गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

फिल्म - नसीम (1995) : अनेकता में एकता की विरासत पर हमले की दास्तान

[बेहतरीन फिल्मों की उत्कृष्ट समीक्षा - 3]
Film - Naseem (1995) 
समीक्षक - राकेश जी

अनेकता में एकता की विरासत पर हमले की दास्तान
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सईद मिर्जा की फिल्म नसीम कई मायनों में एक महत्वपूर्ण फिल्म है। यह समकालीन समस्यायों पर अपना ध्यान केंद्रित करने से नहीं हिचकिचाती। यह फिल्म एक खास माहौल में जन्मे घटनाचक्रों को अपने कथानक में समेटती हुयी आगे बढ़ती है और अपने किरदारों, जो कि भारत के किसी भी हिस्से के आम से लोग हो सकते हैं, पर उन घटनाओं का असर होते हुये दिखाती है।

यह साम्प्रदायिक तनाव और द्वेष को दिखाने का साहसी कार्य बिना अतिनाटकीयता का सहारा लिये हुये इस तरीके से दिखाती है कि संदेश स्पष्ट भी हो जाता है और कहीं से भी हिंसा का प्रदर्शन स्क्रीन पर नहीं होता। इस अतिनाटकीयता से परहेज के कारण फिल्म फंतासी न लग कर बिल्कुल अपने ही आस-पास के परिवेश से जुड़ी हुयी लगती है, और एक कविता की तरह यह वास्तविकता के नजदीक ले जाती है और समाज को प्रभावित करने वाले मसलों के अर्थ समझाने का प्रयास करती है।

फिल्म बड़ा ही महीन कातती और बुनती है और दर्शक को उस महीन वस्त्र से ढ़ककर समझदारी का कवच प्रदान करती है, जो शायद बाहर से न दिखायी दे पर जिसका स्पर्श दर्शक के दिलो दिमाग पर छाया रहे।

फिल्म तीन पीढ़ियों की मौजूदगी को दर्शाती है। एक पीढ़ी है दादाजान (कैफी आज़मी) की। दादाजान अधिकतर बिस्तर पर ही लेटे रहते हैं और वे केवल एक बार ही बिस्तर से उठकर खड़े दिखायी देते हैं और शरीर से बीमार होने के बावजूद वे दिमाग से पूरी तरह स्वस्थ हैं। वे अखंड भारत में जन्मे थे और जब राजनीतिक महत्वाकांक्षी लोगों ने देश के दो टुकड़े करवा दिये तो वे भारत में ही रहे, जहाँ उनका जन्म हुआ था और जहाँ वे बिना किसी किस्म के धार्मिक भेदभाव के जीवन जीते रहे।

दूसरी पीढ़ी में उनका पुत्र (कुलभूषण खरबंदा) और पुत्रवधु (सुरेखा सीकरी) हैं। कुलभूषण समझते हैं कि मुसलमान होने के कारण उन्हे दफतर में बिना वजह परेशान किया जा रहा है। पर उनकी सोच अतिवादी नहीं है और परिस्थितिजन्य ही अधिक लगती है।

वर्तमान के तनावों से परेशान कुलभूषण अपने पिता से पूछते हैं, ”अब्बा, आप पाकिस्तान क्यों नहीं चले गये”।
दादाजान शांति से उन्ही से वापिस पूछते हैं, ”तुम्हे आगरे वाले घर के बाहर का वो पेड़ याद है? तुम्हारी अम्मी को भी बहुत पसंद था”।

तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं दादाजान के पौत्र मुश्ताक (सलीम शाह)।
मुश्ताक अतिवादी सोच के शिकार हैं और उनके मित्र ज़फर (के.के.मेनन) तो व्यवहार में भी एकदम अतिवादी हैं और वे उग्रवादी सोच के प्रतिनिधि बन चुके हैं। वे हिंसात्मक रास्ते अपनाने से गुरेज नहीं करेंगे। वे अयोध्या शायद कभी न गये हों और न कभी जायेंगे पर अयोध्या की घटना उन्हे ऐसे उबालती रहती है जैसे कोई व्यक्तिगत रुप से उन्हे छेड़ रहा हो। ये ऐसी पीढ़ी के भारतीय युवा हैं जो ऐसे परिवेश में बड़े हुये हैं जहाँ धार्मिक सदभाव आदि की बातें कागजी हैं और उन्हे लगता है कि एक बार आमने सामने का मुकाबला करके हरेक विवाद का फैसला किया जा सकता है।

इन तीनों पीढ़ियों के बीच आसानी से आवागमन करने वाला अस्तित्व है दादाजान की पौत्री नसीम (मयूरी कांगो) का। वह एक खुशगवार अहसास है। वह जीवन का उल्लास है। अगर नसीम की किशोरावस्था को समुचित देखभाल दी जाती है, वाजिब स्वतंत्रता दी जाती है, एक स्वस्थ परिवेश दिया जाता है तो ऐसा कहने में कोई गुरेज नहीं हो सकता कि वह देश का भविष्य है। नसीम और दादाजान की उपस्थिति घर में एक संस्कार, एक तहजीब और एक विरासत के स्थानांतरण की प्रक्रिया को हर समय दर्शाती है।

नसीम अपने पिता के उठने के बाद पूछती हैं, ”दादाजान, क्या वाकई एक पेड़ की खातिर आप भारत में रह गये?”
दादाजान मुस्कुराकर उसे प्यार से देखते हैं।

घर के बाहर लगे पेड़, जिसकी छत्रछाया में जीवन के जाने कितने प्यारे लम्हे गुजारे गये होंगे, जाने कितनी यादें उससे जुड़ी हुयी होंगी, के कारण पाकिस्तान न जाने वाले कवित्त भाव और कोमल हृदय वाले मनुष्य को कैसे परेशान कर सकते हैं, समाज के गुण्डा तत्व ? अमानवीय ही हो सकते हैं ऐसे लोग जो ऐसे भारतीयों को बाहरी बताते हों और उन्हे देश छोड़कर जाने के लिये कहते हों।

जिन्हे पाकिस्तान जाना था वे तो सन सैंतालिस में ही चले गये थे पर जो रह गये उन्होने तो स्पष्टतया हिन्दुस्तान को चुना अपने रहने के लिये। वे तो यहीं जन्मे, यहीं पले, बड़े हुये और यहीं की मिट्टी में समय आने पर दफन हो जायेंगे।

साम्प्रदायिक तनाव से अलग फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है नसीम और दादाजान का रिश्ता और उनका आपस में मेलजोल जहाँ हर पल एक पीढ़ी अपनी अच्छी चीजों की विरासत को नयी पीढ़ी को सौंप रही है और यह स्थानांतरण ऐसे नहीं होता कि बुजुर्ग पीढ़ी अपनी समझ को सनकीपन के साथ नयी पीढ़ी पर थोप रही हो। यह आपसी सहमति से और पूरी समझदारी के साथ हँसते हँसते होता है।

एक बार किशोरी नसीम उत्साह में पूछती हैं, ”दादाजान, आपको पता है कि आकाश का रंग नीला क्यों होता है?”
दादाजान मुस्कुराकर कहते हैं, ”क्योंकि मुझे पीला अच्छा नहीं लगता सो मैंने नीले रंग में रंग दिया”।
नसीम खिलखिलाकर हँस पड़ती है, शायद उन्होने स्कूल में इस बारे में पढ़ा है और दादाजान का अवैज्ञानिक उत्तर उन्हे गुदगुदा गया है कि दादाजान वैज्ञानिक कारण नहीं जानते कि आकाश क्यों नीला दिखायी देता है?
दादाजान भी हँसते हैं और कहते हैं,आकाश पीला हो या नीला कोई फर्क नहीं पड़ता, असल बात यह है कि तुम हँसी, यह बात जरुरी है”।

अयोध्या में राम-मंदिर – बाबरी मस्जिद ढ़ाँचे को लेकर विवाद के कारण फैलते धार्मिक वैमन्स्य के बीच नसीम और दादाजान के मध्य बीते हुये पल जीवन की जीवंतता को इतने तनाव के बीच भी बरकरार रखते हैं।

राम-मंदिर – बाबरी मस्जिद ढ़ाँचे के विध्वंस से पहले फैली साम्प्रदायिकता, वैमनस्य का भाव और ढ़ाँचे के विध्वंस के बाद हुये साम्प्रदायिक दंगों से भारत की अनेकता में एकता की विरासत पर एक बार फिर प्राणघातक हमला हुये। इस बार लगा कि भारत में सहनशीलता की विरासत डर कर कहीं एक कोने में जाकर छुप गयी है और तब से इस गुमशुदा की तलाश भारत में जारी है और इस वैमनस्य की पहुँच केवल देश में रह रहे लोगों तक ही सीमित नहीं रही बल्कि इसने दूसरे देशों में रह रहे भारतीयों को अपनी गिरफ्त में ले लिया और देश से दूर रहते हुये भी वे एक बार फिर धार्मिक गुटों में बँट गये।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब युवा शक्ति को बरगलाया गया हो भारत में। भारत में कितने ही राज्य ऐसे रहे हैं जहाँ आजादी के बाद युवाओं की अपरिपक्व परंतु संवेदनशील मानसिकता को किसी न किसी मुद्दे पर अपना उल्लू गाँठने वाले और अपनी नेतागिरी चमकाने वाले बेहद चालाक लोगों ने भटकाव की राह पर भेज दिया है और इस भटकाव का खामियाजा पूरे देश की निरीह जनता को भुगतना पड़ा है, खासकर गरीब जनता को।

नेतागिरी की रोटी तोड़ने वाले हर बार आग भड़का कर अलग हट गये हैं और विनाश लीला के समाप्त होने के बाद उजले कपड़े पहन कर फिर से आगे आ गये हैं ताकि सत्ता सुख भोग सकें। पर मरे आम लोग हैं। घर परिवार उनके नष्ट हुये हैं।

फिल्म युवाओं के ऐसे भटकाव को दिखाती है। मुश्ताक और जफ़र ऐसे विचारों के प्रतिनिधि हैं कि उन्हे मुसलमान होने के कारण गरीब रखा जाता है, दबाया जाता है। उनके पास ऐसा कोई आँकड़ा नहीं है कि भारत में केवल मुसलमान ही गरीब होते हैं पर ऐसी विचारधारा उन्हे माकूल लगती है और उनकी भावनाओं से मेल खाती है तो वे इसे बार बार दोहराने लगते हैं। उन्हे लगता है कि हर दंगे में केवल मुसलमान ही मारे जाते हैं। दादाजान उन्हे सुधारते हैं और कहते हैं, ”मुसलमान नहीं, कहो कि गरीब मारा जाता है”। दादाजान जफ़र की मानसिकता को सुधारना चाहते हैं पर वह इसकी इजाज़त उन्हे नहीं देता और कहता है, ”मैं जानता हूँ आप क्या कहना चाहते हैं पर मैं सुनना नहीं चाहता”।

युवा पीढ़ी में ऐसी अंधी हठधर्मिता का होना विनाश ही लाता है और पिछले साठ सालों से ऐसी हठधर्मिता भारत को बार बार विनाश के कगार पर छोड़ गयी है। किन्ही अच्छी आत्माओं की अच्छी उपस्थिति का असर रहा है कि भारत विनाश से उबरता आया है।

मुश्ताक और जफ़र की पौरुष उपस्थिति इंकार करती है दादाजान की समझदारी भरी नसीहत को सुनने से और नसीम की स्त्रैण उपस्थिति दादाजान की हर अच्छी बात को गाँठ मार कर रखना चाहती है पर स्त्री की कितनी भूमिका भारत की दिशा निर्धारित करने में मानी जाती है? नसीम की स्त्रियाँ एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाती हैं।

एक हिन्दू स्त्री के मर जाने पर अपनी पत्नी को शांत करते हुये कुलभूषण कहते हैं कि यह उनके पड़ोसी का व्यक्तिगत मामला है।
मुश्ताक और जफ़र गुस्से से कहते हैं, ”उनका मामला है। क्यों हमारे हर मामले में तो वे बढ़चढ़ कर बोलते हैं कि यह गलत है वह गलत है। हिन्दू स्त्रियों की रसोई में ही स्टोव क्यों फटते हैं, मुसलमान स्त्रियों की रसोई में क्यों नहीं फटते?”
कुलभूषण के पास कोई जवाब नहीं है पर जवाब उनकी पत्नी के पास है जो दृढ़ता से मुश्ताक और जफ़र से कहती हैं, ”मियाँ उनके लिये तलाक और बुर्का ही काफी है।”

अयोध्या में चालाक नेताओं द्वारा एकत्रित की गयी मूर्ख और अंधे लोगों की भीड़ ढ़ाँचा तोड़ देती है और इधर घर में दादाजान शरीर छोड़ जाते हैं। उस विध्वंस की तुलना उसी उदाहरण से की जा सकती है जिसमें कहा जाता है कि जो जिस डाली पर बैठा हो उसे ही काट रहा हो। भारत को विनाश की आग में खुद भारतीयों ने ही झौंक दिया।

मूर्ख भीड़ हर सम्प्रदाय में है। कोई कमी नहीं है किसी भी धर्म में ऐसी भीड़ की जो बिना सोचे समझे कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहती है।

दादाजान की मृत्यु पर भी गरममिजाज जफ़र को सिर्फ यही सूझता है कि वह मृत शरीर की यात्रा को देखकर भी कटाक्ष करे, ”वाह दादाजान क्या वक्त चुना है आपने जाने के लिये”।

6 दिसम्बर 1992 के बाद का दौर ऐसे ही अंधे लोगों के हाथ में रहा है जिनके प्रतिनिधियों ने अयोध्या में एक भीड़ बन कर ढ़ाँचा तोड़ा और जो जफ़र जैसे कम समझ वाले लोगों की ही भीड़ रही है और बाद में ऐसी ही अंधी भीड़ ने दंगो की सहायता से मानवता को शर्मसार किया। 21 साल देश ने ऐसे ही लोगों की भीड़ से जूझने में लगा दिये हैं। आशा है यह अंधेरा छंटेगा और सही समझ पनपेगी।

अंधेरे में नसीम जैसे व्यक्तित्वों से ही आशा रहती है कि अपने स्नेहमयी, मृदुल स्पर्श से मानवता को जिंदा रख पायेंगे। रात के गहरे घने अंधेरे के बाद सुबह की रोशनी और ऊर्जा तो उन्ही के पास है।

सईद मिर्जा ने "नसीम" के रुप साम्प्रदायिक तनावों से जूझती एक अनूठी फिल्म बनायी है। अशोक मिश्रा ने लेखन में उनका बहुत ही अच्छे ढ़ंग से साथ दिया और फिल्म को दृष्यों और संवादों के माध्यम से उच्च कोटि की गुणवत्ता प्रदान की। सभी अभिनेताओं ने अपने अच्छे अभिनय से फिल्म को जीवंत बनाया।
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The End 
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समीक्षक : राकेश जी

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छी समीक्षा .

    देखी हुई फिल्म को दुबारा देखने का मन हो आया...

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    उत्तर
    1. प्रिय शुभी !!
      ऐसी बेहतरीन फिल्म को दोबारा देखना भी चाहिए
      ये फिल्म अपने आप में न जाने क्या-क्या कह जाती है
      -
      'नसीम' लाजवाब और यादगार फिल्म है

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