शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

मनीषा कुलश्रेष्ठ की यादगार कवितायें

प्रस्तुति :- प्रकाश गोविन्द


मनीषा कुलश्रेष्ठmanishak
परिचय -
जन्म : 26 अगस्त 1967, जोधपुर
शिक्षा : बी एस सी, विशारद ( कथक)
एम. . ( हिन्दी साहित्य) एम. फिल.

प्रकाशित कृतियां -
बौनी होती परछांई ( कहानी संग्रह)
कठपुतलियां ( कहानी संग्रह)
कई विदेशी रचनाओं का हिन्दी अनुवाद

2001 में कथाक्रम द्वारा आयोजित भारतीय युवा कहानीकार प्रतियोगिता में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।

10061
प्रेम बनाम प्रकृति
============
प्रेम और लिखना बंद करो अब!
पर क्यों ?
हाँ‚ ठीक ही तो कहते हो।
तीस पार कर अब क्या प्रेम !
तो फिर लिखूं‚
उन सत्यों पर जो
किरकिराते हैं पैर के नीचे ?
या अपने ही लोगों के
दोहरे मापदण्डों पर ?
अपने नाम के आगे
श्रीमती लगाने की बहस पर
या
स्त्रियों के समूह में ही
'च्च बेचारी… दो बेटियों की माँ '
होने की व्यर्थ की बेचारगी झेलने पर‚
किस पर लिखूँ ?
बलात्कारों पर‚
कानून की नाक के नीचे होती
दहेज हत्याओं पर ?
ये सारी कविताएं
लड़की होने की पीड़ाओं
से ही जुड़ती हैं क्या ?
अभी ही तो जागी हूँ‚
मीठी स्वप्निल नींद से
और अब
न नष्ट होती प्रकृति पर
लिखने को शेष है
और प्रेम की भी स्थिति वही है
संवेदनहीन और नष्टप्रायः।
अनकण्डीशनल
===========
कुछ रिश्ते
जो अनाम होते हैं
नहीं की जाती व्याख्या जिनकी
जिन्हें लेकर
नहीं समझी जाती
ज़रूरत किसी विश्लेषण की

इनके होने की शर्तें बेमानी होती हैं
बहुत चाव से इन्हें
' अनकण्डीशनल '
' निःस्वार्थ ' होने की संज्ञा दी जाती है
बस फिर कहां रह जाती है
गुंजाइश किसी अपेक्षा की

बस वे होते हैं‚ होने भर को
पड़े रहते हैं कहीं
अपनी – अपनी प्राथमिकताओं
के अनुसार सबसे पीछे
लगभग भुला दिये जाने को
या वक्त ज़रूरत पड़ने पर
उन्हें तोड़ – मरोड़ कर
इस्तेमाल कर लिये जाने को

सखा‚ बन्धु‚ अराध्य‚ प्रणयी …
और भी बहुत तरह से
इतना कुछ होकर भी
इन रिश्तों में
कुछ भी स्थायी नहीं होता

हालांकि इन रिश्तों से
होती है रुसवाई
खिसका देते हैं ये रिश्ते
पैरों के नीचे की ज़मीन
बहुत भुरभुरे होती हैं इनकी दीवारें

कभी भूल से भी इनसे
टिक कर खड़े न हो जाना !
सच कहना …
================
क्या क्या विस्मृत किये बैठे हो तुम
भूल गये पलाश के फाल्गुनी रंग
चटख धूप में मुस्कुराते अमलताश
और टूटी चौखट वाली खिड़की पर
चढ़ी वो चमेली और उसकी मादक गंध ?
पकते सुनहले गेहूं के खेत
वह सिके भुट्टों की भूख जगाती सौंधी खुश्बू ?
मुझसे तो कुछ भी नहीं भूला गया
न वो किले की टूटी दीवार पर
साथ बैठ गन्ने खाना
कैसे भूल जाती वो होली के रंग
साथ साथ बढ़ती बेल सी
हमारी कच्ची दूधिया उमर
और आर्थिक अभावों की कठोर सतहें
बड़ी संजीदगी से पढ़ते थे तुम
मैं वही आंगन में तुम्हारी बहनों के साथ
रस्सा टापती‚ झूला झूलती
भरसक ध्यान खींचती थी तुम्हारा खिलखिला कर
अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाती तुम्हें
तुम पर धुन सवार थी
अभाव काट बड़ा बनने की
क्यों
जानकर अनजान रहे मेरे प्रेम से ?
मैं क्यों रातों तुम्हें
अपनी सांसों में पाती थी
विधना ने तो रचा ही था
बिछोह हमारे मस्तकों पर‚
तुमने भी वही दिन चुना परदेस जाने का
जिस दिन मेरे हाथों में
पराई मेंहदी रची थी सगाई की
मैं आज तक न जान सकी
कि तुम्हारे बड़ा बनने में
मेरा क्या कुछ टूट कर बिखर गया
जिसे आज भी सालों बाद
भरी पूरी गृहस्थी का सुख न जोड़ सका
सच कहना याद आती है न …
मेरी नहीं उन पकते खेतों की…

===========
The End
===========

18 टिप्‍पणियां:

  1. कभी भूल से भी इनसे
    टिक कर खड़े न हो जाना ! bahut badhiyaa...



    sabhii rachnaayen achhi lagiin

    जवाब देंहटाएं
  2. मनीषा जी की कवितायें पढीं
    मैं कविता की ज्यादा समझ तो नहीं रखती लेकिन
    इन कविताओं को कई बार पढ़ा
    कुछ ऐसे भाव थे कि आँखें नम हो गयीं
    मनीषा जी के लेखन को नमन करती हूँ
    अनंत जी को प्रस्तुति के लिए धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. अनकण्डीशनल, सच कहना , और प्रेम बनाम प्रकृति
    तीनों ही कवितायें बहुत ही सुन्दर
    दिल को भावुक कर देने वाली
    वाकई यादगार कवितायें हैं

    जवाब देंहटाएं
  4. एक से बढ़कर एक बेजोड़ और उत्कृष्ट कवितायें
    प्रशंसनीय और यादगार
    आभार आपका इतनी सुन्दर कविताओं को पढ़वाने हेतु

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति, बधाई

    जवाब देंहटाएं
  6. bahut hi sudar rachnaye...shukriya hume ye padhwane k liye...

    जवाब देंहटाएं
  7. सभी रचनाये बहुत सुंदर लगी,

    प्रेम और लिखना बंद करो अब!
    पर क्यों ?
    हाँ‚ ठीक ही तो कहते हो।
    तीस पार कर अब क्या प्रेम !
    तो क्या तीस के बाद आदमी मै प्यार खत्म हो जाता है?
    प्यार है क्या ?
    बस यह बात समझ से परे है मेरी...
    जिसे मै प्यार कहता हुं वो एक पवित्र रिशता है

    जवाब देंहटाएं
  8. जीवन के रस से सराबोर करती हैं ये कविताएं।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

    जवाब देंहटाएं
  9. सभी रचनाएँ बड़ी खूबसूरती से रचित हैं...गहरे भाव

    जवाब देंहटाएं
  10. उन उत्कृष्ठ रचनाओं के लिए मनीषाजी बधाई की पात्र हैं।
    { Treasurer-S, T }

    जवाब देंहटाएं
  11. सुंदर रचनाएं .. मनीषाजी अच्‍छा लिखती हैं !!

    जवाब देंहटाएं
  12. सभी रचनायें बहुत सुन्दर और आज के सच पर हैं मगर कुछ पंक्तियां दिल को छू गयी
    हालांकि इन रिश्तों से
    होती है रुसवाई
    खिसका देते हैं ये रिश्ते
    पैरों के नीचे की ज़मीन
    बहुत भुरभुरे होती हैं इनकी दीवारें

    कभी भूल से भी इनसे
    टिक कर खड़े न हो जाना !
    मनीषा जी को बहुत बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं
  13. मनीषा जी का कहानी संग्रह " कुछ भी तो रूमानी नही" अभी अभी पढ़ा है । कविताएँ भी बेहद अच्छी लगीं -शरद कोकास दुर्ग ,छ.ग.

    जवाब देंहटाएं
  14. मनीषा जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रुबरु करवाने का हार्दिक आभार.
    सभी रचनायें एक से बढ़ कर एक यतार्थ की गहरे लिए हुए है.

    चन्द्र मोह्जन गुप्त
    जयपुर

    जवाब देंहटाएं

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