेत्री हंसा वाडकर द्वारा लिखे संस्मरण - 'सांगते एका' पर आधारित फ़िल्म का निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया !
=======================================================
'जूनून' (1978) - रुस्किन बॉन्ड के नावेल 'ए फलाईट आफ पिजन्स' पर आधारित फ़िल्म का निर्माण शशि कपूर ने और श्याम बेनेगल ने निर्देशित किया !
=======================================================
'अपने पराये' (1980) - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित बांग्ला उपन्यास 'निष्कृति' पर आधारित फ़िल्म  का निर्देशन बासु चटर्जी ने किया ! 
=======================================================
'सदगति' (1981) - प्रेमचंद की कहानी के आधार पर छोटे परदे के लिए सत्यजीत रे ने फ़िल्म का निर्माण किया
=======================================================
'उत्सव' (1984) - संस्कृत नाट्य कथा 'मृच्छकटिकम्' पर आधारित इस फ़िल्म का निर्माण शशि कपूर और निर्देशन गिरीश कर्नाड ने किया !
=======================================================
'इज़ाज़त' (1987) - सुबोध घोष द्वारा रचित कहानी 'जोतुगृह' पर आधारित फ़िल्म को गुलज़ार ने निर्देशित किया !
=======================================================
'सूरज का सातवां घोडा' (1992) - 'धर्मवीर भारती' के उपन्यास पर निर्देशक श्याम बेनेगल ने उसी नाम से फ़िल्म बनायी !
=======================================================
'ट्रेन टू पाकिस्तान' (1998) - मूलरूप से अंग्रेजी में लिखे खुशवंत सिंह के उपन्यास पर निर्देशक पामेला रुक्स ने फ़िल्म बनायी !
=======================================================
'अग्निवर्षा' (2002) - गिरीश कर्नाड के अंग्रेजी में लिखे नाटक 'रेन एंड फायर' को आधार बनाकर निर्देशक अर्जुन सजनानी ने फ़िल्म का निर्माण किया !
=======================================================
'ब्लैक फ्राईडे (2004) - एस.हुसैन जैदी के लिखे उपन्यास - 'ब्लैक फ्राईडे - द ट्रू स्टोरी आफ द बॉम्बे ब्लास्ट्स' पर केंद्रित फ़िल्म का निर्देशन अनुराग कश्यप ने किया !
=======================================================
'थ्री इडियट्स' (2009) - निर्देशक राजकुमार हिरानी ने चर्चित लेखक चेतन भगत के उपन्यास 'फाइव प्वाइंट समवन' पर आधारित फ़िल्म का निर्माण किया ! 
=======================================================
'काय पो छे' (2013) - चेतन भगत के एक अन्य उपन्यास 'दि थ्री मिस्टेक्स आफ माई लाईफ' पर आधारित हाल ही में रिलीज फ़िल्म को अभिषेक कपूर ने निर्देशित किया !
=======================================================

चूँकि फ़िल्म एक ऐसा माध्यम है जो जन-जन से जुड़ा है, इसलिए फिल्मकारों साहित्यिक कृतियों को फिल्माने में थोड़ी-बहुत छूट भी ली है ! कई बार लेखकों ने अपनी कृति के साथ खिलवाड़ करने के आरोप भी लगाए हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि फ़िल्म के माध्यम से साहित्यिक रचनाओं को बड़े पैमाने पर पहचान भी मिलती है !
=================
The End 
=================

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

फ़िल्म- शाहिद (2013) : सच्ची बात कही थी मैने, सूली चढ़ा दिया

 [बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 5]
Film - SHAHID (2013)   
समीक्षक - रोहित यादव जी
 कुछ तो मुझसे सीखों यारों, 
सच्ची बात कही थी मैने, लोगों ने सूली पर चढ़ा दिया

सत्यमेव जयते” बात आमिर खान के टी.वी. शो की नहीं, बल्कि बात उस राष्ट्रीय सिध्दांत की जिसे हम दीवालों पर, भारत सरकार के हर राजपत्र पर और हमारे बटुये में रखे हुये नोट के एक कोने में लिखा हुआ पाते है। आज़ाद भारत के हुक्मरानों ने बहुत सोच समझ कर जब इस संस्कृत की इस सूक्ति को मुंडक उपनिषद से निकाल कर भारत का राष्ट्रीय सिध्दांत बनाने का विचार बनाया होगा, तब उन्होनें ये बिल्कुल नही सोचा होगा कि उनकी आने वाली पीढ़ियाँ आगे चलकर एक ऐसे देशकाल में जीने के लिये अभिशप्त होंगी जहाँ “सत्य” की तो विजय होगी पर सबसे पहले उस अधनंगे फकीर की हत्या की जायेगी, जिसने पूरी ज़िंदगी सत्य और अहिंसा की साधना की। इसी देश में “सत्य” की मशाल थामने वाले हाथों को काटा जायेगा। “सत्य” और न्याय की लड़ाई करने वालों के साथ बलात्कार किये जायेंगे। वैज्ञानिक जागरूकता पैदा करने वालों दाभोलकरों की हत्या की जायेगी, और गरीब मुस्लिम जनता के लिये न्याय की माँग करने वाले “शाहिद आज़मी” को पहले फोन पर धमकाते हुये जेहादियों का गाँधी कहा जायेगा और फिर उन्हें भी तीन गोलियों से छलनी कर दिया जायेगा।

म सभी को बतलाया जाता है कि आतंकवादी वो मुस्लिम युवा होते है जिनका तथाकथित “ब्रेनवाश” किया जाता है। पर क्या हमारा ब्रेनवाश नही किया जाता कि जब चीख चीख कर मीडिया कह रहा होता है कि फलाना विस्फोट के मामले में इतने मुस्लिम युवा गिरफ्तार। ... पर मीडिया ये बताना भूल जाता है कि उन मुस्लिमों की आर्थिक पृष्ठभूमि क्या है ... और यही सवाल फिल्म अपने कोर्ट रूम में जज़ से पूछती है कि क्यों पुलिस की जाँच में अधिकतर अभियुक्त वो होते है जो गरीब होते है ... और यकायक उनके खिलाफ पुलिस सबूतों और गवाहों की एक झड़ी लगा देती है .... फिर जज़ साहब अपना फैसला सुना देते है ... फिर मीडिया चिल्ला चिल्ला कर आप के ड्रांईग रूम तक ये बात पहुँचा देता है कि ज़नाब सज़ा हो गई है ... और देश में कानून व्यवस्था का राज़ चल रहा है ... पर इस बीच में वो नीचे न्यूज़ रील में एक छोटी सी लाईन चला देता है कि टाडा के तहत सज़ा पाये हुये संजय दत्त नामक एक शख्स की पैरोल की अवधी को 14 दिनों के लिये और बढ़ा दिया गया है ... और गृह-मंत्रालय और महाराष्ट्र सरकार इसे और बढ़ाने के लिये वार्ता कर रहा है। हम तक इन दो खबरों के बीच की आर्थिक गहराई नही आती और हम उस वक़्त फेसबुक पर स्टेटस अपडेट कर रहे होते है “हुर्रे हम जीत गये, टेररिज्म डाऊन डाऊन”। इस पूरे प्रकरण में बरबस “अंधेर नगरी” नाटक याद आता है कि अगर कुछ हुआ है तो किसी को तो सज़ा मिलनी ही चाहिये। भले ही वो असली गुनाहगार हो या ना हो।

“शाहिद” अपने शुरूवाती दो मिनटों में पहले शाहिद आज़मी की ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बताती है और फिर दो गोलियों की आवाजें, जो आपकेकान के पर्दे को भेदती हुई आपके दिल के उस कोने तक जाती है। जहाँ एक सहमा हुआ सा एहसास रहता है कि अगर आप सच्चे है और ईमानदार है तो आप इस देश में सुरक्षित है?? फिल्म शुरू होती है 1993 के दंगों से जब जिजिविषा इतनी स्वार्थी हो जाती है कि दंगे मे बाहर फंसे हुये अपने बेटे के लिये भी माँ दरवाजा नही खोल रही होती। फिर वही लड़का अपने भटके हुये मन से आतंकवादी शिविर में प्रशिक्षण के लिये जा पहुँचता है, जहाँ जा कर उसे समझ आता है कि गलत मोड़ पर ज़िंदगी आ चुकी है। वह वहाँ से भी भागता है गोया अपने जीवन के लिये भाग रहा होता है। पर इस सफर का अंत यहाँ नही होता जिस सिस्टम से वो जेहाद करना चाहता था वही सिस्टम उसे पाँच साल के लिये तिहाड़ में भेज देता है। बस फिल्म का ये जो तिहाड़ जेल वाला दौर होता है वही आपको मज़बूर करता ये विश्वास करने के लिये कि आपके देश में संविधान के कुछ “शब्द” किताबों के इतर भी अपना एक वजूद रखते है।

जेल के बाहर आते ही शाहिद समझ जाते है कि अन्याय दिखा कर ख़ुदा ने उसे न्याय का महत्व दिखा दिया। यही से एक दूसरा संघर्ष शुरु होता है, जिसमें शाहिद अपने मकसद के लिये अपना सब कुछ दाँव पर लगा देते है। इतनी मुसीबतों के बीच भी शाहिद भी एक आम इंसान ही थे। ये आपको तब समझ आता है जब वो एक तलाक़शुदा महिला से प्यार करते हुये अपना आम जीवन बिताना चाहते थे। यही तलाक़शुदा महिला जो शुरु में कहती है कि आप सही काम के लिये डरिये मत वही महिला शादी के बाद इसी बात के लिये शाहिद को डाँटती है और कहती है कि "पहले जब पहले कहा था तब मैं तुम्हारी पत्नी नही थी"। यह इतनी मार्मिक चोट है जिससे शायद हर “शाहिद” गुज़रता होगा जो ये भी बताता है कि हमारे सिध्दांत, हमारे आदर्श और हमारी प्रगतिशीलता सब कि सब एक फोल्डिंग पलंग की तरह हो चुके है। जिसे हम जब चाहे तब बिछा कर अपने गुणों का थोथा बखान करते है और जब चाहे तब उन्हें समेट कर दिवाल के के कोने से लगा कर रख देते है कि “भाईसाहब बी प्रैक्टिकल”।.

स अति भावुक हिस्से में भी कैमरा पति-पत्नि की लड़ाई के बीच से थोड़ा हटकर उस बच्चे पर भी चला जाता है, जिसे पिछले छ: दिनों से बुख़ार है। जिसकी बेचैन निगाहें कुछ समझ ही नही पा रही है कि क्यों उसके पिता को इस बात की ख़बर तक नही हो पायी है। अब उस मासूम को कौन समझाये कि उसके पिता समाज के कैंसर से लड़ रहे है और उसकी कीमत कहीं ना कहीं उसका अबोध बचपन चुका रहा होता है।

कुछ और भी ऐसे दृश्य है जो ये बताते है कि सत्य और न्याय की लड़ाई के पीछे कौन-कौन खड़े होते है ... क्या वो तिहाड़ जेल का वार्डन, जिसने शाहिद को पढ़ने की अनुमति दी ... क्या वो कश्मीर का व्यापारी जिसने शाहिद को “उधार” पैसे दिये, ... क्या वो प्रोफेसर जिसने शाहिद की ऐतिहासिक, सामाजिक और व्यवहारिक सोच को मजबूत किया, ... क्या वो भाई जिस पर “दो पर्सनल लोन” पहले से ही है पर फिर भी वो अपने छोटे भाई के लिये एक और लोन लेने के लिये तैयार है, ... और अंत में वो पत्नी जो रात का खाना बना कर अपने पति का इंतजार कर रही होती है और पति जब आता है तो उससे बिना पूछे खाना शुरु कर देता है। क्या ये सब भी शाहिद की लड़ाई के साथी नही थे। जब आप शाहिद को एकाकी में अपनी पत्नी से अपनी बेबसी का बयान करते हुये, फोन पर ही ज़ार-ज़ार रोते हुये देखते है तो क्या आपकी आँखें नम नही होती ?? दिमाग को कुछ झंझोड़ता नही कि क्या गलती थी इस इंसान की ?? 

ही न कि वो सिर्फ न्याय चाहता था, यही ना कि वो सिर्फ ये चाहता था कि अंध-देशभक्ति की नींव में किसी बेकुसूर “फ़हीम अंसारी” की ज़िंदगी का पत्थर ना गाड़ा जाये। और यही न कि कोई निर्दोष मुस्लिम अभियुक्त अपने नवजात बेटे को अपनी गोद में उठा कर उससे कह सके कि बेटा मैं निर्दोष था मुझे फंसाया गया था। ऐसी गलती करने वाले “शाहिदों” की विश्व में दूसरी सबसे तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था में कोई जगह नही है, उन्हें मरना ही होगा।

फिल्म के सभी कलाकारों का चयन मुकेश छाबड़ा ने किसी गोताखोर की तरह किया है। समुद्र में गहरे उतर कर चुन-चुन कर वो मोती खोज़े है जो फिल्म की माला में सौ फीसदी टंच (बकौल दिग्विजय सौ प्रतिशत खरा सोना) लगते है। चाहे राजकुमार यादव हो, ज़ीशान अय्यूब हो, प्रभालीन संधू हो, शालिनी वत्स हो, तिग्मांशू धूलिया हो या खुद हंसल मेहता। हर पात्र के लिये एक दम सही चुनाव है। हर कलाकार ने कोई कसर नही छोड़ी इस सिनेमाई महाकाव्य को भव्य बनाने के लिये। अब कितने दृश्यों के बारे में लिखूं सभी तो एक से बढ़ कर एक है।      

फिल्म के लेखक समीर गौतम सिंह, हंसल मेहता और अपूर्व असरानी पूरी कहानी में किसी भी बड़ी बात के लिये इतने सधे और चुने हुये शब्दों का चयन करते है कि आप अचरज में पढ़ जाते है। एक ऐसी फिल्म जिसमें अधिकतर चरित्र मुस्लिम है पर उर्दू के लफ़्ज़ किसी की भी ज़बान पर चढ़े हुये नही होते। सभी आम चरित्रों की तरह बातें करते है।

छायाकार अनुज धवन ने डी.एस.एल.आर. छायांकन का महत्व समझा दिया है। फिल्म के क्रेडिट के अंत में “canon EOS” लिख कर आना एक नई सिनेमा क्रांति की ज़ोरदार दस्तक है। जो ये कह रही है कि अगर आप के पास कोई बढ़िया कहानी है, और आप उस पर फिल्म बनाना चाहते है तो बस स्क्रिप्ट लिखिये, अपना डी.एस.एल.आर. कैमरा उठाईये और एक फिल्म बना डालिये। बाकी आगे का काम तकनीक साध लेगी।

संपादक अपूर्व असरानी जिन्होंने 1998 में ही “सत्या” का संपादन कर पहली ही फिल्म में बेस्ट एडिटर का फिल्म फेयर अवार्ड जीता था। उनका कहानी कहने का तरीका आज भी उनकी पहली फिल्म की ही तरह ताज़ा-तरीन है। लंबे समय बाद आपका काम बड़े पर्दे पर देखा बहुत अच्छा लगा और आपको निर्देशक की कुर्सी से ज्यादा वक़्त संपादन की डेस्क पर बिताना चाहिये। हम सभी को बहुत अच्छा लगेगा और शायद कहीं ना कहीं आपको भी।

फिल्म के निर्देशक हंसल मेहता जी के बारे में जितना कहा जाये उतना ही कम है बकौल अपूर्व शुक्ल आपने शायद “खाना खज़ाना” का निर्देशन करते वक़्त ही ये समझ लिया था कि सिनेमाई मसालों का सही मिश्रण कैसे तैयार किया जाता है। आपको सिर्फ और सिर्फ सलाम। बहुत बहुत बधाई। आशा है कि आपकी अगली फिल्म भी हम सब को फिल्म देखने के बाद सिनेमा हॉल की कुर्सी पर बैठ कर अपनी नम आँखों को पोंछने के लिये रूमाल निकालने के लिये मज़बूर कर देगी और उससे भी ज्यादा चोट करेगी हमारी जड़ता पर।
         
फिल्म के बारे में कहीं पढ़ा था कि ये फिल्म एक करोड़ से भी कम बजट में बनाई गई है। बोहरा ब्रदर्स, अनुराग कश्यप और डिज्नी यूटीवी को बहुत बहुत धन्यवाद कि उन्होनें ऐसी फिल्म को बड़े पैमाने पर वितरित किया। बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में इस बात का रोना रोने वालों को अब चुप हो जाना चाहिये कि भारत में अच्छी फिल्में कोई नहीं देखता। हमें फक्र होना चाहिये कि अब हिन्दी सिनेमा के कुछ फिल्मकार सिनेमाई किशोरावस्था से विकसित हो कर वयस्कता की ओर कदम बढ़ा रहे है। हम उस तथाकथित बाज़ारवाद में है जहाँ ऐसी संवेदनशील फिल्मों का बनना और रिलीज होना आम बात हो चुकी है। (ये बात प्रकाश झा जी के लिये नही है)  
        
तो जाईये ये फिल्म देखिये ताकि “शाहिद” की पूरी टीम को हौंसला मिले                       
============
The End
============  
समीक्षक : रोहित यादव जी 
-----------------------------------------